डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव अभियान अंतिम दौर में पहुंच गया है। डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन और वर्तमान राष्ट्रपति व रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है। राजनीतिक बहसों और कैम्पेन के दौरान एक- दूसरे के खिलाफ जहर भी खूब उबला गया तो एशियाई खासतौर से भारतीयों के वोट अपने पाले में करने के लिए हर संभव प्रयास भी किए गए।
जहां एक ओर ट्रंप मोदी के नाम का सहारा ले रहे हैं तो बाइडेन उपराष्ट्रपति पद पर भारतीय मूल की महिला को मैदान में उतार कर भारतीय मूल के मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया है।
इसमें दो राय नहीं कि अमेरिका के कई राज्यों में भारतीय मूल के मतदाताओं का दबदबा है। हार-जीत को बदलने में यह महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं। यही कारण है कि डेमोक्रेटिक तो भारतीयों को अपने पक्ष में मान कर ही चलते हैं। हालांकि मोदी का जलवा अमेरिका में भी कम नहीं है। अबकी बार मोदी सरकार की तर्ज पर वहां भी खूब नारे लगे हैं और लग रहे हैं।
एक बात साफ हो जानी चाहिए कि चाहे लाख सर्वे बाइडेन का पलड़ा भारी बता रहे हों या लोग ट्रंप के बड़बोलेपन और खुराफातों से परेशान हों पर पिछले एक दशक का जिस तरह का माहौल दुनिया के देशों में राजनीति और राजनेताओं को लेकर बना है, उससे विश्लेषक कुछ भी कहें पर आज भी पलड़ा भारी ट्रंप का ही लग रहा है। दुनिया के लोग आज बोल्ड नेता को पसंद करने लगे हैं। निर्णय गलत हो या सही, परिणाम अच्छे निकले या खराब, लोग निर्णय लेने की क्षमता वाले नेता को पसंद करते हैं। यहां भी खासतौर से मोदी को लें तो साफ हो जाता हैै कि जनता मोदी की निर्णय करने की क्षमता को पसंद करती है।
कमोबेश यही बात ट्रंप में अमेरिकियोें को लगने लगी है। ट्रंप का बड़बोलापन ही उनकी विजय का प्रमुख कारण बनेगा। हमारे यहां तो कहावत है कि बोलने वाले के तो भूंगड़े भी बिक जाते हैं और यही अब राजनीति में होने लगा है। पांच दशक पहले जमूरे का खेल गली-मोहल्लों के चौराहों पर आम थे तो जमूरे की आवाज पर भीड़ जुटने लगती थी, वही स्थिति आज है। क्या सही है क्या गलत, यह मायने नहीं रखता बल्कि अब मायने यह रखने लगा है कि आप जो कह रहे हैं या कर रहे हैं उसपर टिके रहें।
दुनिया के राजनीतिक हालात भी कुछ इसी तरह के होते जा रहे हैं। कोरोना से डरी-सहमी दुनिया चीन से गले तक भर आई है तो इस्लामी आतंकवाद ने सारी दुनिया को हिला दिया है। फ्रांस की हालिया घटना इसका बड़ा उदाहरण है। कोरोना को सारी दुनिया भुगत चुकी है और यूरोप में तो कोरोना की दूसरी लहर आ गई है जिससे लोग डरे-सहमे बैठे हैं। आज राजनीतिक चौसर इस तरह की बिछ चुकी है कि चीन दुनिया का दुश्मन नंबर एक हो गया है।
ऐसे में चीन के खिलाफ दुनिया के देश एक हो रहे हैं तो ट्रंप इसे भुनाने में कमी नहीं छोड़ रहे और अमेरिकियों को ड्रैगन का डर दिखा रहे हैं।
जहां तक भारतीय वोटों की बात है यह भी साफ हो जाना चाहिए कि चाहे बाइडेन और डेमोक्रेटिक पार्टी भारतीयों को अपने पक्ष में मानकर चल रही हो पर विश्लेषकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर सहित विभिन्न मामलों में डेमोक्रेटिक पार्टी ने जिस तरह की प्रतिकियाएं जारी की थी और पाकिस्तान को शह देने का प्रयास किया था, उसे भारतीय भूलेंगे नहीं। आज राममंदिर हो या कश्मीर से धारा 370 हटाना या चीन से टक्कर या फिर पाकिस्तान को कॉर्नर कर देने में भारतीय कूटनीति सफल रही है, उसके कारण लोग मोदी के कायल हैं।
लगभग यही स्थिति अमेरिका की है। ट्रंप ने लोकल को लेकर जिस तरह का अभियान चलाया और विदेशियों पर वीजा को लेकर के जिस तरह से अंकुश लगाने का प्रयास किया है, उससे अमेरिकी युवा खुश ही हैं। रंगभेद और अश्वेतों की खिलाफत के बावजूद ज्यादा उलटफेर के आसार कम ही लगते हैं।
ऐसे मेें साफ हो जाना चाहिए कि ट्रंप चुनावी मैदान से अंदरूनी तौर पर बढ़त बनाए हुए हैं। इसे यों भी समझा जा सकता है कि एक के बाद एक सर्वें में पिछड़ने के बाद ट्रंप ने स्थिति को तेजी से सुधारा है। उनके पक्ष में माहौल बना है। हालांकि 3 नवंबर को मतदान और उसके बाद का परिणाम भविष्य के गर्व में छिपा है लेकिन कोई आश्चर्य नहीं कि रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में दूसरी पारी खेलने आ जाएं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)