नई दिल्ली. राहुल गांधी ने जयपुर में महंगाई के खिलाफ हुई हिंदुत्व बनाम हिंदुत्ववादी और गांधी बनाम गोडसे की जो बहस छेड़ी है उसके मायने वैसे नहीं हैं जैसा कि सुनने में लग रहा है. राहुल-प्रियंका बनाम मोदी या फिर कांग्रेस बनाम बीजेपी के रूप में भी देख सकते हैं. अगर उनके भाषण पर इतनी चर्चा है तो इसका एक मतलब साफ़ है- राहुल गांधी एक साथ कई चीजों को साधने में कामयाब रहे. उन्होंने संदेश भेज दिया है.
कांग्रेस सबसे मुश्किल दौर में है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की मौत के बाद भी कांग्रेस के सामने ऐसे हालात नहीं थे. तब गांधी परिवार की अगली पीढ़ी तैयार नहीं थी, बावजूद ऐसे हालात नहीं थे. इतिहास में पहली बार गांधी परिवार की राजनीतिक प्रासंगिकता पर ही सवाल हो रहे हैं. शीर्ष नेतृत्व सवाल उठाने वालों पर कार्रवाई का जोखिम उठाने से बचता दिख रहा है. पार्टी में उठापटक है. नए एजेंडा और शीर्ष नेताओं की प्रतिक्रियाओं में असंतोष जैसी चीजें साफ़ देखी जा सकती हैं. 2024 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जीतेगी या हारेगी, का सवाल अब बहुत छोटा है.
मोदी की हार-जीत से ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या 2024 के चुनाव में विपक्ष के रूप में कांग्रेस का वजूद बचेगा? या इस सवाल को दूसरे रूप में और साफ़ कर देखना चाहें तो पूछ सकते हैं कि – “सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिकड़ी क्या गांधी परिवार की राजनीतिक प्रासंगिकता बरकरार रख पाएगी?” 2024 में प्रासंगिकता का सवाल भी तभी तक जिंदा रहेगा जब आगामी विधानसभा चुनावों खासकर यूपी की राजनीति में कांग्रेस की टांग मजबूती से अड़ी दिखाई दे. यह सब कैसे?
राहुल गांधी के सामने चुनौतियों का पहाड़ है.
2024 के चुनाव से पहले- अगले दो सालों में कई बड़े चुनाव होने हैं. इनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश भी शामिल हैं. पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ही सरकारें हैं. मध्य प्रदेश में सरकार बनाई मगर पार्टी टूट से ढह गई. उत्तराखंड में पांच साल पहले तक कांग्रेस सरकार थी और अभी मुख्य विपक्ष है. आंकड़ों के लिहाज से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चौथे-पांचवें नंबर की पार्टी है. ये वो इलाके हैं जहां के विधानसभा नतीजे ही असल में केंद्र की राजनीतिक दिशा तय करेंगे और यह भी कि काग्रेस की राजनीतिक प्रासंगिकता किस तरह होगी?
यूपी में पार्टी का सांगठनिक आधार अन्य दलों के लिहाज से कमजोर है. मगर यह सच्चाई है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद रक्षा सौदों, नागरिकता क़ानून, धारा (अनुच्छेद) 370, महंगाई, सीमा सुरक्षा, किसान आंदोलन आदि तमाम मुद्दों और राज्य की कुछ विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस की हैसियत आंकड़ों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत दिखती है. कुछ हद तक अभी भी असर डालने लायक.
लोकसभा में कांग्रेस के 53 सांसद हों या 150, पर इस सच्चाई को भला कौन खारिज कर सकता है कि जैसा भी हो देशव्यापी विपक्ष का चेहरा कांग्रेस ही है. क्षेत्रीय दल भले ही तीसरे मोर्चे की संभावना तलाश रहे हों, मगर उनमें विपक्ष के रूप में कांग्रेस की जगह लेने की क्षमता ही नहीं है.
इस वक्त बीजेपी के खिलाफ सिर्फ मुसलमान मतदाता ही हैं जो कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत माने जा सकते हैं. हालांकि जहां कांग्रेस, बीजेपी के खिलाफ क्षेत्रीय चुनौतियों के त्रिकोण में फंसी है वहां कांग्रेस से सिम्पैथी जता रहा मुस्लिम ना चाहकर भी उससे दूर खड़ा नजर आ रहा है. यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है. तथ्य हैं कि 2014 से अब तक नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ तमाम मुद्दों पर राहुल और कांग्रेस के अलावा शायद ही कोई दल आक्रामकता, मुखरता और ईमानदारी से डटा हो. खासकर 2019 में मोदी की दूसरी जीत के बाद विपक्ष में कांग्रेस के (कुछ हद तक तृणमूल और राजद भी) अलावा अन्य दल सन्नाटे में हैं.
कोई अपना मुंह पीटकर भले लाल करें क्या इस सच्चाई को खारिज कर सकते हैं कि अखिलेश यादव पिछले पांच साल तक गायब दिखते हैं. मायवती का रहस्य तो व्याख्या से परे ही है. ताकतवर विपक्ष के रूप में कांग्रेस के होने और अन्य क्षेत्रीय दलों के होने का फर्क बीजेपी को मालूम है. और यही वजह है कि बीजेपी ने हमेशा ताकतवर क्षेत्रीय दलों की बजाय कई मर्तबा “कमजोर” कांग्रेस को ही बड़ा खतरा माना है.
बीजेपी के खिलाफ राहुल गांधी के तेवर से कांग्रेस को हासिल क्या हुआ इस पर बात होनी चाहिए. पिछले कुछ चुनावों के दौरान मोदी विरोध के नाम पर जो जनमूह तैयार हुआ वह क्यों हुआ और आज कहां खड़ा है? वह ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव के पीछे जाकर खड़ा हुआ. यहां तक कि उसे उद्धव ठाकरे के पीछे भी खड़े होने में संकोच नहीं है. यूपी में वही जनसमूह अब अखिलेश के पीछे जाने को तैयार है. वह जनसमूह कांग्रेस के साथ सिर्फ वहीं हैं जहां बीजेपी से सीधी टक्कर है. और यूपी में कांग्रेस, बीजेपी के साथ सीधे मुकाबले में नहीं है.
कांग्रेस की हालात उस किसान की तरह है जो मेहनत से खेत तैयार करता है, उसमें बीज डालता है, फसल पकने तक उसकी हर तरह से देखभाल और रखवाली करता है- मगर अंत में कोई और आता है और फसल काटकर चला जाता है. फसल उगाने वाला किसान चाहता तो बहुत है कि उसे रोक दे- पर कैसे उसे नहीं मालूम कैसे. वह अपनी लागत भी वसूल नहीं पाता. यही वो बिंदु है जहां कांग्रेस पिछले कई सालों से मात पर मात खा रही है. बड़ी लकीर खींचे बिना इसे कभी रोका नहीं जा सकता है. और कांग्रेस के लिए वह बड़ी लकीर राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब या उत्तराखंड नहीं निकल रही.
जयपुर से लखनऊ के लिए राहुल गांधी का संदेश क्या है?
उत्तर प्रदेश वह राज्य है जहां से कांग्रेस लकीर खींच सकती है. यूपी में लकीर खींचने का मतलब सिर्फ सरकार बनाना भर नहीं है. अगर कांग्रेस यहां दो दर्जन से ज्यादा भी सीटें जीत ले और वोट शेयरिंग में उसकी हिस्सेदारी बढ़ जाए तो कांग्रेस को अपने खूंटे की गाय बनाने की कोशिश में लगे भाजपा विरोधी क्षेत्रीय ताकतों के ख्वाब धरे रह जाएंगे. क्योंकि मौजूदा सियासत में निजी राजनीतिक हित तलाश रहे क्षेत्रीय ताकतों के पास कांग्रेस के खूंटे की गाय बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
यूपी में शायद इस बार कांग्रेस किसी और को अपनी फसल काटने से रोकने का इंतजाम करते दिख रही है. हालांकि देरी बहुत हुई है. कांग्रेस को अपने संसाधनों का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश के उन छोटे दलों को साथ लाने में करना था जो बिखरे हुए हैं और किसी भी राजनीतिक मोर्चे की छतरी के नीचे नहीं हैं.
पता नहीं कि कांग्रेस ऐसी ठोस कोशिश कर भी रही है या नहीं. मगर कांग्रेस मुसलमानों को साथ बनाए रखने की जद्दोजहद में है और इसके लिए सॉफ्ट हिंदुत्व को त्यागने का रिस्क (अगर कभी लाभ हुआ है तो रिस्क ही माना जाएगा) उठाने को भी तैयार है जो पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी हासिल करते दिखे.
राहुल गांधी के “गांधी और गोडसे” की बहस दोतरफा है. मुसलमानों के अलावा अन्य वोट तो कांग्रेस का रहा ही है. अब कांग्रेस की कोशिश है कि उस वोट को गांधी और गोडसे के फर्क की शक्ल दी जाए. बीजेपी का भी तो एक “हिंदू वोट” उससे नाराज दिखता है. इसे बीजेपी के खिलाफ राहुल के हथकंडे के रूप में क्यों नहीं देखा जा रहा? दूसरी बात जब राहुल गांधी और गोडसे की बात कर रहे होते हैं तो इससे ध्वनियां किस तरह निकलती हैं?
गोंडसे को कई दशकों से उग्र हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. क्या यह नहीं माना जाए कि गोंडसे की बहस खादी कर राहुल असल में बीजेपी के हिंदुत्ववाद पर प्रहार कर रहे हैं. गांधी और गोडसे की बहस में राहुल जब हिंदुत्ववादियों को सत्ता का लालची बता रहे हैं तो उनका व्यापक इशारा किसकी ओर है? वे सीधे नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ पर हमले करते दिख रहे हैं.
राहुल गांधी का हमला मुसलमानों को प्रभावित कर रहा है. “हिंदुओं की सरकार” के बहाने ओवैसी का तिलमिलाना इसका स्पष्ट सबूत है. यूपी चुनाव के लिहाज से यह दमदार अपील है. मकसद लगभग वही है जिसके लिए अखिलेश यादव ने पिछले दिनों “जिन्ना एपिसोड” का जिक्र किया. राहुल ने भी उसी मकसद से “गांधी और गोडसे” का इस्तेमाल किया है.
वे भले बोल रहे जयपुर में हों मगर लखनऊ को साधने की कोशिश कर रहे थे. राहुल की चिंता का विषय लखनऊ ही होना चाहिए. रायपुर, जयपुर, भोपाल, शिमला नहीं. गांधी और गोडसे की बहस खड़ा करने वाले राहुल गांधी जयपुर में उस राहुल गांधी से बिल्कुल अलग दिखें जो मंदिरों में गए, तिलक लगाया, जनेऊ का सार्वजनिक प्रदर्शन किया और गोत्र तक की दुहाई दी.
राहुल की पिछली हरकतें उनकी पार्टी का वास्तविक चेहरा तो नहीं कही जा सकतीं. भाजपा और संघ के रहते हो भी नहीं सकता कभी. जब बीजेपी के खिलाफ शिवसेना तक यह चेहरा बरकरार रखने में पस्त नजर आ रही तो भला राहुल गांधी किस खेत की मूली हैं. पता नहीं कैसे उनके रणनीतिकारों को लगा था कि मोदी के खिलाफ राहुल को इन चीजों से मजबूती मिलेगी.
हकीकत में राहुल सिर्फ मोदी की चकाचौंध से प्रेरित “हिंदुत्व की ओर सत्ता के लिए ललचाया गांधी” भर नजर आए थे. राहुल के बयानों को आगामी विधानसभा चुनावों के लिहाज से कांग्रेस के एक और वैचारिक यूटर्न के रूप में भी देख सकते हैं. यह सिलसिले की शुरुआत भर है.
राहुल गांधी को यूपी के मुसलमानों की जरूरत है. कैसे भी? कांग्रेस ने उनका भरोसा काफी हद तक जीता है. मगर यह भरोसा उतना मजबूत नहीं कि मुसलमान आंख मूंदकर एकमुश्त कांग्रेस के साथ आ रहे हैं. मुसलमान यूपी में बीजेपी से मुकाबले में कांग्रेस को कमजोर पा रहे हैं. इसमें कांग्रेस विरोधी क्षेत्रीय दलों का प्रोपगेंडा भी असर दिखा रहा है कि बीजेपी को हराने में कांग्रेस सक्षम ही नहीं है.
पर अगर इन्हों दलों से पूछा जाए कि दिल्ली में बीजेपी को रोकने में कांग्रेस के अलावा और कौन सा दल सक्षम है तो सभी अगल-बगल झांकने लगेंगे. पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में क्षेत्रीय दलों की चुनौती नहीं है. पार्टी का आपसी झगड़ा है. जहां चुनौती है वहां विपक्षी दलों के प्रोपगेंडा से पार्टी पार नहीं हो रही.
बंगाल में यही हुआ. ममता यह मनवाने में कामयाब रहीं कि कांग्रेस-वाम गठजोड़ भाजपा को जिताने के लिए बना है. अखिलेश- यूपी में कांग्रेस को “वोटकटुआ” साबित करने पर तुले हैं. जयपुर को एक शुरुआत भर मानें. गांधी-गोडसे जैसी आक्रामक बहसों के जरिए ही यूपी में क्षेत्रीय दलों की भीड़ में कांग्रेस मौजूदगी बरकरार रख सकती है.
यूपी में मुसलमानों के साथ कांग्रेस के मजबूत होने के मायने सीधे 2024 से जुड़ते हैं. ममता-अखिलेश-तेजस्वी का बड़बोलापन अपनी जगह है मगर सच्चाई अलग है. पूरे देश में कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो सिर्फ कांग्रेस ही है जो आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में सीधे बीजेपी से मुकाबले में है.
जहां कांग्रेस के साथ बीजेपी का सीधा मुकाबला नहीं है वहां त्रिकोण लड़ाइयां हैं. यानी 24 में बीजेपी के खिलाफ कोई भी गठबंधन कांग्रेस को नजरअंदाज करके बनाया ही नहीं जा सकता. यूपी कांग्रेस का एजेंडा है जो आंकड़ों में यह दिखा जाए कि हम लडे. बहादुरी से लडे.
कांग्रेस के लिए यूपी में लकीर खींचना थोड़ा मुश्किल जरूर है. पर इसके अलावा कोई चारा भी नहीं. जो सबसे अच्छी बात है वह यह कि पिछले 20 साल में पहला चुनाव होगा जब यूपी में कांग्रेस का आतंरिक संगठन तैयार और सक्रिय है. भले ही अन्य मुख्य दलों के स्तर का ना हो, पर है तो. यह भी कि बहुत दिनों बाद यह पहला चुनाव है जब कांग्रेस में विधानसभा टिकट के लिए पर्याप्त दावेदारियां दिख रही हैं.