रूस-यूक्रेन युद्ध: क्या अमेरिका का असर घट गया है?

नई दिल्ली। रूस और यू्क्रेन के बीच छिड़ा संघर्ष इन दिनों दुनिया भर में चर्चा और चिंता का विषय बना हुआ है। रूस की सेना लगातार यूक्रेन की राजधानी कीव की तरफ बढ़ रही है। ऐतिहासिक रूप से रूस हमेशा से यूक्रेन पर अपना दावा करता रहा है। नौवीं शताब्दी में वह रूसी साम्राज्य की राजधानी था और कीव आधुनिक रूस के निर्माण का स्थल था।

इसलिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपने मौजूदा मित्र देश के साथ गठबंधन किया है और यह भू-राजनीतिक दृष्टि से नई विश्व व्यवस्था की शुरुआत है, जिसे रूस ने परिभाषित करने का फैसला किया है। और रूस के समक्ष अमेरिकी नेतृत्व के खड़ा होने की अक्षमता यह दिखाएगी कि भू-राजनीति में अमेरिका का प्रभाव घट गया है।

वास्तव में भारी संख्या में रूसी सैनिक यूक्रेन में भीतर तक घुस गए हैं। यूक्रेन की राजधानी में धमाकों की आवाज सुनाई देने के साथ ही कीव के बाहरी इलाके में घातक लड़ाई चल रही है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? सबसे पहली बात यह है कि रूस हमेशा से लिखित रूप में यह गारंटी चाहता रहा है कि यूक्रेन अमेरिकी नेतृत्व में नाटो सैन्य गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगा।

लेकिन पश्चिमी देशों ने यह गारंटी देने से इनकार कर दिया, बस कुछ वादे भर किए, जिसका कोई मतलब नहीं है। दूसरी बात यह है कि, रूस जोर देकर यह कहता रहा है कि अगर पश्चिमी देशों का सैन्य संगठन रूस के सीमावर्ती इलाकों में आता है, तो रूस की सुरक्षा के लिए एक चुनौती पैदा होगी, खासकर रूस के कब्जा वाले क्रीमिया की सुरक्षा को लेकर।

रूस ने कहा कि अगर नाटो सैनिक यूक्रेन में आते हैं, तो वे निश्चित रूप से क्रीमिया पर आक्रमण करेंगे, जिसके चलते हमें युद्ध में जाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। ऐसे में 38 से ज्यादा देश, जो पूर्व सोवियत संघ से निकले हैं, वे सब भी नाटो में शामिल हो जाएंगे।

इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से रूस हमेशा से दावा करता है कि यूक्रेन वह जगह है, जहां प्राचीन रूसी साम्राज्य ने आकार लिया और वह आधुनिक रूस की जन्मस्थली है। अतीत में यूक्रेन रूस को रणनीतिक सुरक्षा प्रदान करता रहा है। यूक्रेन ने 1812 में नेपोलियन की सेना और 1941 में हिटलर की नाजी सेना से रूस को बचाया था। जब यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा था, तो इसका नाम पुराने रूसी शब्द ‘ओक्रेना’ से लिया गया था, जिसका मतलब होता है परिधि।

लेकिन पूर्व सोवियत संघ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा यूक्रेन जब सोवियत संघ के पतन के बाद उससे अलग हो गया, तो पुतिन को यह अपमानजनक लगा। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए, जो कभी केजीबी अधिकारी थे और जिन्होंने बर्लिन की दीवार को गिरते हुए देखा, पूर्व सोवियत संघ का पतन एक व्यक्तिगत नाराजगी में बदल गया और समय के साथ यह नाराजगी और बढ़ती ही गई। सोवियत संघ के बिखरने के बाद उन्होंने पश्चिम के लोगों का अंधराष्ट्रवाद देखा। पुतिन कट्टर राष्ट्रवादी हैं और उनका मंसूबा है कि एक दिन वह पश्चिमी दुनिया को भी इसी तरह मजा चखाएंगे।

इसलिए उन्होंने अपने मौजूदा मित्र देश चीन से हाथ मिलाया, जो आर्थिक और सैन्य रूप से काफी मजबूत है। पश्चिमी जगत ने चीन को आर्थिक रूप से मजबूत होने का अवसर दिया, लेकिन चीन ने पश्चिम का इस्तेमाल किया और फिर उसे धोखा दिया, जैसे पाकिस्तान अक्सर अमेरिका का इस्तेमाल करता है और उसे धोखा देता है। इसलिए पश्चिम के इस तर्क को, कि रूस ने सभी नियमों का उल्लंघन किया है, सम्रगता में समझने की जरूरत है। पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की बातें रूस और चीन को पसंद नहीं हैं।

रूस-यूक्रेन संकट के संदर्भ में भारत ने जो तटस्थ रुख अख्तियार किया है, वह बिल्कुल वाजिब है, क्योंकि कूटनीतिक रूप से भारत की स्थिति अनिश्चित है। रूस एक ऐसा देश है, जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। भारत अपनी सामरिक सुरक्षा के लिए भारी मात्रा में रूस से हथियारों का आयात करता है। रूस अकेला देश है, जिसने भारत को लीज पर परमाणु पनडुब्बी दी है। भारत को रूस से स्पेयर पार्ट्स, टेक, सैन्य रख-रखाव और सैन्य आपूर्ति की जरूरत पड़ती है।

वैसे भी भारत के लिए फिलहाल स्थिति सामान्य नहीं है, क्योंकि चीन के साथ भारत का सीमा विवाद खत्म नहीं हुआ है और दोनों देशों के बीच गतिरोध बना हुआ है। ऐसे में सैन्य आपूर्ति के साथ-साथ रूस से बेहतर संबंध बनाए रखना भारत के लिए जरूरी है। रूस के साथ भारत के बहुत पुराने और परखे हुए विश्वसनीय मैत्री के संबंध हैं, जिसे रातोंरात खत्म नहीं किया जा सकता।

अगर भारत पश्चिमी खेमे के साथ खड़ा हो, तो उसे क्या मिलेगा? ढिठाई के अलावा और कुछ भी नहीं। अब आप देखिए कि पश्चिम ने यूक्रेन के साथ क्या किया, उन्होंने संकट की घड़ी में यूक्रेन के साथ खड़े रहने का झूठा वादा किया। आज यूक्रेन अकेले रूस से जंग लड़ रहा है, और पूरा पश्चिमी जगत तमाशा देख रहा है।

यूक्रेन रूस और अमेरिका के भू-राजनीतिक खेल में बलि का बकरा बनकर रह गया है। रूस जानता है कि अमेरिका के पास जंग लड़ने की क्षमता नहीं है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन जानते हैं कि अफगानिस्तान में मुंह की खाने के बाद अमेरिका रूस के साथ सीधे टकराव मोल नहीं लेगा। अमेरिका ने भी कहा है कि वह युद्ध के मैदान में नहीं उतरेगा, बल्कि बाहर से सहायता करेगा।

इसी बीच चीन ने बेहद स्पष्ट रूप से यह कहा है कि ताइवान उसका अभिन्न अंग है और चीन के लोगों के पास राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने की क्षमता है। लेकिन इस पर अमेरिका या उसके सहयोगी देशों की अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। इसलिए ताइवन पर चीन कब्जा करने की कोशिश कर सकता है।

इसी तरह की कार्रवाई वह अक्साइ चीन, लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश में कर सकता है। वह हिमालयी क्षेत्र में भारतीय सेना के साथ उलझ सकता है, लेकिन समुद्री क्षेत्र में बंगाल की खाड़ी और मलक्का हमें चीन पर बढ़त हासिल है। लेकिन चीन साइबर हमले कर सकता है, बैकिंग प्रणाली को ध्वस्त करने की कोशिश कर सकता है, जिससे सावधान रहने की जरूरत है।

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