नई दिल्ली। मुफ़्त की रेवड़ियों और कल्याणकारी घोषणाओं में क्या फ़र्क़ है? बड़ी रोचक बहस चल रही है। दरअसल, सुझाव दिया था सुप्रीम कोर्ट ने। कोर्ट ने कहा था कि चुनाव पूर्व पार्टियों द्वारा की जाने वाली घोषणाएं प्रैक्टिकल हैं भी या नहीं? सरकारी ख़ज़ाने पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है? मुफ़्त की रेवड़ी और कल्याणकारी योजनाओं या घोषणाओं में आख़िर क्या फ़र्क़ है, इस पर बहस होनी चाहिए।
चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को एक चिट्ठी लिखी और पूछा कि बताइए- आपके हिसाब से कल्याणकारी योजनाएँ कौन सी हैं और मुफ़्त की रेवड़ी कौन सी? यह भी पूछा कि चुनाव पूर्व घोषणाओं के फाइनेंशियल इम्पैक्ट के बारे में भी क्यों नहीं बताया जाना चाहिए? ख़ैर चुनाव आयोग ने चिट्ठी लिखकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली। अब शुरू होता है जवाबों का सिलसिला। अलग-अलग पार्टियाँ और उनके नेता रोचक और हंसा देने वाले जवाब दे रहे हैं।
भाजपा के एक नेता ने कहा- गरीबों को मुफ़्त घर देना और राशन देना कल्याणकारी योजना है, लेकिन मुफ़्त बिजली देना रेवड़ी है। इसकी गहराई में जाएँ तो पता चलता है मुफ़्त मकान और राशन की योजना केंद्र सरकार की है। मुफ़्त बिजली की योजना आप पार्टी की है जो उसने दिल्ली और पंजाब में लागू कर रखी है। साथ ही गुजरात में भी आप पार्टी मुफ़्त बिजली का वादा कर रही है क्योंकि वहाँ चुनाव होने जा रहे हैं।
भाजपा नेता यह भूल गए कि उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने हिमाचल में मुफ़्त बिजली की योजना लॉन्च कर रखी है। उधर कांग्रेस का कहना है कि चुनाव आयोग को मुफ़्त की रेवड़ी और कल्याणकारी योजनाओं की परिभाषा गढ़ने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं है। यह तय करना संसद का काम है और संसद यह काम बखूबी कर लेगी। बाक़ी विपक्षी पार्टियाँ फ़िलहाल इस बहस में पड़ना नहीं चाहतीं।
कुल मिलाकर, फ़िलहाल यह तय नहीं हो पाया है कि चुनाव पूर्व मतदाताओं को ललचाने वाली घोषणाओं पर किस तरह अंकुश लगाया जाए। या अंकुश लगाया जाना भी चाहिए या नहीं। देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट का अब इस पर क्या रुख़ होता है। इस बारे में कोई नियामक आयोग बनाया जाता है या यह ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग को ही सौंप दी जाती है, यह भविष्य ही बताएगा।