लेबनानी बोले- खाने के पैसे नहीं, बच्चे रोटी को तरसे

‘2006 में भी लेबनान में युद्ध हुआ था, लेकिन इस बार जैसा नहीं था। ये उससे भी ज्यादा भयानक है। मैं युद्ध की तबाही झेल रहे लोगों को देखकर टूट जाती हूं। उनके पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं। ये देखकर मेरा दिल टूट जाता है। अपना खुद का घर छोड़कर आए लोग अब समंदर किनारे सो रहे हैं।’

लेबनान में रह रही 31 साल की मारिशेल रूमा ये बताते हुए रोने लगती हैं। इजराइल के हमले के बाद से लोग भागकर राजधानी बेरूत पहुंच रहे हैं। यहां रहने के लिए जगह नहीं है, इसलिए समंदर किनारे छोटे-छोटे तंबुओं में ठिकाना बना लिया है। ये लोग अब अपने ही देश में शरणार्थी हैं। मारिशेल दोस्तों के साथ मिलकर उनके लिए खाना, पानी और जरूरत का सामान पहुंचा रही हैं।

इजराइली हमलों के कारण लेबनान में अब तक 700 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। 10 लाख लोगों को घर और शहर छोड़ना पड़ा है। शरणार्थियों के लिए बेरूत में रिलीफ कैंप बनाए गए है। अब इन कैंप में भी जगह नहीं बची है। लिहाजा, समंदर के किनारे टेंट लगाकर लोगों को अस्थायी तौर पर रखा गया है।

खुद शरणार्थी बनकर आई थीं, अब शरणार्थियों की मदद कर रहीं रिफ्यूजी कैंप में हमें मारिशेल रूमा मिलीं। वे फिलिपींस की रहने वाली हैं। 20 साल पहले शरणार्थी बनकर लेबनान आई थीं और यहीं बस गईं।

20 साल गुजर गए, अब वे लेबनान में सेटल हो चुकी हैं। रूमा को लेबनान के अलग-अलग हिस्सों से भागकर आ रहे लोगों के बारे में पता चला। वे उनकी मदद के लिए चली आईं।

रूमा कहती हैं, ‘मैं खुद शरणार्थी रही हूं। घर छोड़ने का दर्द जानती हूं। इस रिफ्यूजी कैंप में एक रोटी के लिए दौड़कर आ रहे बच्चों में मैं खुद को देख पा रही हूं। अपना घर-मुल्क छोड़कर दूसरे देश में शरणार्थी बनना सबसे बड़ी तकलीफ है। उन्हें इस तरह से बमबारी नहीं करनी चाहिए। अगर उनके मन में इंसान की जरा भी कीमत है, तो युद्ध तुरंत बंद कर देना चाहिए।’

सड़क, पार्क और पार्किंग में ठहरे शरणार्थी बेरूत में सड़कों से लेकर पार्क तक और बीच से लेकर पार्किंग तक शरणार्थी ही दिखाई दे रहे हैं। युद्ध से प्रभावित लोग सड़क किनारे गद्दे बिछाकर सो रहे हैं। कुछ पार्किंग में गाड़ियां खड़ी कर अस्थायी तंबू बनाकर रह रहे हैं। वहीं कुछ लोग समंदर किनारे बीच एरिया पर लकड़ी या प्लास्टिक के कैंप बनाकर रह रहे हैं।

लेबनान सरकार ने शरणार्थियों के लिए स्कूल, कॉलेजों और दूसरी सरकारी इमारतों में ठहरने के इंतजाम किए हैं। ये रिफ्यूजी कैंप समाजसेवी संगठनों की मदद से चल रहे हैं। हम बेरूत के उमर फारुक स्कूल में बने रिफ्यूजी कैंप में पहुंचे।

यहां हमें रिफ्यूजी कैंप में वॉलंटियर के तौर पर काम कर रहे इमाद मिले। इमाद इंजीनियर हैं। विदेश में काम करते थे। अपने देश में युद्ध छिड़ने के बाद वे लोगों की मदद करने के लिए लौट आए हैं। इमाद कहते हैं, ‘इस इमारत में 68 परिवारों के 395 लोग रह रहे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग साउथ लेबनान और बेका वैली से आए हैं।’

’ये वही इलाके हैं, जहां हिजबुल्लाह की अच्छी पकड़ है। चीफ नसरल्लाह की मौत के बाद हिजबुल्लाह के ठिकानों पर स्ट्राइक होने लगी। तब इन लोगों ने धमाकों से डरकर अपना घर छोड़ दिया और यहां आकर रिलीफ कैंप में शरण ली।’

इमाद के साथ एला भी रिफ्यूजी कैंप में मदद कर रही हैं। वे कॉलेज में पढ़ती हैं। अब युद्ध के हालात में कॉलेज बंद हैं। ऐसे में वो अपना वक्त रिफ्यूजी कैंप में लोगों की मदद कर बिताती हैं।

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