अठारहवीं लोकसभा के पहले चरण के लिए 19 अप्रेल को मतदान हो गया। सभी 102 सीटों में से ज्यादातर में मतदान के प्रतिशत की कमी आई है। इससे यह माना जा रहा है कि मतदाताओं में चुनाव के प्रति वह उत्साह और उमंग नहीं था, जिसकी उम्मीद राजनीतिक दल विशेष रूप से भाजपा लगाए बैठी थी। तो क्या भाजपा को इससे निराश होने की जरूरत है? या कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों इसमें से किसी अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीद रखनी चाहिए? दोनों ही प्रश्नों का एक ही जवाब है, नहीं।
यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी को मोदी सरकार के कामकाज पर मतदाताओं की ओर से जोरदार समर्थन की उम्मीद थी और विपक्षी दलों को लगता था कि जनता महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर सड़क पर आ जाएगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। इसका एक ही मतलब है कि मतदाता ने परिवर्तन करने से ही इंकार कर दिया। हां, अब बहस सिर्फ इस बात पर हो सकती है कि भाजपा गठबंधन 400 सीटों से पार जा पाएगा या नहीं?
जहां तक मतदाताओं में उल्लास या वोटिंग प्रतिशत गिरने का सवाल है, तो कोई भी निष्कर्ष निकालते समय हमें इस तथ्य को भी देखना होगा कि क्या किसी एक ही दल का मतदाता निष्क्रिय था? या सभी मतदाताओं को पहले से ही चुनाव परिणामों का अंदेशा है, इसलिए चुनावों में उसका उत्साह नदारद था। टेलीविजन पर होने वाली बहस को छोड़ दें तो गांव चौपाल में भी मतदान और प्रत्याशी को लेकर कोई उत्सुकता नजर नहीं आई। तो भारत जैसे देश में जहां चुनाव को उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है, वहां मतदाता की उदासीनता का कारण क्या हो सकता है ?
यह याद रखे जाने की जरूरत है कि 2014 का चुनाव परिवर्तन के नारे के साथ लड़ा गया था। भारत की जनता मनमोहन सरकार की अक्षमता के खिलाफ अपना मन बना चुकी थी, और अबकी बार मोदी सरकार व अच्छे दिन के नारे पर उसने मतदान किया था। 2019 का चुनाव भी पाकिस्तान को सबक सिखाने की मोदी सरकार की क्षमता पर हुआ। यह ऐसा चुनाव था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता पीछे छूट गए थे और मतदाताओं ने मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकतरफा मतदान किया। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।
मतदाताओं में उस उत्साह की कमी साफ दिख रही है, जो पहले दो चुनावों में देखी गई थी। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिये कि देश के मतदाता को प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा नहीं रहा या वह कथित इंडी एलांयस के नेताओं को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विकल्प के रूप में देख रहा है? बहुतांश लोगों को यह प्रश्न विचित्र लग सकता है लेकिन इस प्रश्न का जवाब ही भारत के जनमानस की वास्तविक अभिव्यक्ति है।
दरअसल, आएगा तो मोदी ही यह नारा भाजपा के साथ साथ विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के मन में गहरे पैठ गया है। तो भाजपा कार्यकर्ता अपनी जीत देख निश्चिंत होकर चुनाव को आराम से लड़ रहे हैं, तो विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं को यह लगता है कि जब भाजपा ही जीत रही है और जनमानस भाजपा के साथ है तो चुनावों में आक्रामक होने का क्या फायदा? ऐसा भी नहीं है कि भाजपा समर्थक हिन्दू मतदाता ही मतदान करने नहीं निकला, भाजपा को वोट नहीं देने वाले मुस्लिम समाज में भी वोट देने के प्रति उदासीनता देखी गई है। मुस्लिम बहुल बूथों पर जहां रात के दस दस बजे तक मतदान करने के लिए लाइनें लगी रहती थी, इस बार ऐसे समाचार सुनने में नहीं आए।
इस तथ्य पर भी विचार करना ही चाहिए कि बीते सालों में यह पहली बार है जब मतदान केन्द्रों पर तनातनी या लड़ाई झगड़े के समाचार भी सुनने को नहीं मिले हैं। ऐसा तभी होता है जब पक्ष और विपक्ष चुनाव परिणाम के बारे में आश्वस्त होते हैं। हां, केवल पश्चिम बंगाल ही एक मात्र राज्य है जहां से ऐसे समाचार आए, तो वहां का मतदान प्रतिशत भी अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा ही रहा।
इन चुनावों से एक बात सिद्ध हो रही है कि ना तो विश्व में भारत की रेंकिंग, विकास की गति, जीडीपी दर, आर्थिक प्रगति और विकसित भारत के संकल्प को मतदाता देख रहा है और ना ही महंगाई और बेरोजगारी के विपक्षी एंजेडे को मतदाता ने स्वीकार किया है। भारत में विकास कभी चुनाव का मुद्दा नहीं रहा। भारत के चुनाव को सिर्फ जातिय सामंजस्य और राष्ट्रवाद ही दिशा देता है।