विष्णु नागर का व्यंग्य: चड्डी- चिंतन कथा

एक थे चड्डीश्वर। चड्डी जहां पहनना चाहिए, वहां तो पहनते ही थे मगर जहां नहीं पहनना चाहिए, वहां भी पहनते थे। उदाहरण के लिए उसे कमीज की तरह भी पहनते थे। वह चड्डी ही बिछाते थे और चड्डी ही ओढ़ते थे और चड्डी-चिंतन ही करते थे। पेंटिंग भी चड्डी रंग में चड्डी की किया करते थे। उनका चड्डी-गायन चड्डियों के बीच अद्भुत माना जाता था। चड्डी ही उनका ईश्वर थी, चड्डी ही उनकी विश्व गुरु।

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दरअसल वह बने भी चड्डी के थे। उनकी मांस- मज्जा चड्डी निर्मित थी। दिल भी उनका चड्डी का था और दिमाग भी। चड्डी पर उनका सबकुछ निर्भर होने के कारण उस पर बहुत जोर पड़ने लगा था। इस कारण चड्डी घिस कर यहां से भी फट गई थी और वहां से भी। इधर से भी फट गई थी, उधर से भी आशय यह कि पहनने लायक नहीं रही थी मगर वह थी पुरातात्विक महत्व की। कुछ तो दावा करते थे कि वह 5000 साल पुरानी है। कुछ उसे 8000 साल पुरानी बताते थे और कुछ उसे दस हजार साल तक ले जाना को उतावले थे। चड्डीश्वर जी स्वयं इसे पिछले 99 साल से धारण कर रहे थे और इस वर्ष उसका सौवां साल मनाने की तैयारी कर रहे थे कि वह फट गई थी।

चड्डीश्वर जी प्राचीन संस्कृति के पुजारी थे मगर सौवें वर्ष में ऐसी चड्डी पहनें तो पहनें कैसे? उतारें तो कहां और उतार दें तो उसे सुरक्षित रखे कहां? चड्डी चूंकि पुरातात्विक महत्व की थी, इसलिए उसके चोरी चले जाने और तस्करों के हाथ में पड़कर अमेरिका पहुंच जाने का खतरा था!

इस चड्डी से उन्हें बहुत प्यार था! इसे पहनते ही उनके चड्डी- चिंतन की गति अत्यंत तीव्र हो जाती थी। वह इक्कीसवीं सदी से सीधे मुगल काल जाते थे मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने लग जाते थे। अतः उनसे इसे छोड़ते भी नहीं बन रहा था और पहनते भी नहीं ! वैसे नंगे रहने में भी खास दिक्कत नहीं थी मगर कठिनाई थोड़ी सी लोकलाज की थी और निरंतर चड्डी पहनने – ओढ़ने के बावजूद यह न जाने किस चमत्कार से थोड़ी सी बची हुई थी। वैसे लोकलाज की रक्षा भी इतनी जरूरी नहीं थी, असली समस्या यह थी कि चड्डी के बगैर उनका जीवन सूना-सूना, खाली-खाली, निरर्थक- निरर्थक जैसा लगता था। समस्या यह थी कि नई चड्डी पहनें तो पहनें कैसे? किस मुंह से पहनें? ऐसी चड्डी कहां से लाएं, जो कमीज भी हो, ओढ़ना- बिछौना भी हो! जो प्राचीन भी हो, अर्वाचीन भी हो। जो टोपी भी हो, डंडा भी हो!

संस्कृति की रक्षा पुरानी चड्डी से ही संभव थी। इधर चड्डी की हालत पतली होते देख, पैंट पहनने की सलाह दी जाने लगी थी मगर, हवा की जो ताजगी इससे प्राप्त होती थी, जो चिरंतन आनंद, चिंतन की जो साख चड्डी में थी, वह न पैंट में थी, न धोती में हो सकती थी। चड्डी वैसे भी उनका पहला और अंतिम प्यार थी।उसे कैसे भुलाया जा सकता था! ठीक है, दूसरा -तीसरा-चौथा प्यार भी हो जाता है मगर जो बात पहले प्यार में होती है, वह बाद वाले में नहीं !चड्डी उनका आदर्श थी, उनकी उन्नत नासिका थी, उनका कान थी, उनका मुखड़ा थी, उनका पैर थी, उनका हाथ थी, उनका पेट थी। उसके बिना वह रह कैसे सकते थे? तुझ बिन रहा, न जाय, जैसी हालत थी।

बहुत सोचा, बहुत मंथन किया, बहुत योग किया, बहुत भोग किया , बहुत ढोंग किया मगर कुछ समझ में नहीं आया। राष्ट्र- चिंतन किया, हिंदू -मुसलमान किया, लव जेहाद किया, गौमाता किया, ध्वज वंदन किया, राष्ट्र वंदन किया, गुरू जी किया, डॉक्टर साहब किया, तंत्र किया, मंत्र किया, दंगा किया, फसाद किया, सीधे को उलटा किया और उल्टे को सीधा किया। फिर भी समझ में नहीं आया। यहां तक कि हिंदू राष्ट्र भी किया मगर अक्ल में कुछ नहीं आया। संविधान पढ़ने का भगीरथ प्रयत्न किया, एक अक्षर तक समझ में नहीं आया। तिरंगे की तरफ सम्मान से देखा तो उसके तीन रंग आंखों में चुभने लगे। जन गण मंगल दायक जय है, किया तो वंदेमातरम याद आया और वंदे मातरम आरंभ किया तो सदा वत्सले याद आया मगर उससे भी समस्या नहीं सुलझी। कैबिनेट की बैठक की। उसके बाद भी कुछ निष्कर्ष नहीं निकला। काली टोपी उतार कर विचार किया तो टोपी के साथ विचार भी गायब हो गए! कमीज़ इसलिए नहीं निकाली कि महीना जनवरी का था।

सवाल महत्वपूर्ण था, जीवन- मरण का था कि इस फटी हुई, उजड़ी हुई प्राचीन होकर भी अर्वाचीन चड्डी का क्या करें? क्या उसमें थेगले लगाएं मगर लगाएँ तो किस रंग के लगाएं? हरे न लगाएं, इस पर तो सहमति थी, बाकी रंगों पर असहमति थी। कोई कहता था कि खाकी चड्डी में खाकी थे गले लगाओ। खाकी में खाकी थेगला, थेगला होकर भी थेगला नहीं लगेगा। कोई कहता पीला लगाओ, कोई केसरिया के पक्ष में था। कोई कहता, केसरिया क्यों, भगवा लगाओ। सहमति अगवा रंग पर बन रही थी मगर पता चला कि ऐसा तो कोई रंग होता नहीं! बड़ी मुश्किल थी, बड़ी ही कठिनाई थी, आपात स्थिति थी। अचानक विपदा आन पड़ी थी। आंखों के आगे अंधेरा- सा छाने लगा था। अचानक आकाशवाणी हुई- भूरी पैंट पहनो, बच्चा!

सब तरफ अहा- अहा होने लगा, वहा-वहा होने लगा, यहां तक कि वाह-वाह भी होने लगा। हर्षनाद होने लगा। घंटा- घड़ियाल बजने लगे, शंख ध्वनि होने लगी, स्वयं सेवक हर्ष विभोर, डांस विभोर होने लगे। अचानक किसी ने ध्यान दिलाया कि डांस करना तो संस्कृति के खिलाफ है, डांस नहीं, नृत्य भी नहीं बल्कि नर्तन करो। ऐसा करना किसी को आता नहीं था। अतः कीर्तन पर सहमति बनी मगर इस पर सहमति नहीं बनी कि कीर्तन किसका हो? कृष्ण का हो या राधा का, शिव का हो या पार्वती का, राम रहीम का हो या हो आसाराम का हो? या फिर नरेन्दर मोदी का हो। सुझाव आया कि बेहतर है कि बुलडोजर का हो! बुलडोजर ही भारत का भविष्य है।

किसी ने कहा- आसाराम जेल में है तो जवाब आया- ‘यह तो अत्यंत उत्तम है, श्रेष्ठ है। फिर सुझाव आया कि इससे तो राम रहीम बेहतर है। पेरोल पर हमेशा आता -जाता रहता है। वह अत्यंत विश्वसनीय है, आदरणीय है, माननीय है, पूजनीय है, महामहिम है। करो- जय राम-रहीम लेकिन कुछ जय आसाराम, प्रभु आसाराम करने लगे। आसाराम हमारे सबसे निराले, पियारे-पियारे सुमति के दाता। कुछ अल्लाह-ईश्वर तक पहुंच गए। कानों में यह गूंजने लगा- सबको सम्मति दे भगवान। ईश्वर- अल्लाह तेरो नाम….. ‘

इतना सुनते ही कोई बोला- यह किसने बोला- अल्लाह? निकालो उसे यहां से। यह छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी है, कम्युनिस्टों का एजेंट है, राष्ट्रविरोधी है, पापी है, म्लेच्छ है मगर पता चला कि गलती से अल्लाह बोलनेवाले तो प्रमुख जी ही थे तो यह जानकार सबकी चड्डी गीली हो गई। उसे बदलने का सवाल नहीं था। सब चुप हो गए। प्रमुख जी ने माफी नहीं मांगी, आंखें दिखाईं और सब ठीक हो गया, शांत हो गया लेकिन भजन भंग हो गया, ध्यान का खंडन- विखंडन हो गया, मूड बिगड़ गया, वातावरण दुखमय हो गया, श्रद्धांजलि देने को मन तत्पर हो गया।सब चल पड़े, अपनी- अपनी दिशाओं में। मामला अधूरा रह गया, हमारा वृत्तांत भी अधूरा रह गया। आगे की घटनाओं का इंतजार है।

ये थी खबरें अभी तक, इंतजार कीजिए कभी तक।

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