विष्णु नागर का व्यंग्य: हर जगह आजकल दलाल…

अब तो जज साहेबान को भी लगने लगा है कि देश के गरीब मुफ्त का माल खा -खाकर मुटिया रहे हैं।काम-धाम कुछ करते नहीं, सरकार की मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं।बेचारे किसान, मजदूरों को ढूंढते रह जाते हैं पर उन्हें मजदूर कहीं मिलते नहीं!

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 बड़ी अदालत के बड़े जज साहब हैं। उनका सम्मान करना जनता का परम कर्तव्य है। जज साहब ने फ़रमाया है कि वह खुद किसान परिवार से हैं, इसलिए वे सच्चाई को बेहतर ढंग से जानते हैं। वकील साहब ने इसका विरोध किया कि मी लार्ड, ऐसा नहीं है। हाथ में काम हो तो शायद ही कोई ऐसा इंसान मिले, जो काम करके दो रोटी कमाने की तमन्ना नहीं रखता मगर काम तो हो! काम ही नहीं है! जज साहब ने कहा, आपकी यह बात इकतरफा है। सच यही है कि मजदूर परजीवी हो गए हैं। काम करना ही नहीं चाहते!

खैर मामला जज साहब के सामने कुछ और था मगर जज साहब के मन का गुस्सा मजदूरों पर फूट पड़ा। ताकतवर कोई भी हो, उसे किसी भी बात पर कभी भी गुस्सा आ सकता है। यह उसका विशेषाधिकार है। केवल कमजोर को गुस्सा नहीं आता! अगर आता भी है तो उसे पीना पड़ जाता है। गरीब गुस्सा करे तो दो सूखी रोटी से भी जाए! और जहां तक जजों के गुस्से का सवाल है, उनके आगे तो बड़े- बड़े अफसर और वकील भी ठहर नहीं पाते तो हम तो पिद्दी हैं ! कहते हैं कि क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा!

दरअसल प्रशांत भूषण और कुछ वकील अदालत के सामने गए थे कि मी लार्ड, शहरी बेघरबारों के लिए देश में नाममात्र के रैन-बसेरे हैं। उनमें जितनों को जगह मिलती है, उससे ज्यादा बेघर तो अकेले दिल्ली में बेघर पाए जाते हैं! सरकार ने इस मद में धन देना बंद कर दिया है।इस कारण अभी इसी ठंड में 750 लोगों की जान चली गई। कुछ कीजिए मी लार्ड।

खैर हिंदुस्तान में खासकर गरीबों की जान जाना कोई बड़ी बात नहीं, रोजाना की बात है, इसलिए उस मुद्दे को खास अहमियत नहीं मिली! ठंड तो ठंड, इलाहाबाद के महाकुंभ में न जाने कितनी जानें कुचले जाने से चली गईं।कुछ इसे सैकड़ों में बताते हैं, कुछ हजारों में मगर मौनी अमावस्या के दिन जान जाने के सत्रह घंटे बाद बड़ी मुश्किल से उत्तर प्रदेश सरकार ने तीस लोगों की जानें जाने और साठ लोगों के घायल होने की बात मंजूर की और तब से आज तक मरने वालों की संख्या तीस से इकतीस भी नहीं हुई है और अब तो रोते -बिलखते लोग भी चुप हो गए हैं। कहां तक रोयें! साधारण आदमी को रोने की भी तो सुविधा नहीं है! दुख में देर तक रोते भी एक किस्म का विशेषाधिकार है, जो हरेक को नसीब नहीं! गरीब रोएगा तो उसे कमाकर खिलाएगा कौन? दो सूखी रोटी आएगी कहां से? मगर कुंभ में कितनी मौतें हुईं, इससे सरकार को कोई फर्क पड़ा? बीजेपी को इससे अंतर पड़ा! उसके बाद बीजेपी दिल्ली में भी चुनाव जीत गई और मिल्कीपुर में भी!

इसी तरह जो ठंड में मर गए, सो मर गए क्योंकि हर ठंड में गरीबों – निराश्रितों का मरना उनकी नियति है। ठंड से कोई मंत्री नहीं मरता, कोई अधिकारी, कोई सेठ नहीं मरता!

पर सवाल तो उनसे है कि जो मरने से बच गए! उनसे अदालत पूछती है कि वे हरामखोर क्यों हो गए हैं! हुजूर ए आला, गुस्सा न हो तो आज भी लाखों लोग मनरेगा में मजदूरी करने के लिए तरसते हैं, जबकि उन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती! साल में सौ दिन मजदूरी तक नहीं मिलती और महीनों तक मजदूरी का पैसा भी नहीं मिलता! और आप कहते हैं कि लोग परजीवी हो गए हैं! ढेर के ढेर लोग गांवों से उजड़ कर मजदूरी करने मी लार्ड, नगरों -महानगरों की ओर भागते हैं, आपकी दिल्ली की सड़कों की पटरियों पर भी सोते हैं और बहुत से नींद में, ट्रक या बस से कुचल कर मारे जाते हैं और आप कहते हो कि सरकारी माल खा- खाकर मजदूर परजीवी हो गए हैं। महोदय, दस सरकारी नौकरियां निकलती हैं और दस हजार लोग इंटरव्यू देने पहुंच जाते हैं! अभी खबर आई थी मी लार्ड, कि आईटी इंजीनियर के कुछ पदों के इंटरव्यू के लिए एक किलोमीटर लंबी लाइन लग गई थी और आप कहते हैं कि लोग सरकारी माल उड़ाकर मस्ती मार रहे हैं!

हां हुजूर ,इस देश में परजीवियों की बहुत लंबी कतार है। एक बार आप महाकुंभ हो आइए। वहां डेरा जमाए लाखों कथित संत- महंत आदि- इत्यादि मिलेंगे, जो भगवा पहनते हैं और जीवन में प्रवचन देने के अलावा कुछ नहीं करते! धर्म के नाम पर मुफ्त का माल जीवनभर उड़ाते रहते हैं!गली- गली में सत्ताधारी दलों के छुटभय्ये और बड़भय्ये नेता धौंस- डपट करके मजे से माल उड़ाते रहते हैं। गाय के नाम पर दादागिरी करनेवाले गुंडागर्दी करके मौज मारते हैं। कई बार गायों की तस्करी में भी उनका हाथ पाया जाता है!

हर जगह आजकल दलाल बैठे हैं मी लार्ड, कहीं भी चले जाइए। हर वेश, हर रंग में दलाल हैं, उनका पद नाम कुछ हो, न हो और वे मस्ती मारते हैं। किसी शाम किसी भी पांच-सितारा होटल में चले आइए, विभिन्न प्रजातियों के मुफ्तखोर मौज मारते मिल जाएंगे। इस देश में जिधर देखो, परजीवी ही परजीवी हैं। अदालतों के साये में भी न जाने कितने परजीवी पलते हैं मगर करोड़ों लोग मी लार्ड नौकरी – मजदूरी के लिए जगह- जगह भटकते भी हैं। बिहार, बंगाल और उड़ीसा का मजदूर ठेठ केरल तक जाता है रोजी रोटी कमाने! उत्तर भारत के शहरों के मजदूर चौक पर बिकने के लिए रोज मजदूर घुटनों के बल बैठे ग्राहक का इंतजार करते हैं और दोपहर हो जाती है मी लार्ड, बहुत से खाली हाथ लौट जाते हैं! कौन जानता है कि उस दिन उनका पेट भरा या नहीं और उनके परिवारों का क्या हुआ? कोई उनकी खबर अगर लेता है तो वह कोई मजदूर ही होता है महाशय! कोई सरकार या कोई अदालत नहीं!

कुछ तो अंततः हताश होकर अपनी जान ले लेते हैं। कुछ घर का सबकुछ बेचकर दलालों के चक्कर में पड़ कर जान जोखिम में डालकर किसी तरह अमेरिका पहुंचने की कोशिश करते हैं और हथकड़ी- बेड़ियों में अपराधियों की तरह हमें बार- बार वापस लौटाए जाते हैं और सरकार का मुखिया इस पर मुस्कुराता पाया जाता है!

 तो हुजूर कभी इन पर भी आपका रहमो-करम हो जाए! कभी आप प्रधानमंत्री जी से भी पूछें कि आप हर साल दो करोड़ नौकरियां देनेवाले थे, दस साल से अधिक हो गए, उन नौकरियों का क्या हुआ? पूछिए कि ऐसे वादे करके लोगों को ठगनेवाले को क्या पद पर बने रहने का अधिकार है? मेरा खयाल है आप यह  जरूर पूछेंगे! उम्मीद पर दुनिया टिकी है। शायद ऐसी भी कोई सुबह आ ही जाए! आएगी न मी लार्ड!  

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