वैकल्पिक नहीं नेपाल को चाहिए स्थिर सरकार

यशोदा श्रीवास्तव

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 नए प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा नेपाल को नई राह दिखाने की पुरजोर कोशिश में हैं। इसी के साथ पांच दलों के समर्थन से सत्ता तक आए देउबा सहयोगी दलों से बेहतर तालमेल बिठाने को भी प्रयास रत हैं। सरकार चलाने में अनुभवी देउबा गठबंधन के साइड इफेक्ट को लेकर भी सतर्क हैं।

गुड न्यूज यह है कि वैचारिक रूप से बेमेल इस गठबंधन सरकार के अबतक के कार्यकाल में कोई खास मतभेद सामने नहीं आया। लेकिन ऐसी सरकारें किसी सरकार का विकल्प तो बन सकती हैं, स्थिर सरकार नहीं दे सकती। जबकि नेपाल को चाहिए एक स्थिर सरकार। नेपाल के ताजा हालात के सापेक्ष स्थिर सरकार या तो नेपाली कांग्रेस दे सकती है या फिर प्रचंड,या फिर दोनों में से किसी एक के नेतृत्व का एलायंस।

हालांकि देउबा एलायंस की कठिनाइयां भी जानते हैं। वे यह भी जान रहे कि दूसरे आम चुनाव तक (अक्टूबर/नवंबर 2022) गठबंधन सरकार का नेतृत्व कितना मुश्किल है। उन्हें याद है कि 2017 के आम चुनाव के एन वक्त उनकी सरकार का अभिन्न हिस्सा रहे प्रचंड किस तरह अलग होकर ओली की एमाले कम्युनिस्ट के साथ हो लिए थे।जबकि नेपाली जनता और राजनीतिक विश्लेषक नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की माओवादी सेंटर के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की आश में थे।

इस बार की राह तो और विकट है।देउबा सरकार की अगुवाई वाली सरकार का मुख्य धड़ा प्रचंड हैं ही,ओली के नेतृत्व वाले एमाले के माधव नेपाल, झलनाथ खनाल जैसे कई बड़े नेताओं का धड़ा भी साथ में है। मधेशी दल भी दो खेमे में बंट गए।उपेंद्र यादव गुट के 12 सांसद देउबा के साथ है। देउबा सरकार भारत और चीन से संवंधों को लेकर भी सतर्क है।

देउबा के समर्थक दल प्रचंड,माधव नेपाल और मधेशी नेता उपेंद्र यादव भी भारत से बेहतर और मधुर संबंधो के पक्षधर हैं। हालांकि वे चीन से भी दुराव नहीं चाहते। नेपाल में भारत के प्रधानमंत्री मोदी और भारत विरोध पर देउबा ने सख्त एतराज जताते हुए गृहमंत्रालय को निर्देश दिया है कि अपनी धरती से पड़ोसी देश के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो।

मजे की बात है कि प्रचंड ने भी भारत और भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान के खिलाफ विरोधप्रदर्शन करने वालों पर कार्रवाई की जरूरत बताई है। यह एक सकेत है कि देउबा सरकार भारत से संबंधों को लेकर कितनी संजीदा है। मालूम हो कि कुछ दिन पहले उत्तराखंड में नदी पार करते समय एक नेपाली युवक की मौत को लेकर ओली की कम्युनिस्ट का युवा संगठन नेपाल के विभिन्न हिस्सों में भारत और भारतीय पीएम के खिलाफ आंदोलन कर रहा है।

बताने की जरूरत नहीं कि ओली सरकार बचाने में चीन की दिलचस्पी किस हद तक थी।ओली के अपदस्थ होने से चीन बौखला सा गया था। ओली और चीन की निकटता का एक उदाहरण अभी सामने आया है जिसमें एक मामले में नेपाल सरकार से हटकर ओली खुलकर चीन के पक्ष में खड़े नजर आए। मामला कर्णाली प्रदेश के नम्खा ग्राम पालिका के लुलूगंजोन क्षेत्र में चीनी कब्जे का है।

नेपाल सरकार ने उस क्षेत्र में चीनी कब्जे की जांच को एक समिति का गठन कर दिया है। नेपाल सरकार के इस कदम से एक ओर चीन बौखला उठा है तो दूसरी ओर ओली। ओली ने तो देउबा सरकार पर चीन से संबंध खराब करने का आरोप लगाते हुए यहां तक कह दिया कि चीन ने कोई कब्जा किया ही नहीं।काठमांडू में ओली के इस बयान को चीन का ओली पर नजर ए इनायत की दृष्टि से देखा जा रहा है।

भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि नेपाल की पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी टूट रही है।वह कम्युनिस्ट पार्टी जिसे 2018 में ओली और प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी के विलय के बाद सबसे मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी कहा जाने लगा था,वह कम्युनिस्ट पार्टी जिसे स्व.मनमोहन आधिकरी सरीखे नेताओं ने ऐसे समय आबाद कर रखा था जब दुनिया के कम्युनिस्ट देशों में कम्युनिस्ट विचारधारा कमजोर पड़ने लगा था।

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अब यूएमएल कम्युनिस्ट पार्टी के दो धड़ा हो जाने के बाद पूर्व पीएम माधव कुमार नेपाल ने यूएमएल समाजवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई कम्युनिस्ट पार्टी के रजिस्ट्रेशन के लिए निर्वाचन सदन में आवेदन करने के साथ  इसके विस्तार का कार्य शुरू कर दिया है, वह भी मैदानी क्षेत्र से जहां नेपाली कांग्रेस और मधेशी दल अपना प्रभाव जताते हैं।

नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी का पहले ही दो गुट था। माओवादी सेंटर और यूएमएल। अब तीन हो गई। कम्युनिस्ट पार्टी का एक क्षेत्रीय गुट भी है जिसे विप्लव गुट के नाम से जाना जाता है।

नेपाल की राजनीतिक पार्टियों में नेपाली कांग्रेस भी सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है। राजशाही के जमाने में सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने का इसका इतिहास है। नेपाल में लोकतंत्र बहाली के बाद वेशक यह पार्टी कमजोर हुई है,इनमें आंतरिक असंतोष भी बढ़ा है लेकिन इसमें फूट नहीं हुई और न ही कोई नेता अलग होकर नया दल बनाया।

नेपाली कांग्रेस में जबरदस्त गुटबंदी तब देखी गई थी जब 1998 में स्व.केपी भट्टाराई से मतभेद के चलते स्व.गिरिजा प्रसाद कोइराला गुट ने कम्युनिस्ट नेता स्व.मनमोहन अधिकारी को समर्थन देकर नेपाल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार का मार्ग प्रशस्त किया था।

नेपाल का राजनीतिक परिदृष्य पहले जैसा नहीं रहा। नेपाली कांग्रेस हो या माओवादी सेंटर के चीफ प्रचंड दोनों ही अकेले दम पर चुनाव जीतकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। इन्हें मिलकर ही लड़ना होगा।

भारत के प्रति प्रचंड के बदले हुए मिजाज को देख शायद भारत भी यही चाहेगा। मधेसी दल नेपाल की राजनीति में दिग्भ्रमित दल के रूप में देखे जाने लगे हैं। महंत ठाकुर और उपेंद्र यादव अब अलग अलग हैं। दोनों गुट सत्ता रूढ़ दल के साथ ही रहने को आदी हो चुके हैं। नेपाल के मधेस क्षेत्र में जहां इनका जनाधार हुआ करता था,ये वहां बहुत कमजोर हो चुके हैं।

मेधेसी दल को संजीवनी की दरकार है जो किसी वसूल वाले नेता के बिना संभव नहीं है और यह तब संभव है जब उपेंद्र यादव,महंत ठाकुर,राजेंद्र महतो जैसे मधेसी नेता अपने में थोड़ा बदलाव लायें।

देखा जाय तो नेपाल की राजनीति के लिए यह चुनावी वर्ष है लेकिन जनता में बदलाव की अनुभूति अभी तक की कोई सरकार नहीं करा सकी। थोड़ी बहुत उम्मीद प्रचंड से थी जब वे 2008 में प्रधानमंत्री बने थे लेकिन वे सत्ता की गुणागणित समझ पाते कि नौ माह में ही त्याग पत्र देकर भाग खड़े हुए।उसके बाद तो लंबे समय तक कभी इनके तो कभी उनके नेतृत्व में सरकार सरकार का खेल खूब चला।

अभी-अभी पांच दलों के समर्थन से सत्ता में आई देउबा सरकार के लिए मात्र साल भर में परिवर्तन की अनुभूति करा पाना बड़ी चुनौती है। अभी तो वे कोई साझा कार्यक्रम भी नहीं बना सके। नेपाली जनता अस्थिर सरकारों से ऊब चुकी है।उसे चाहिए स्थिर सरकार, नेतृत्व भले ही किसीका हो।नेपाली कांग्रेस के एक बड़े नेता ने साफ कहा कि फिलहाल नेपाल में कोई ऐसा दल नहीं है जो धर्म और सांप्रदाय के नाम पर राजनीति करता हो।

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हिंदू राष्ट्र की मांग यदाकदा उठती जरूर है लेकिन हिंदू बाहुल्य राष्ट्र होते हुए भी हिंदू राष्ट्र की मांग यहां बहुत प्रभावी नहीं है क्योंकि लोगों के सामने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत समस्याओं से निपटने की चुनौती है। पहाड़ और मैदान में बराबरी के हक की लड़ाई है। ताज्जुब है कि नेपाल के लोकतांत्रिक संविधान में भी मैदानी क्षेत्र के करीब 90 लाख आवादी की उपेक्षा हुई।

ऐसे में नेपाल को ऐसी सरकार की जरूरत है जो यहां के अधकचरे लोकतंत्र को मजबूती दे सके,पहाड़ से लेकर मैदान तक सभी नेपाली नागरिकों में बदलाव की अनुभूति करा सके। मौजूदा सरकार में भागीदार सभी शीर्ष नेताओं की सोच यही हो तो कुछ बात बनें वरना नेपाल में स्थिर सरकार की कल्पना बेमानी है।

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