व्यंग्य/ बड़े अदब से : स्टार प्रचारक का दर्द

वे फायर ब्रांड स्टार प्रचारक रहे हैं। लोगों की तूती बोलती है उनकी जूती बोलती है। जिस भी पार्टी में रहे उसे छोड़ बाकी के खिलाफ ऐसी-ऐसी आग उगली की पार्टियां फुंक जातीं। उनके पीछे आदमी लगा दिये जाते। उनकी कमजोरी पता की जाती। जो जग जाहिर थीं, का फायदा उठाकर उन्हें दूसरी पार्टी वाले खींच लाते। वे जिस पार्टी का नमक खाते तो उसका हक अदा करने के लिए जबान को काम पे लगा देते। पार्टी उनके कंधों पर प्रचार का बोझ डालकर चैन से चुनौटी मलने लगती।

स्टार प्रचारक के स्टार इस बार कच्ची लगाकर कहीं लुढ़के पड़े हैं। इलेक्शन सिर पर हैं पर अभी तक किसी पार्टी ने उनकी सुध नहीं ली है। न आफर आया है और न एप्रोच।

जब नहीं रहा गया तो एक दो बार हाल लेने के बहाने फोन पर चुनाव प्रभारी से बतिया भी चुके हैं लेकिन उधर से कोई ग्रीन सिग्नल नहीं मिला।

सुबह से ही झकास सफेद कुर्ता पाजामा पहने, मुंह में पान दबाये बैठक में आ जमते हैं। हर आने-जाने वाले से दुआ सलाम करना नहीं भूलते। सुबह का खाना और शाम की दारू की दर से, ऊपर से नीचे तक सफेदी में लिपटवाये, चार पांच लफंगों को जरूर अपने इर्द-गिर्द तैनात किये रहते।

मेरी मुलाकात होती है। वे काफी भरे हुए थे।

सवाल- इस बार हो रहे चुनाव के बारे में आपकी क्या राय है?

जवाब- ये भी कोई चुनाव हैं! हर पार्टी परेशान है। जिताऊ कंडीडेट सुबह किसी के साथ गलबहियां डाले है तो शाम को किसी और पार्टी के टिकट पर बिरयानी उड़ा रहा है।

हर प्रत्याशी डरा-सहमा हुआ है न जाने कौन सी धारा में सम्मन निकल आये। न पोस्टर है, न बैनर, न गली-गली झूमता-गाता डोर टू डोर प्रचार। बाहर से ‘रसद” अन्दर नहीं आ पा रही है।

कार्यकर्ता लगता है कि अंडरग्राउंड हैं। बीमारी का बहाना बनाकर शादी-ब्याह की दावतें उड़ा रहा है। मानो इलेक्शन न हो गीली लकड़ियों से मुर्दा फूंकना हो।

सवाल-आपके जमाने के और अब के इलेक्शन में क्या फर्क महसूस करते हैं?

जवाब- अरे, कहीं ऐसे चुनाव होते हैं! चुनाव तो हमारे जमाने में हुआ करते थे। प्रत्याशी को घर से निकलने नहीं देेते थे। सारा काम कार्यकर्ता करते थे।

अपने पैसे से दिन में खाते थे और रात में पीते थे। बैलगाड़ी पर बैठकर प्रचार करते थे। गाड़ी का पहिया टूट जाता था तो बैल पर ही बैठ जाते थे।

घर-घर जाते थे। लोग गुड़ और पानी पिलाते। कहीं-कहीं शरबत भी मिलता। बच्चे-बच्चे के सीने पर बिल्ला टांक देते। कमीज फट जाती थी पर बिल्ला नहीं निकलता था।

आज तो व्हाट्सअप, ट्यूटर का जमाना है। ईमेल से मेल जोल बढ़ाया जा रहा है। लोग भाषण सुनने में दिलचस्पी कम लेते हैं। सब टीवी पर देख सुनकर पार्टी और प्रत्याशी का रिपोर्ट कार्ड बनाये ले रहे हैं।

अब वैसा प्रचार भी नहीं हो रहा है। पता ही नहीं चल पा रहा है अपने इलाके में कल्लू खड़े हैं या मल्लू। जिसको राजनीति का ककहरा नहीं आता उसके हाथ में टिकट थमाए दे रहे हैं। एकदम गदहिया गोल बना रखा है।

सवाल- प्रचार में कब निकल रहे हैं?

जवाब- (बहाना बनाते हुए) इन दिनों तबीयत थोड़ी ढीली है। पहले थर्ड एसी में चले जाते थे। इस बार हेलीकॉप्टर मांगा है। पार्टी के फोन तो आये हैं। आयोग का डंडा है। हिसाब-किताब तैयार करने में शायद टाइम लग रहा होगा।

सवाल- सुना है आपको इस बार किसी पार्टी ने घास नहीं डाली?

जवाब- अरे मैं कोई बकरी हूं जो मुझे घास डालेंगे।…तुम अखबार वाले जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आते हो। चैन से

तम्बाकू भी नहीं रगड़ने देते हो। चलो झोला उठाओ। अबे कल्लू कहां मर गया रे। उनका हाथ जूते की तरफ बढ़ रहा था और मैं बाहर के दरवाजे की तरफ……

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