नई दिल्ली। जब उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने थे, तो एक बड़े वर्ग ने उनके बहुत ही भोले-भाले होने और महाराष्ट्र-जैसे विषम प्रदेश में सरकार चलाने में अनुभव न होने की वजह से नाकभौं सिकोड़ी थी। लेकिन तीन साल बाद जब उन्होंने इस पद से इस्तीफा दिया, तो मुसलमान उनके लिए दुआ कर रहे थे, लिबरल उनका समर्थन कर रहे थे, समाजवादी ऐसी पार्टी को स्वीकार करते हुए अवाक थे जो पहले कट्टरता की वजह से जानी जाती थी और गरीब इस बात को याद कर रहे थे कि लॉकडाउन के दौरान उनके भोजन-पानी की किस तरह व्यवस्था की गई थी और आशंकित थे कि पता नहीं, उनका भविष्य कैसा होगा।
यह सब बाल ठाकरे को भी भौंचक्का कर रहा होगा क्योंकि उन्हें भी कभी इस किस्म का समर्थन नहीं मिल पाया था लेकिन उन्हें इस बात का गौरव हो रहा होगा कि उनके बेटे ने हाशिये से उनकी पार्टी को मुख्यधारा में ला दिया और वह भी बीजेपी के समर्थन के बिना ही।
उद्धव को हाल के वर्षों में महाराष्ट्र का सबसे अच्छा मुख्यमंत्री बताया जा रहा है और यह सचमुच आश्चर्य ही है कि ऐसा व्यक्ति जो पहले न चुनावी राजनीति का हिस्सा रहा है या न जिसे सरकार चलाने का तनिक भी अनुभव रहा है, सहज ज्ञान से यह जान सका कि सही समय पर कौन-सा सही कदम उठाना है।
यह साफ है कि जब से यह सरकार बनी थी, बीजेपी पर इसे गिराने का भूत चढ़ा हुआ था और उसने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) नहीं, अंततः सुप्रीम कोर्ट के जरिये इसे हटा दिया। उसने तीन साल के दौरान हर जतन किए। उन लोगों ने टीवी-फिल्म एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को हत्या में बदल दिया और इस मामले में उनके बेटे आदित्य ठाकरे को लपेटने का भी प्रयास किया।
लेकिन केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) भी उनकी संलिप्तता का कोई प्रमाण नहीं पा सका। जब बच्चा चोरी के संदेह में पालघर के एक गांव में दो साधुओं को भीड़ ने पीटकर मार डाला, तब उन लोगों ने घोषणा की कि उद्धव हिन्दुत्व-विरोधी हैं। बाद में खुलासा हुआ कि जिन ग्रामीणों ने हत्या की, वे सभी बीजेपी समर्थक थे बल्कि वहां का सरपंच भी बीजेपी टिकट पर चुना गया था।
बीजेपी ने राज्य में कोविड मामलों की अनदेखी को लेकर भी समय-समय पर अफवाहें फैलाईं। लेकिन यहां आंकड़े ज्यादा इसलिए थे क्योंकि गुजरात या यूपी की तरह महाराष्ट्र सरकार इन्हें छिपा नहीं रही थी। इसी तरह, उसने अन्य राज्यों के विपरीत प्रवासी मजदूरों को भोजन-पानी और आश्रय- दोनों उपलब्ध कराए और जब दूसरी लहर आई, तो दूसरे राज्यों के ऑक्सीजन संकट ने दिखाया कि यहां प्रशासन ने किस तरह बेहतर व्यवस्था कर रखी थी।
फिर, जब देवेन्द्र फडणवीस ने सरकार चलाने के ख्याल से उन्हें बूढ़ा और बीमार बताया- फडणवीस शरद पवार के साथ भी ऐसा कर चुके हैं- तब उद्धव स्पाइनल सर्जरी के बावजूद फिर सरकार चलाने के लिए उठ खड़े हुए और सबकुछ वैसा ही चलता रहा जैसा पहले चल रहा था।
उद्धव ठाकरे ईडी की धमकियों पर भी नहीं झुके। उनके, उनके परिवार के, यहां तक कि दूर के उनके रिश्तेदारों तक के खिलाफ भी कुछ नहीं मिल पाया। इन्हें केन्द्रीय एजेंसी ने खूब तंग किया। उद्धव उदारवादी सर्वधर्म सम्भाव किस्म के हिन्दूवाद के तौर पर हिन्दुत्व की पुनर्परिभाषा से नहीं डिगे। भयभीत बीजेपी इससे ही सबसे अधिक डरी हुई रही क्योंकि इसके मराठी गौरव की भावना के साथ होने की वजह से बीजेपी हिन्दुत्व वोट का बड़ा हिस्सा खो सकती थी।
एकनाथ शिदं बाल ठाकरे के जिस हिन्दुत्व की बात करते हैं, वह क्या है और वह क्या चाहते हैं कि पार्टी किस तरह आचरण करे? यह अवसरवादी किस्म का सिद्धांत है। ठाकरे हिन्दुत्व को लेकर तब बावले हो गए थे जब उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ हिन्दू नाराजगी को महसूस किया था लेकिन जब उन्होंने पाया कि बंबई दंगे में अपनी पार्टी के कुछ लोगों की भागीदारी के बावजूद उनकी पार्टी को मुसलमानोों ने वोट दिया, तो उन्होंने अयोध्या में मंदिर की जगह स्कूल या अस्पताल बनाने की मांग की।
2002 गुजरात दंगों के बाद बीजेपी के साथ संबंधों की वजह से जब मुसलमानों ने उनकी पार्टी को वोट देना बंद कर दिया, तो बीजेपी के साथ संबंध न तोड़ पाने के बाद उन्होंने जो सबसे सुविधाजनक काम किया था, वह किया- उन्होंने बीजेपी की बात नहीं सुनी और राष्ट्रपति चुनावों में दो बार- 2007 (प्रतिभा पाटिल) और 2012 (प्रणव मुखर्जी) में कांग्रेस प्रत्याशियों का समर्थन किया।
औरंगाबाद को संभाजीनगर और उस्मानाबाद को धाराशिव बनाकर उद्धव ने अपने आप को हिन्दू विरोधी बताए जाने के अवसर को छीन लिया है। यह उनके मत्रिमंडल का अंतिम फैसला था। इसमें कांग्रेस और एनसीपी ने भी उनका साथ दिया जो सभी गैर-बीजेपी दलों के बीच इस बढ़ती भावना का परिचायक है कि उन्हें बीजेपी के हिन्दुत्व का प्रतिरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों का प्रतिकार करना चाहिए।
सरकार से बाहर भी उद्धव के पास अधिकांश शिव सैनिकों का समर्थन है और पार्टी के संविधान में जिस तरह शिव सेना प्रमुख जो उद्धव ठाकरे अभी हैं, को जिस तरह की पूर्ण शक्ति मिली हुई है, इसकी संभावना कम ही है कि एकनाथ को पार्टी पर पूरी तरह कब्जा करने और ठाकरे से इसकी आत्मा छीनने का अवसर मिल सकेगा।
अधिकांश शिवसैनिक जानते हैं कि बीजेपी का गेम प्लान शिव सेना को पूरी तरह बर्बाद और खत्म कर देने का है और वे किसी ऐसे व्यक्ति का साथ नहीं ही देंगे जिसने ऐसा करने का रास्ता किसी को दिया है। बागियों ने जिस तरह अपने गुट को शिव सेना बाल ठाकरे पार्टी नाम दिया, वही बताता है कि ठाकरे नाम की शिवसेना के लिए कितनी कीमत है।
क्योंकि ठाकरे के बिना शिवसेना नहीं है और मौलिक शिव सेना के बिना ठाकरे की कीमत नहीं है। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का हश्र हम देख ही चुके हैं। लड़ाई अब शाखाओं में और सड़क पर होगी। और उद्धव अभी पीछे नहीं हट रहे हैं।