संकट टला: तोड़फोड़ को एनसीपी से दूर भगाने का उपक्रम था पवार का इस्तीफ़ा

नई दिल्ली। महाराष्ट्र की राजनीति में दो मई से आया तूफ़ान आख़िर पाँच मई को थमगया। एनसीपी के अध्यक्ष पद से शरद पवार के इस्तीफ़े के कारण पार्टी में भूचाल सा आ गया था। चूँकि शरद पवार के देश की बाक़ी पार्टियों से भीरिश्ते अच्छे हैं, इसलिए एनसीपी के अलावा पार्टियाँ भी चिंतित थीं और ज़्यादातर ने पवार से अपील की थी कि कम से कम 2024 के लोकसभाचुनाव तक तो उन्हें अध्यक्ष बने ही रहना चाहिए।

एनसीपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी काफ़ी दबाव था कि पवार ही अध्यक्ष बने रहें। वही हुआ भी। पार्टी की सोलह सदस्यों वाली कमेटी ने पवार का इस्तीफ़ा नामंज़ूर कर दिया। कमेटी की बात पवार ने भी मान ली और घोषणा कर दी कि मैं फ़िलहाल अध्यक्ष पद नहीं छोड़ूँगा। वैसे निर्णय यही होगा, यह पवार इस्तीफ़ा देने से पहले ही जानते थे। दरअसल, यह पूरा मामला पार्टी कार्यकर्ताओं को फिर से जोड़ने, उनमें भावुकता भरने का है। सही मायनों में तो इस जुड़ाव और इस भावुकता के ज़रिए एनसीपी नेता अजित पवार की कुछ गतिविधियों पर अंकुश लगाना था।

एक समर्थक ने खून से पत्र लिखकर शरद पवार से इस्तीफा वापस लेने की मांग की थी।
एक समर्थक ने खून से पत्र लिखकर शरद पवार से इस्तीफा वापस लेने की मांग की थी।

आधी रात को बनी जोड- तोड़ की सरकार के जमाने से ही अजित दादा का भाजपा के प्रति झुकाव जगज़ाहिर है। शरद पवार नहीं चाहते कि एनसीपी टूटे और उसका भी एक हिस्सा शिवसेना की तरह भाजपा से जा मिले। कहा तो यह जा रहा है कि अंदर ही अंदर एनसीपी को तोड़ने का पूरा खाका तैयार हो चुका था।

लेकिन पासा उल्टी पड़ गया। शरद पवार चतुर और दूरदर्शी नेता हैं। उन्होंने समय रहते इस बात को अच्छी तरह भाँप लिया और अपने इस्तीफ़े की तुरुप चाल चलकर नेताओं, कार्यकर्ताओं में इतनी भावुकता भर दी कि कम से कम कुछ समय तो कोई तोड़फोड़ जैसे किसी शब्द में विश्वास नहीं ही करेगा। यही शरद पवार चाहते थे।

शरद पवार ने जैसे ही इस्तीफा वापस लेने का ऐलान किया तो समर्थकों ने खुशी मनाई।
शरद पवार ने जैसे ही इस्तीफा वापस लेने का ऐलान किया तो समर्थकों ने खुशी मनाई।

वास्तव में सत्ता जाने के बाद एनसीपी नेताओं और कार्यकर्ताओं की हालत पुराने जमाने की उन वरिष्ठ कन्याओं जैसी हो गई है जो शादी के इंतज़ार में होम साइंस की पढ़ाई करती रहती थीं। राजनीति में और राजनीतिक पार्टियों में कोई न कोई गतिविधि होती रहनी चाहिए, वर्ना कार्यकर्ता घरबैठ सुस्ताने लगता है। … और जब कार्यकर्ता सुस्त हो जाए तो पार्टी भीसुस्त हो जाती है।

हाल सामने हैं। सत्ता से लम्बे समय तक विलग होने से कांग्रेस की क्या हालत हो गई है! तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक को देख लीजिए, छत्तीसगढ़ में भाजपा को देख लीजिए और आंध्र में चंद्रबाबु नायडू की पार्टी को देख लीजिए। मजाल कि कहीं कोई एक बयान भी नज़र आ जाए! सब के सब सुस्त पड़े हैं। सत्ता होती ही ऐसी हैं। मिल जाए तो हर तरह का ऐश्वर्य हाथ में रहता है और यही सत्ता दूर हो जाए तो कोई हाल- चाल तक नहीं पूछता!

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