2024 का सूरज बेशक अस्त हो रहा है, निराशा की धूप कहीं तीखी होती जा रही है। सबसे बड़ी निराशा यही है कि दुनिया भर में इस साल हुए चुनावों में लोगों ने तानाशाहों और निरंकुशों को सत्ता में बैठाया है। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि दूसरों से नफरत करने के उनके संदेश पर प्रतिक्रिया करना कहीं आसान है, बजाय इसके कि लोकतंत्र में नागरिकता की कीमत के रूप में एक नागरिक से अपेक्षित शिष्टता और सभ्यता के भाव को हर स्थिति में मजबूत रखा जाए।
भारत में तानाशाहों की कामयाबी के साथ ही यह लोकतंत्र की प्रहरी मानी जाने वाली संस्थाओं की विफलता भी है। विद्वान मुख्य न्यायाधीश का प्रधानमंत्री के साथ प्रार्थना करने वाला वीडियो देखने से बड़ी निराशा कुछ नहीं हो सकती। चर्च और राज्य का अलग रहना, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की दीवार- ये सब हिन्दू राष्ट्र के आगमन-पूर्व के इस दौर में काफूर हो गए हैं।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सामूहिक दंड के साधन के रूप में बुलडोजर के इस्तेमाल के खिलाफ फैसला सुनाकर हमें थोड़ी उम्मीद भी दी। इसने हमारी उम्मीदों को और भी मजबूत किया जब कथित तौर पर जमीन के नीचे प्राचीन मंदिरों के दबे होने के आधार पर मस्जिदों को कब्जे में लेने के लिए दायर विभिन्न मुकदमों पर आगे की सभी प्रभावी कार्यवाही पर रोक लगा दी।
हालांकि ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जिससे हम अपनी सारी उम्मीदें बांध सकें। ऐसे में संविधान को सभी भारतीयों को उम्मीद दिलाने का बोझ उठाना होगा। यह केवल दिखावा करने या इधर-उधर लहराने के लिए एक छोटी-सी लाल किताब नहीं है, यह एक नागरिक का दूसरे नागरिक के प्रति सहबद्धता का संकल्प है। किसी भी नागरिक को संवैधानिक अधिकारों से वंचित करना सभी नागरिकों के लिए इससे वंचित होना होगा।
इसलिए जब नागरिक ‘संविधान खतरे में है’ कहते हुए या डॉ. आम्बेडकर के अपमान पर प्रतिक्रिया करते हैं, तो वास्तव में वे अपने स्वयं के अधिकारों की रक्षा के लिए उठ खड़े होते हैं। संविधान को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी हमारी है और सत्ता की निरंकुशता को काबू में रखने के लिए इसका इस्तेमाल 2025 के लिए हमारी आशा होनी चाहिए। जय हिंद!
(संजय हेगड़े सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)