बीता हुआ साल संविधान वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। इसलिए नहीं कि इस वर्ष संविधान निर्माण की 75वीं वर्षगांठ मनाई गई। इसलिए भी नहीं कि इस पर संसद में दो दिन की विशेष चर्चा हुई। इतिहास गवाह है कि इन सरकारी रस्मों और संसद की बहसों से समाज के मानस पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर यह साल संविधान वर्ष बना तो इसलिए कि पहली बाहर संविधान राजनीति का मुद्दा बना। संविधान पर राजनीति होना भारत गणराज्य के लिए एक शुभ घटना है। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्ष में यह बहस थमेगी नहीं, संविधान को लेकर हो रही राजनीति और गहरी होगी।
यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है। लोकतांत्रिक राजनीति के क्षय की वजह से हमारी भाषा में उलटबांसी बस गई है। हम अक्सर कह देते हैं कि किसी अच्छे या पवित्र मुद्दे को राजनीति में न घसीटा जाए। सच यह है कि लोकतंत्र में जिस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं होगा, उसे ही कोई तवज्जो नहीं मिलेगी। जब तक महिला की सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर राजनीतिक जद्दोजहद नहीं होगी, तब तक मान लीजिए इन सवालों पर कोई सरकार गंभीरता से काम नहीं करेगी। आज से 25 वर्ष पहले संविधान निर्माण की रजत जयंती के वक्त अधिकांश नागरिकों को 26 नवंबर का ठीक से पता भी नहीं था। इस उदासीनता का फायदा उठाकर सरकार ने संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन कर दिया था। हालांकि इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वेंकेटचलैया के कारण इस आयोग द्वारा संविधान के मूल ढांचे से छेड़खानी करने की कोई कोशिश नहीं हुई लेकिन एक दरवाजा खुल गया था। इस लिहाज से वर्ष 2024 में संविधान का राजनीति के अखाड़े में उछलना एक ऐसी घटना है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
निःसंदेह इस वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटना लोक सभा के आम चुनाव थे। यह कहना तो अतिशयोक्ति होगी कि मतदाताओं की नजर में इस चुनाव का सबसे प्रमुख मुद्दा संविधान था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि संविधान के सवाल ने चुनाव से पहले की रणनीति, चुनाव के दौरान हुए प्रचार और चुनाव के बाद हुए विश्लेषण और बहसों को एक सूत्र में बांधने का काम किया। आज बीजेपी इस बात पर जितनी भी मिट्टी डाले, सच यह है कि इस चुनाव में उसका इरादा चार सौ पार या उसके इर्द गिर्द पहुंचकर संविधान में कुछ ऐसे संशोधन करना था जो महज संशोधन नहीं होते बल्कि इमरजेंसी में हुए संविधान के 42वें संशोधन की तर्ज पर संविधान के पुनर्लेखन जैसे होते। ऐसे किसी संशोधन के माध्यम से बीजेपी भारतीय राजनीति में अपने वर्चस्व को एक स्थायी रूप देना चाहती थी। इसमें भी कोई शक नहीं कि संविधान बचाने के नारे ने इंडिया गठबंधन के बिखरे हुए प्रचार को एक धार दी।
इस वर्ष हुए चुनाव में संविधान के सवाल ने मतदाताओं के उस बड़े हिस्से को जो अपनी जिंदगी से जुड़े अनेक मुद्दों को लेकर परेशान था, उसे विपक्ष के साथ खड़े होने का कारण दिया। हो सकता है अपने वोट को संविधान से जोड़ने वाले मतदाताओं की संख्या बहुत कम रही हो लेकिन बीजेपी को लगे अप्रत्याशित धक्के के विश्लेषण में यही कारक सबसे ऊपर उभर कर आया। अपने आंतरिक विश्लेषण में बीजेपी ने भी इसी मुद्दे को चुनावी झटके के कारण के रूप में चिह्नित किया। अगर 2004 का चुनाव इंडिया शाइनिंग के खारिज होने के लिए याद किया जाएगा, तो 2024 को संविधान बदलने के प्रस्ताव को ख़ारिज किए जाने के रूप में याद रखा जाएगा।
इसलिए संविधान से जुड़ी बहस चुनाव के बाद भी जारी रही। नवनिर्वाचित लोक सभा के दोनों सत्रों में संविधान का सवाल उभर कर आया। सत्तापक्ष को इतना तो समझ आ गया कि संविधान पर हमला करते हुए दिखना राजनैतिक रूप से महंगा साबित हो सकता है। मन में जो भी रहा हो, अब प्रधानमंत्री को संविधान की प्रति के सामने माथा झुकाना पड़ा। उधर विपक्ष ने सरकार पर हमले के लिए संविधान को मुख्य प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया। चाहे जातिवार जनगणना की मांग हो या आरक्षण में वर्गीकरण का मुद्दा, चाहे ईवीएम का विरोध हो या ‘मोदानी’ गठजोड़ का, अब हर सवाल संविधान से जुड़ने लगा। संविधान को लेकर यह बहस केवल सत्तारूढ़ दल और विपक्ष तक सीमित नहीं रही। देश भर में सैकड़ों संगठनों और लाखों नागरिकों ने संविधान बचाने की मुहिम में हिस्सा लिया। संविधान की लाल जिल्द वाली प्रति हाथ में लेकर खड़े राहुल गांधी की फ़ोटो वर्ष 2024 की छवि के रूप में याद रहेगी।
जाहिर है आने वाले वर्ष में संविधान से जुड़ी यह राजनीतिक बहस जारी रहेगी, और रहनी चाहिए। लेकिन इस बीते हुए वर्ष ने हमें इस बहस को सार्थक और धारदार बनाए रखने की तीन सीख भी दे दी है। पहला सबक यह है कि यह सोचना नादानी होगी कि संविधान बचाओ का नारा देने भर से ही बीजेपी को हर चुनाव में हराया जा सकता है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव ने यह फिर साबित कर दिया कि बार-बार इस्तेमाल के लिए यह औजार भोथरा हो सकता है। यूं भी बीजेपी ने संविधान की अर्चना करनी सीख ली है। दूसरा सबक यह है कि संविधान के सवाल को अमूर्त तरीक़े से उठाने से काम नहीं चलेगा। संविधान के आदर्श को अंतिम व्यक्ति के दुख-सुख से जोड़ना होगा। औरत, गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक की आकांक्षाओं से इसे जोड़ना होगा। तीसरा सबक यह है कि संविधान के सवाल को संविधान नामक दस्तावेज तक सीमित करना ठीक नहीं है। संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं है। यह एक दर्शन है, भारत के भविष्य का एक खाका है। संविधान बचाओ के नारे को भारत के स्वधर्म को बचाने की लड़ाई में बदलना होगा।