संस्थानों के साथ सरकारी दखल और छेड़छाड़ का न कोई तुक है और न कोई तर्क!

नई दिल्ली। अभी हाल में अखबार की हेडलाइन थी, ‘न्यायिक नियुक्तियों पर केंद्र की चुप्पी निंदनीय: सुप्रीम कोर्ट’। इस शीर्षक से प्रकाशित खबर में कहा गया था कि केंद्र सरकार न तो न्यायपालिका द्वारा तय किए गए नामों पर हामी भरती है और न ही इस बारे में कोई संवाद करती है कि उसे इन नामों पर कोई आपत्ति है या नहीं।

अदालत ने कहा कि ‘प्रतिष्ठित व्यक्तियों को कोर्ट बेंच में आमंत्रित करने के लिए राजी करना’ पहले ही एक चुनौती थी और सरकार का यह रवैया तो ऐसे लोगों को आमंत्रण स्वीकार करने में और बाधा बन सकता है। मेरा एक मित्र है जिसने हाल ही में इसका सामना किया है।

अदालत का एक तरह से निष्कर्ष है कि बिना स्पष्टीकरण के महीनों तक नामों को बेवजह रोके रखने के सरकार के रवैया से ‘कानून का शासन और न्याय प्रभावित होता है।

हां, ऐसा होता है। और मैं इस बात को पुख्ता तरीके से सामने रखता हूं।

मेरे घर के नजदीक मद्रास सैपर्स रेजिमेट है। इसके द्वार पर 1780 नंबर लिखा है। यह वह साल है जब इस रेजिमेंट की स्थापना 3 सितंबर को हुई थी। यानी इसे स्थापित हुए 242 साल हो चुके हैं। पूरे उपमहाद्वीप में इतनी पुरानी कोई सरकार नहीं है। लेकिन फिर भी सेना इतने लंबे समय से अस्तित्व में है, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वह सक्षम और सक्रिय है।

इस दो सदी पुराने सेना भर्ती के तरीके को इस साल बदल दिया गया। अब नई भर्ती के नियमों के मुताबिक सेना में शामिल हुए युवाओं को चार साल में रिटायर कर दिया जाएगा। उन्हें इस दौरान 6 महीने की ट्रेनिंग दी जाएगी और इसके बाद उन्हें उन हथियारों और सैन्य उपकरणों का इस्तेमाल करने की छूट होगी जिन्हें हासिल करने और खऱीदने में करोड़ों डॉलर खर्च हुए हैं।

सरकार की भर्जी योजना की आलोचना करते हुए सेना एक रिटायर मेजर जनरल ने कहा कि दरअसल सरकार की मंशा सेना के रेजिमेंट सिस्टम को खत्म करने की है, जबकि यही सेना में युद्ध और भाईचारे की बुनियाद है। उनका कहना है कि सेना के नारे ‘नाम, नमक, निशान’ को सबका साथ, सबका विकास से बदलने की कोशिश है। ऐसे में राजपूताना रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट,  सिख रेजिमेंट आदि को क्या कहा जाएगा? क्या उन्हें भी पुलिस जैसा कोई नाम या नंबर दिया जाएगा, या फिर जैसाकि व्हाट्सऐप पर चर्चा चल रही है कि उनके नाम भी सावरकर रेजिमेंट, मंगल पांडे रेजिमेंट, दीन दयाल उपाध्याय रेजिमेंट आदि होंगे?’

सेना, नौसेना और वायुसेना में यह योजना लागू होगी, जिसके तर्कों को अभी तक पूरी तरह से सामने नहीं रखा गया है। ऐसी सरगोशियां हैं कि सरकार ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि सका पेंशन बिल काफी बढ़ गया है और उसे पूरा करना मुश्किल पड़ रहा है। लेकिन सवाल है कि हम एक ऐसी संस्था से छेड़छाड़ कर रहे हैं जिसे बनने में दो सदी से अधिक वक्त लगा है और जिसका एक खास मकसद और उद्देश्य था। लेकिन बिना इस पारदर्शिता के सरकार ऐसा क्यों कर रही है, क्या ही मतलब निकाला जाए। खैर…

सरकार का सांख्यिकी कार्यक्रम एक ऐसा शानदार कार्यक्रम है जिसकी स्थापना भी निश्चित रूप से जवाहर लाल नेहरू ने की थी। इसकी प्रतिष्ठा भी एक ठोस और भरोसेमंद संस्थान के रूप में है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले नेशनल सैंपल सर्वे से सामने आया कि देश में बेरोजगारों की संख्या इतिहास में पहली बार दो गुने से ज्यादा हो गई है, और यह 2.2 फीसदी से बढ़कर 6 फीसदी पर पहुंच गई। इस रिपोर्ट को दबा दिया गया है, यहां तक कि संसद में भी इसे नहीं रखा गया। वैसे नोटबंदी के बाद सरकार की तरफ से कराया गया यह पहला रोजगार सर्वे था।

नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन के दो सदस्यों, जिनमें इसके अंतरिम अध्यक्ष भी थे, ने कहा कि सरकार ने एनएससी की मंजूरी के बावजूद इस रिपोर्ट को दबा लिया। नीति आयोग ने सामने आकर सरकार की अपनी ही रिपोर्ट को गलत साबित करने की कोशिश की, लेकिन 2019 के चुनाव के नतीजे आने के बाद इसी रिपोर्ट को बिना किसी बदलाव के जारी कर दिया गया।

सरकार द्वारा जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच कराए गए सर्वे में कुछ और चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। और वह ये थे कि भारतीयों द्वारा 2012 के मुकाबले मासिक खर्च में काफी कमी आई थी। इसे महंगाई के साथ जोड़कर देखें तो मासिक खर्च 1501 रुपए से गिरकर 1446 रुपए पर आ गया था। जिस रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया उसी में कहा गया था कि बीते 50 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोगों को उपभोग में ऐसी कमी आई हो, और इस कमी के चलते देश में गरीबी में 10 फीसदी का इजाफा हुआ।

इस रिपोर्ट में सबसे चिंताजनक आंकड़ा और रुख खाद्य उपभोग में कमी का था। इसके मुताबिक शहरों में  भारतीयों द्वारा खाद्य उपभोग पर खर्च 2012 में हर माह के 943 रुपए के मुकाबले 2018 में भी सिर्फ 946 ही था। यानी इसमें कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। लेकिन ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा 2012 के 643 से घटकर 2018 में 580 रुपए पर पहुंच गया।

भारत में उपभोग पर आमतौर पर 3 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन 5 साल में इसमें करीब 20 फीसदी की कमी दर्ज हुई। यानी प्रगति के साले वर्षों की मेहनत पर पानी फिर गया। इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने 19 जून 2019 को जारी करने की मंजूरी दे दी थी। लेकिन बेरोजगारी के आंकड़ों की तरह ही इसे भी न उस वक्त और अभी तक जारी नहीं किया गया है। वैसे पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग कर चुके हैं।

हमने नोटबंदी लागू कर दी, जबकि रिजर्व बैंत ने साफ तौर पर सरकार से कहा था कि यह बहुत गलत होगा और इसे लागू नहीं करना चाहिए। आरबीआई ने कहा था कि कालाधन को अधिकतर सोने के रूप में जमा है न कि नकदी के रूप में,  और मौजूदा करेंसी को अवैध घोषित करने से कालेधन पर कोई अंकुश नहीं लगेगा। साथ ही कहा था कि नोटबंदी का जीडीपी पर भी असर पड़ेगा क्योंकि सिर्फ 400 करोड़ रुपए की नकली करेंसी बाजार में होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि यह 18 लाख करोड़ की कुल नकदी का मात्र 0.02 फीसदी है।

लेकिन फिर भी आरबीआई को सरकार के इस फैसले पर मुहर लगानी पड़ी और फिर इसके बाद इसने उस बैठक के मिनट्स जारी करने से इनकार कर दिया जिसमें इस विषय पर चर्चा हुई थी। उस समय नोटबंदी की पूरी प्रक्रिया की जिस अधिकारी ने निगरानी की थी, वही आज रिजर्व बैंक के गवर्नर है। और इसी से वह तथ्य साबित हो जाता है, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है।

हमारे लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों को लगभग बिना प्रतिरोध के खत्म कर दिया गया है, या फिर किया जा रहा है। ऐसे में आशंका हर समय यही बनी रहती है कि आने वाले वक्त में और न जाने क्या होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here