सत्ता की लड़ाई हारकर, वैचारिक धरातल पर जीत गई समाजवादी पार्टी

ओम प्रकाश सिंह

डिंपल यादव की बिटिया टीना यादव ने अपने पापा अखिलेश के लिए ट्वीट किया है कि बहुत अच्छा लड़े। सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने भी बेटे की पीठ थपथपाया है। पिता की शाबाशी और बिटिया के जोश भरे ट्वीट को भले ही कुछ लोग इसे परिवारवाद के रुप में देंखें लेकिन यह एक अनुभव और युवा नजरिए का मिश्रण है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सत्ता पाने की लड़ाई अखिलेश यादव हार गए हो लेकिन वैचारिक धरातल पर सपा ने फतह हासिल की है।

चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने कहा था कि लोकतंत्र बचाने के लिए यह अंतिम चुनाव है। इसके बाद तो रास्ता क्रांति का ही बचता है। सवाल उठता है कि कैसी क्रांति क्योंकि डाक्टर लोहिया ने कहा था कि ”हिन्दुस्तान में क्रांति असंभव है, क्योंकि जिस देश में बिल्कुल बराबरी हो जाए या संपूर्ण ग़ैरबराबरी हो जाए तो वहां इन्क़लाब नहीं होगा। जिस देश में ग़ैरबराबरी की खाई गहरी हो जाए, दिमागों में घर कर ले, समाज का गठन भी हो जाए, प्रायः संपूर्ण ग़ैरबराबरी, तो वहां की जनता क्रांति के लिए बिल्कुल नाकाबिल हो जाती है।”

अब सवाल उठता है कि क्या विधानसभा चुनाव में किसी भी विपक्षी नेता या दल ने ग़ैर बराबरी का सवाल उठाया था। क्योंकि इस सवाल से टकराये बिना हिन्दुस्तान की सियासत में परिवर्तन की कहानी नहीं लिखी जा सकती है? एक और अहम सवाल है नवउदारवादी हमले का, इस सवाल को या तो छोड़ दिया गया या फिर इससे टकराना किसी भी नेता या दल ने मुनासिब नहीं समझा। भारतीय राजनीति के इन दो सवालों का जवाब लिए बिना वैसे भी संप्रदायिकता खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को निर्णायक जीत नहीं मिल सकती है।

डाक्टर लोहिया ने नैनीताल की एक सभा में 23 जून सन् 1962 को कहा था कि ”अजीब हालत है, कि जिसको क्रांति चाहिए, उसके अंदर शक्ति है ही नहीं और वह शायद सचेत हो कर उसकी चाह रखता ही नहीं है, और जिसमें क्रांति कर लेने की शक्ति है उसको क्रांति चाहिए नहीं या तबीयत नहीं है। ये मोटे तौर पर राष्ट्रीय निराशा की बात है।” अखिलेश यादव को अपने क्रांति वाले बयान पर डाक्टर लोहिया के विचारों के आलोक में फिर से गौर करना चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सत्ता की लड़ाई हार गई। यह भी सच है कि वैचारिक धरातल पर अखिलेश यादव ने फतेह हासिल किया है और जन से उनका जुड़ाव गहरा हुआ है। ‘सपा मुस्लिम, यादव की पार्टी है’ के दायरे से भी इस चुनाव ने अखिलेश को बाहर निकाला है। अब सवाल उठता है कि आखिर समाजवादी पार्टी अखिलेश के जी तोड़ मेहनत के बावजूद सत्ता के सिंहासन से दूर क्यों रह गई?

वैचारिक धरातल पर जीत के संदर्भ में देखेंं तो समाजवादी पार्टी अपने जन्म काल से लेकर अब तक मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने में चुनाव दर चुनाव सफल होती रही है। सन् 1993 के चुनाव में सपा को 18%, सन् 96 के चुनाव में 21.6%, 2002 के चुनाव में 25.33%, सन् 2007 के चुनाव में 25.45%, सन् 2012 के चुनाव में 29.13%, सन् 2017 के चुनाव में 21,82% और 2022 के चुनाव में लगभग 37% मत हासिल हुए। इस बीच समाजवादी पार्टी ने तमाम राजनीतिक उतार चढ़ाव के बीच तीन बार सरकार बनाया।

मत प्रतिशत बढ़ने के बावजूद समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर रह गई तो उसके भी कई कारण हैं।  उस पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से अखिलेश यादव को मंथन करना होगा। सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, ईवीएम का रहस्यमयी आवरण से इतर सपा को अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करना होगा। आज की तारीख में पार्टी का संसदीय बोर्ड सिर्फ छलावा है, इसे ताकतवर बनाना होगा। गणेश परिक्रमा करने वालों नेताओं को भी उनकी राजनीतिक जमीन दिखानी होगी।

कितना गंभीर मसला है कि समाजवादी पार्टी के प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के नेता सत्ता के खिलाफ लहर होने के बावजूद अपने बूथ को भी नहीं जीता पाए। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम, समाजवादी महिला सभा की राष्ट्रीय अध्यक्ष जूही सिंह, एमएलसी आनंद भदौरिया, सुनील राजन, उदयवीर सिंह, संजय लाठर जैसे लोग अपना बूथ हार गए। युवजन सभा, लोहिया वाहिनी और पार्टी के अन्य अनुषंगी संगठनों के बड़े नाम भी हवा हवाई ही रहे।

सपा को चाहिए कि वो विधानसभा चुनाव में मत प्रतिशत और  विधायकों की संख्या बढ़ने का जश्न मनाए। सांगठनिक विस्तार करे और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सड़क पर संघर्ष करे। दो साल बाद लोकसभा का चुनाव 2024 में है। देश की बात छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ही दक्षिणपंथी के कुत्सित प्रयासों का जवाब दे सकती है। राष्ट्रीय  दल कांग्रेस को चाहिए कि वो उत्तर प्रदेश में सपा को बड़े भाई की भूमिका में स्वीकार करे।

उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में दमदार प्रदर्शन करके  अखिलेश यादव ने यह साबित कर दिया है कि हिंदी प्रदेश में अगर सांप्रदायिकता का कोई मुकाबला कर सकता है तो वह सपा ही है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि दक्षिणपंथ के उभार के समय लड़ने के लिए भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत, देवीलाल, काशीराम, करुणानिधि, बीजू पटनायक, लालू प्रसाद जैसे दिग्गज नेता थे। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश में अखिलेश को समर्थन देकर इस लड़ाई को आगे बढ़ा दिया है।

वर्तमान युग में लखनऊ से दिल्ली तक दक्षिण पंथ न सिर्फ अपनी मजबूत सत्ता कायम कर चुका है बल्कि उसकी नफ़रत और लालच का दोष पूरे समाज में फैल चुका है। अखिलेश यादव के सामने समय कठिन है और चुनौती बड़ी है लेकिन  उनके प्रति जनता का विश्वास बढ़ रहा है। जन विश्वास को सहेजने के लिए समाजवादी पार्टी को आत्ममंथन करना होगा। दलित समाज का स्वतः रुझान सपा की ओर होना भी बड़ा संकेत है। गैर यादव पिछड़ी जातियों में भी सपा की स्वीकार्यता बढ़ी है।

पिछले कई दशकों से सत्ता की चाबी हथियाने के लिए दक्षिणपंथी शक्तियां प्रयासरत थींं। 90 के दशक में मंडल की राजनीति ने उन्हें आक्रामक होने का मौका दिया और कमंडल के रास्ते सत्ता पाने का रास्ता दक्षिणपंथियों ने चुन लिया जो आज भी बदस्तूर जारी है। धर्म के आधार पर दक्षिण पंथ लगातार जीत रहा है और देश में लोकतांत्रिक शक्तियां कमजोर हुई हैं। समाजवादी चिंतक प्रोफेसर आनंद कुमार का मानना है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर देश में वैचारिक राजनीति का प्रवेश करा दिया है।

आनंद कुमार का मानना है कि दक्षिण पंथ को हराने के लिए उत्तर प्रदेश में वैचारिक समाजवाद एकत्र हुआ। जिसने वोट भी लिया और सीटें भी ले रहा है।सवाल बस इतना सा है कि समाजवाद को आगे लाने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से बाहर के प्रयास होंगे या नहीं। जिस दक्षिणपंथ का देशव्यापी विस्तार हुआ है उसका जवाब धर्म और जात वाले हिंदुत्व से नहीं होगा।

लोकतंत्र को स्वस्थ देखने वाली ताकतेंं अखिलेश की ओर आशा भरी निगाहों से देख रही हैं। डाक्टर लोहिया के रास्ते चलकर अखिलेश को गांधी जी के सपनों को साकार करना होगा। लड़ाई लंबी चलेगी और छल कपट, झूठ की राजनीति का मुकाबला वैचारिक आधार पर ही लड़ा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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