सिर्फ EVM नहीं, पूरी चुनाव प्रक्रिया फर्जी, तो क्या जनादेश चुरा लिया गया?

शिमला के ऊपर स्थित मेरे छोटे से गांव में रात के सन्नाटे में रह-रहकर गीदड़ों के चिल्लाने, हिरण के मिमियाने, उल्लुओं की एक सुर में हिस-हिस या फिर कभी-कभार तेंदुए की खांसी की आवाज ही सुनाई दे रही थी। लेकिन अब मैं वापस एनसीआर आ गया हूं और 23 नवंबर को चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद जो खास तौर पर सुन रहा हूं, वह है हार गए विपक्षी दलों की जानी-पहचानी एक सुर में आर्तनाद कि चुनाव में गड़बड़ी हुई और जनादेश चुरा लिया गया। 

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क्या वाकई जनादेश चुराया गया… शायद। सीधे तौर पर तो इसका कोई प्रमाण नहीं है; लेकिन जब भी इस तरह के किसी काम में उस जिम्मेदारी को निभा रहे लोगों की भूमिका होती है तो प्रमाण भला मिले भी कैसे? और जब सरकार और सत्तारूढ़ दल खुद इसमें शामिल हों तो आप ही बताइए, सबूत इकट्ठा करने में किसकी दिलचस्पी होगी? लेकिन चुनाव आयोग द्वारा नफरती बोलों को नजरअंदाज करना, रिश्वत के पैसों की जब्ती पर चुप्पी और महाराष्ट्र में चुनावों की अधिसूचना में सुविधाजनक देरी जिससे शिंदे को सैकड़ों रियायतों और मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करने का मौका मिल गया, के अलावा भी कई परिस्थितिजन्य और वास्तविक सबूत हैं जो इशारा करते हैं कि हां, जनादेश चुराया गया:

  • महाराष्ट्र में शुरुआती गिनती की तुलना में मतदाता प्रतिशत में लगभग 8 प्रतिशत का इजाफा कैसे हो गया जबकि यह आंकड़ा कभी भी 1 फीसद से अधिक नहीं रहा? शाम 5 बजे चुनाव आयोग वोट डालने वाले कुल लोगों की जो गिनती बताता है, उसमें 76 लाख अतिरिक्त वोट जोड़े जाते हैं। इसका मतलब है कि हर निर्वाचन क्षेत्र में 26,000 अतिरिक्त वोट, जो उस स्थिति में बेहद अहम हो जाता है जब 100 सीटों में जीत का अंतर 26,000 से कम रहा और जिनमें से ज्यादा में बीजेपी की जीत हुई। 
  • ऐसा कैसे होता है कि जहां भी अंतिम मतदान संख्या में वृद्धि होती है तो इसका फायदा, जैसा कि कई विश्लेषणों से पता चलता है, हमेशा बीजेपी को ही होता है और उसका ‘स्ट्राइक रेट’ नाटकीय रूप से बढ़ जाता है? यह ऐसी प्रवृत्ति है जो पहली बार पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान सामने आई और उसके बाद पिछले महीने हरियाणा चुनाव के बाद से यह और भी स्पष्ट होती चली गई। 
  • पूरे दिन मतदान होने और कई दिनों तक रखे रहने के बाद भी कुछ ईवीएम में 99 प्रतिशत बैटरी चार्ज कैसे दिखाई दे सकती है? अगर यह सामान्य है, तो मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को ऊर्जा के एक अक्षय स्रोत की खोज के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए और उन सभी परमाणु वैज्ञानिकों को नजरअंदाज कर देना चाहिए जो दशकों से एटोमिक फ्यूजन पर काम कर रहे हैं। 
  • बीजेपी का स्ट्राइक रेट महज छह महीनों में 32 से बढ़कर 90 फीसद कैसे हो सकता है? शिंदे और अजित पवार गुट के लिए भी यही बात लागू होती है जिनके पिछले लोकसभा प्रदर्शन और चुनाव-पूर्व बयानों के आधार पर बात करें तो 25 फीसद की दर भी काफी होती! 
  • आखिर किसी को भी एनडीए के पक्ष में चल रही सुनामी का कोई संकेत कैसे नहीं मिला? न तो जमीन पर मौजूद पत्रकारों को इसका अंदाजा हो सका, न पोलस्टर्स को और न ही खुद राजनीतिक दलों को? वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा इसपर व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं कि दरअसल सुनामी मतदान केन्द्रों में नहीं बल्कि ईवीएम में थी!
  • मतदाता सूचियों से बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाने, मुस्लिम और यादव अधिकारियों को मतदान अधिकारी के पद से हटाए जाने और पुलिस द्वारा मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक पहुंचने से जबरन रोकने (‘न्यूजलॉन्ड्री’ समेत तमाम पोर्टल ने इस पर वीडियो बनाए) के आरोपों की जांच के लिए चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? समाचार रिपोर्टों और वीडियो से पता चलता है कि इस तरह के वाकये यूपी में जमकर हुए। ऐसे बूथों पर पुनर्मतदान का आदेश क्यों नहीं दिया गया?
  • एनडीए की सुनामी केवल उन दो राज्यों तक सीमित क्यों रही जहां बीजेपी सत्ता में है जबकि बंगाल, झारखंड, केरल और कर्नाटक में तो इसका असर भी नहीं हुआ? क्या राज्य मशीनरी के नियंत्रण का इस घटना से कोई लेना-देना है?
  • चुनाव आयोग ने इन सवालों पर चुप्पी क्यों साध रखी है और वह कोई सफाई क्यों नहीं देता? इसके बजाय वह ऐसी ‘शायरी’ सुनाता है जिससे गालिब और खुसरो भी अपनी कब्रों में तड़प उठें!

ये बिंदु गंभीर संदेह पैदा करते हैं जो आम नागरिकों को परेशान करने वाले हैं। संभव है कि इन बिंदुओं में से कुछ के वैध स्पष्टीकरण हों लेकिन चुनाव आयोग की स्फिंक्स जैसी चुप्पी इन संदेहों को गहराती है और ऐसी धारणा बनाती है कि कहीं कुछ तो गड़बड़ी हुई। जैसा कि परकाला प्रभाकर ने करण थापर के साथ एक इंटरव्यू में कहा है, यह जीतने वाली पार्टी और उसकी सरकार के लिए जनादेश की वैधता पर सवालिया निशान लगाता है।

इस चुनावी प्रवृत्ति का एक नाम भी है- इसे हरियाणा मॉडल के रूप में जाना जाता है। बीजेपी ने इस साल के शुरू में हरियाणा में इस प्रोटोटाइप का परीक्षण किया और पाया कि यह कारगर है, लिहाजा अब इसे बड़े पैमाने पर लागू किया गया है। भविष्य में, यह ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव, एक पार्टी’ की इमारत का मुख्य स्तंभ बनेगा। सवाल यह उठता है कि आखिर पार्टियों ने इसका अनुमान क्यों नहीं लगाया?

मुझे लगता है कि उन्हें इसकी उम्मीद थी, लेकिन लोकसभा में अपने प्रदर्शन के बाद वे लापरवाह हो गई थीं। सालों से सिविल सोसाइटी से लेकर विभिन्न संगठन और लोग इस खतरे के बारे में चेतावनी दे रहे हैं और उनसे ‘हरियाणा मॉडल’ को संस्थागत होने से रोकने के लिए तत्काल राजनीतिक और कानूनी कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं। उम्मीद है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी अब यह समझ गए होंगे कि उन्हें भविष्य में किसी भी महत्वपूर्ण चुनाव में जीतने नहीं दिया जाएगा; उन्हें बस इतनी सीटें दी जाएंगी कि चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता का आभास बना रहे। 

विपक्षी दल कुछ और समय के लिए उन चंद राज्यों में जीत सकते हैं जहां उनकी सरकार है लेकिन यह गिनती निश्चित ही घटती जाने वाली है। उन्हें दक्षिणी राज्यों के बीजेपी के खिलाफ खड़े होने से कोई राहत नहीं मिलने वाली: संसदीय सीटों का जो परिसीमन होने जा रहा है, उससे दक्षिण का जो भी थोड़ा बहुत प्रभाव है, वह भी खत्म हो जाएगा। तब विपक्ष की शिकायतों के प्रति कोई भी सहानुभूति नहीं रखेगा- सभी संस्थानों को चुप करा दिया गया है या इस नाजीवादी गठजोड़ में शामिल कर लिया गया है, मीडिया को खरीद लिया गया है, और जनता थक गई है। केवल मायावती ने ही अस्तित्व बचाए रखने की अपनी अनोखी समझ की वजह से इसे महसूस किया है।

अब केवल ईवीएम-वीवीपैटी तंत्र ही संदिग्ध नहीं है, बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया जिसमें चुनाव आयोग की देखरेख- चुनाव कार्यक्रमों की अधिसूचना, बहु-चरण के लिए दिए जाने वाले तर्क, आदर्श आचार संहिता का क्रियान्वयन, मतदाता सूची तैयार करना, मतदाताओं का दमन, मतगणना प्रक्रिया, मतदान डेटा के आंकड़े जारी करने में अस्पष्टता, फॉर्म-17 सी का वितरण…सब संदेह के घेरे में हैं। 

‘इंडिया’ ब्लॉक और अन्य विपक्षी दलों को महसूस करना चाहिए कि युद्ध का मैदान ईवीएम से कहीं आगे तक पसर गया है। यह अब एक मोर्चे वाली लड़ाई नहीं रह गई है: भले ही कल ईवीएम को बैलेट पेपर से बदल दिया जाए, लेकिन सरकार के तरकश में ऐसे तमाम तीर हैं जिनका जहर निकालना होगा। ‘भारत जोड़ो’ यात्राएं और सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं अब काम नहीं आने आएंगी। ये सब एक गैर-ध्रुवीकृत और लोकतांत्रिक समाज में काम कर सकती हैं जो हम अब नहीं रहे। इंडिया ब्लॉक को यह लड़ाई अब लोगों तक ले जानी चाहिए। उसे सबसे पहले तीनों चुनाव आयुक्तों के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव पेश करना चाहिए। संसद में संख्याबल को देखते हुए बेशक यह विफल हो जाएगा, लेकिन कभी दुनिया की अग्रणी संस्था रहे चुनाव आयोग में घर कर गई सड़न की ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान तो आकर्षित होगा।

इंडिया ब्लॉक को एक साथ दो मांगों की घोषणा करनी चाहिए: 1) ईवीएम को बैलट पेपर से बदलें और 2) चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए मौजूदा चयन समिति खत्म हो और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित समिति को वापस लाएं जिसमें मुख्य न्यायाधीश सदस्य हों। जब तक ये मांगें मान नहीं ली जातीं, तब तक उसे सभी चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए। पता है वे नहीं मानेंगे लेकिन आसान विकल्प अब रहा नहीं। 

बैलेट पेपर प्रणाली में अपनी कमियां हैं जिसमें बूथ कैप्चरिंग और फर्जी वोट डालना शामिल है। लेकिन तब हम कम-से-कम इन घटनाओं के बारे में पता था, हम इसे स्वीकार करते थे कि वे अवैध हैं और उन्हें सुधारने के उपाय कर सकते थे। लेकिन ईवीएम के साथ यही काम व्यापक पैमाने पर बेहद कुशलता से और इतनी सफाई से किया जा रहा है कि इसका पता नहीं लगाया जा सकता और इसकी कोई जवाबदेही भी नहीं है।

चुनावों का बहिष्कार करने से गठबंधन के सामने कुछ समय के लिए हाशिए पर जाने का जोखिम होगा और बीजेपी को अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने की खुली छूट भी मिल जाएगी लेकिन इन हास्यास्पद चुनावों में भाग लेना जारी रखने का मतलब है कि वे हारते रहेंगे, और उससे भी महत्वपूर्ण, इस हास्यास्पद चुनाव प्रक्रिया और बीजेपी की जीत और कुशासन को वैध ठहराते रहेंगे। 

यह उम्मीद करना कि समय बीतने के साथ चीजें सुधर जाएंगी या बदल जाएंगी, बेकार ही है। कीमती समय बीतता जा रहा है। जैसा कि किसी ने कहा हैः ये जो बीत रहा है, वो वक्त नहीं, जिंदगी है। 

अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है।

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