नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके को पलट कर रख दिया है। फैसले के मुताबिक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कमेटी चुनाव आयुक्त के नाम की सिफारिश करेगी। इसके बाद राष्ट्रपति नियुक्ति की औपचारिक प्रक्रिया पूरी करेंगे। जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि जब तक संसद इस तरह का कानून नहीं बनाती तब तक नियुक्ति की यही प्रक्रिया जारी रहेगी।
संविधान पीठ में केएम जोसेफ के अलावा, जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरूद्ध बोस, ऋषिकेष रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार शामिल थे। पीठ ने कहा कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका के प्रभाव से दूर रहना चाहिए। इस फैसले के बाद सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनातनी और बढ़ सकती है। दरअसल सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के कलीजियम सिस्टम के खिलाफ है।
सरकार की दलील है कि जज ही जज की नियुक्ति करें तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। इसमें सरकार की भी भागीदारी होनी चाहिए। उधर सुप्रीम कोर्ट नेशनल जूडिशल कमिशन को खारिज करने के सात साल बाद भी सरकार को बार-बार चेतावनी देता रहा है। ये चेतावनी जजों की नियुक्ति से दूर रहने की होती है।
इसी बीच नंवबर में जब अरुण गोयल को मोदी सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया तब सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि वीआरएस लेने के कुछ ही घंटों में कोई अधिकारी कैसे मुख्य चुनाव आयुक्त बन सकता है। दूसरा सवाल ये था कि नियुक्ति छह साल के लिए होती है तो ऐसे अधिकारी कैसे सिलेक्ट होते हैं जो छह महीने में रिटायर होने वाले हैं। लेकिन यही तर्क सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के लिए भी लागू होता है। अगर 26 साल में 15 मुख्य चुनाव आयुक्त बन गए तो और 24 साल में 22 चीफ जस्टिस भी इसी देश ने देखे हैं।
गोयल के खिलाफ नवंबर, 2022 में जैसे ही सुप्रीम कोर्ट में मामला गया वैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने ये सवाल पूछ लिया था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में क्या चीफ जस्टिस को शामिल किया जा सकता है। सवाल ठीक है। अगर कहीं खामी है तो उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। सुझाव आना चाहिए। लेकिन सवाल इस पर उठा कि जब जजों की नियुक्ति जज ही करेंगे तो चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में दखल देना कितना सही है।
दरअसल अब जो फैसला आया है वो लगभग दिनेश गोस्वामी कमेटी की रिपोर्ट को ही फॉलो करता है। लेकिन यही बात तो नेशनल जूडिशल कमिशन बनाने वाले कानून में थी। 14 अगस्त, 2014 को नरेंद्र मोदी सरकार ने संविधान संशोधन कर नेशनल जूडिशियल एप्वाइंटमेंट कमिशन का रास्ता साफ किया। 16 राज्यों की मंजूरी मिलने के बाद 31 दिसंबर को राष्ट्रपति ने दस्तखत किए और 13 अप्रैल, 2015 को ये अमल में आ गया।
लेकिन सिर्फ छह महीने के लिए। 16 अक्टूबर, 2015 को 4-1 के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक ठहरा दिया। जस्टिस जेएस खेहर, मदन बी लोकुर, कुरियन जोसेफ और आदर्श कुमार ने एक्ट के खिलाफ फैसला सुनाया। जस्टिस जे चेलमेश्वर ने सरकार के फैसले को सही ठहराया।
इस कमिशन के तहत जजों की नियुक्ति छह सदस्यों वाले आयोग से करने का प्रावधान था। आयोग में चीफ जस्टिस, दो सीनियर जज, कानून मंत्री और दो समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होते। इन दो सदस्यों को चीफ जस्टिस, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता चुनते।
गौर करें तो संविधान पीठ ने जूडिशल कमिशन की आखिरी सिफारिश को ही मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में फिट कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान दिनेश गोस्वामी कमेटी का जिक्र किया था जिसे भुला दिया गया। अब जब फैसला आया है तो ये गोस्वामी कमेटी की सिफारिशों पर ही खरा उतर रहा है। चुनाव सुधारों पर ये कमेटी 1990 में बनी थी। कमिटी ने आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो आयुक्त रखने की अनुशंसा की। नियुक्ति प्रक्रिया की सिफारिश इस तरह थी..
दिनेश गोस्वामी कमिटी रिपोर्ट
1. मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति चीफ जस्टिस और लोकसभा में विपक्ष के नेता से सलाह मशविरा करने के बाद राष्ट्रपति करेंगे।
2. सलाह मशविरे की प्रक्रिया को संवैधानिक ढांचे में रखा जाए
3. दो अन्य आयुक्तों की नियुक्ति चीफ जस्टिस, विपक्ष के नेता और मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह लेकर राष्ट्रपति करेंगे।
4. चुनाव आयोग से हटने के बाद कोई भी आयुक्त किसी सरकारी सिस्टम का हिस्सा नहीं होंगे न ही राज्यपाल नियुक्त किए जा सकेंगे।
गोस्वामी कमिटी की सिफारिशों के आधार पर 1990 में 70वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में पास नहीं हो सका और 1993 में इसे वापस ले लिया गया। इस बीच1991 वाले इलेक्शन कमिशन एक्ट के तहत तीन सदस्यों वाला चुनाव आयोग तो बन गया लेकिन रिटायरमेंट बाद सरकारी या संवैधानिक पदों पर नियुक्ति से मनाही या नियुक्ति प्रक्रिया में विपक्ष के नेता या चीफ जस्टिस को शामिल करने के प्रस्ताव को ताखे पर रख दिया गया।
अब संविधान की ओर देखते हैं। इसके अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग के बारे में विस्तार से जिक्र है।
संविधान का अनुच्छेद 324
1.चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्त होंगे जिनकी संख्या समय समय पर तय की जाएगी
2.मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्तियां राष्ट्रपति करेंगे।
3.जब कोई आयुक्त को ही मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया जाए तो वो इलेक्शन कमिशन के चेयरमैन की तरह काम करेगा
4.चुनाव आयोग की सलाह से राष्ट्रपति रीजनल कमिश्नर्स की नियुक्ति भी कर सकते हैं
5.चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें और टेन्योर राष्ट्रपति तय करेंगे।
संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करते हैं, इसलिए आयुक्तों की नियुक्ति का कैबिनेट करती है और कैबिनेट से प्रस्ताव पारित होने के बाद राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है। अरुण गोयल की नियुक्ति भी इसी तरीके से हुई। 18 नवंबर को वीआरएस लेने के बाद कैबिनेट ने उनके नाम पर फैसला किया और अगले ही दिन राष्ट्रपति ने उस पर दस्तखत कर दिए।
सुप्रीम कोर्ट से कौन पूछेगा सवाल
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले की सुनवाई शुरू हो गई तो जजों ने गोयल की फाइल अपने पास मंगवा ली। कोर्ट ने हैरानी जताते हुए कहा कि 2004 के बाद यूपीए सरकार में छह और मोदी सरकार में आठ मुख्य चुनाव आयुक्त बदल गए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की हालत भी वैसी ही है। अगर 26 साल में 15 मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो 24 साल में 22 चीफ जस्टिस बदल गए।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की संख्या बढ़ती कब है 1998 से जब कलीजियम सिस्टम शुरू हुआ। इससे पहले 1950 से लेकर 1998 तक 48 साल में सिर्फ 28 चीफ जस्टिस हुए। कलीजियम भी चीफ जस्टिस के टेन्योर पर ध्यान नहीं देता है। मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ से पहले यूयू ललित सिर्फ 2.5 महीने चीफ जस्टिस रहे। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा 27 जजों में से छह के पिता भी जज रह चुके हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद स्वाभाविक तौर पर कलीजियम सिस्टम फिर कठघड़े में खड़ा होगा।