देश भर में आज के दौर में हड़ताल, आगजनी, तोड़फोड़ कुछ लोगों का प्रिय शगल बनता जा रहा है। उन्हे सरकारी और अन्य की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने में कोई गुरेज नहीं होता है। इस बारे में हमारे मेहमान ब्लागर विवेक रंजन श्रीवास्तव का एक व्यंग्य आपके लिए….
जिस किसी साहित्यकार ने “जो हमसे टकरायेगा चूर चूर हो जायेगा” जैसा महान क्रांतिकारी आंदोलन वादी नारा दिया है बरसों बरस से देश के छोटे बड़े आंदोलनो में हुई तोड फोड़ का बड़ा श्रेय उसे ही जाता है। दरअसल तोड़ फोड़ हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। अवचेतन में आंदोलन का मतलब ही हम तोड़ फोड़, आगजनी, सड़क रोको, ट्रेन रोको, बाजार बंद, घेराव समझते हैं। आंदोलन हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है। बिना रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नही पिलाती, फिर उस देश में जहाँ आबादी इतनी हो कि सरकार किसानो की माँगे पूरी करे तो मजदूर खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगते हैं। मजदूरो की जब तक सुनी जाती है तो मंहगाई इतनी बढ़ जाती है कि कर्मचारी आंदोलन करने लगते हैं। कर्मचारियो की मांगे पूरी होती हैं, तो व्यापारी नाराज हो जाते हैं। जब तक सरकार व्यापारियो को मनाती है तब तक पत्रकार आंदोलनकारी बन जाते हैं। बहलाने फुसलाने पर जब पत्रकार मानते हैं वकीलो के संगठन आंदोलन की धमकी दे देते हैं। डाक्टर, इंजीनियर, छात्र, संगठित असंगठित क्षेत्रों के वर्ग उपवर्ग, जाति वादी संगठन, भाषावादी संगठन सब अपनी अपनी पतीलियो में या प्रेशर कुकर में आंदोलन की खिचड़ी पकाते रहते हैं कब किसकी खिचड़ी पक जाये, कब किस प्रेशर कुकर की सीटी बोलने लगे कुछ कहा नही जा सकता।
आंदोलन और तोड फोड़ के बड़े लाभ भी होते हैं। आंदोलन नेताओ को जन्म देते हैं। लोकतंत्र के लिये नेता बहुत जरूरी हैं। आंदोलनो के कारण ही पोलिस बल और प्रशासन में भरती की संख्या बढ़ती है, अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से आंदोलन रोजगार का सृजन भी करते हैं। आगजनी और तोड़ फोड़ पुरानी बसो, खटारा वाहनो, पुरानी दुकानो का बहुत व्यवस्थित तरीके से निपटारा करती है। इंश्योरेंस सैक्टर को नये केसेज मिलते हैं। इंश्योरेंस के लुभावने विज्ञापन भी, जो वृद्धी इस व्यापार में नही कर पाते, किसी एक आंदोलन से ही लोगो में बीमा के प्रति वह चेतना जागृत हो जाती है। तोड़ फोड़, न केवल आंदोलन कारियो को अखबारो के फ्रंट पेज पर स्थान दिलवाती है वरन बेहतर सुरक्षित नव निर्माण की नीव रखती है। बेनर, फ्लेक्स, पोस्टर छापने चिपकाने वालो का तो सारा बिजनेस ही आंदोलनो पर टिका होता है। आंदोलन न हो तो बेचारे क्या करें। आंदोलनो में शहीद होने पर पूरे परिवार का भविष्य संवर जाता है, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, समाज की सहानुभूति, बड़ा मुआवजा वगैरह मिल जाता है। नेताजी स्वयमेव पीड़ित परिवार तक पहुंचते हैं, फोटो खिंचवाते हैं। जांच का आश्वासन मिलता है। आंदोलनकारियो की मांगों की ओर सरकार और जनता का ध्यान आकृष्ट होता है।
मांगे पूरी होती हैं तो आंदोलन समाप्त करना पड़ता है। पर इस बहाने स्थापित हुई आत्मीयता, नये संबंध मोबाईल में सेव हो जाते हैं, जो प्रतिदिन व्हाट्सअप मेसेजेज फारवर्ड करने के काम आते हैं। इवेंट कवर करने वाले पत्रकार, टीवी चैनल के कैमरामैन, प्रेस फोटोग्राफर नये आंदोलन स्थलो की खोज में जुट जाते हैं। सरकारी खुफिया तंत्र चाय की गुमटियो और पान की दूकानो पर संभावित अगले आंदोलन की सुगबुगाहट को भांपने में व्यस्त हो जाते हैं। वैसे आंदोलनकारियो को थोड़ी रायल्टी दुष्यंत कुमार को भी देनी ही चाहिये, जिन्होंने हर आंदोलन में फिट बैठने वाला यह शेर लिखा ” कौन कहता है आसमान में सूराख नही होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों “। आंदोलन, तोड़फोड़, आगजनी, बंद ऐसी ही चलती रहें, लोकतंत्र जिंदाबाद बना रहे। संगठन मजबूत होते रहें पर साथ ही यदि आंदोलन कुछ रचनात्मक रुख लें सकें तो बेहतर हो।