31 साल पहले मई 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में 42 लोगों की हत्या कर दी गई थी। बुधवार को सजा के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट की टिप्पणी भी इसकी तस्दीक कर रही है कि यह हत्या मनुष्यता के खिलाफ थी? सही मायने में आजादी के बाद यह सामूहिक नरसंहार उत्तर माथे पर ऐसा कलंक है, जो कभी नहीं मिटाया जा सकता है। हाशिमपुरा नरसंहार पर दिल्ली हाईकोर्ट ने आज बड़ा फैसला सुनाया है। सभी 16 आरोपी जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 1987 के इस मामले में आरोपी पीएसी के 16 जवानों को 42 लोगों की हत्या और अन्य अपराधों के आरोपों से बरी करने के तीन साल पुराने निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी गई थी।
उत्तर प्रदेश राज्य, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और नरसंहार में बचे जुल्फिकार नासिर सहित कुछ निजी पक्षों की अपीलों पर दिल्ली हाईकोर्ट ने छह सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। मामले में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री पी चिदंबरम की कथित भूमिका का पता लगाने के लिए आगे जांच की मांग को लेकर भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर भी फैसला सुरक्षित रखा। 28 साल चले मुकदमे में 21 मार्च 2015 को तीस हजारी कोर्ट ने संदेह का लाभ देते हुए आरोपी 16 जवानों को बरी कर दिया था।
दिल्ली हाईकोर्ट में एनएचआरसी की अपील पर केस का रुख इसी साल 28 मार्च को तब मुड़ा, जब घटना के समय पुलिस लाइन में तैनात रणवीर सिंह विश्नोई (78) पेश हुआ और उसने तीस हजारी कोर्ट में अतिरिक्त साक्ष्य के तौर पर पुलिस की जनरल डायरी पेश की। सेशन कोर्ट ने माना था कि हाशिमपुरा से पीएसी के ट्रक में 40-45 लोगों को अगवा किया था और इनमें से 42 लोगों को गोलियां मारकर मुरादनगर गंगनहर में फेंका गया।
कोर्ट में पेश जीडी में 22 मई 1987 की सुबह 7.50 बजे लिसाड़ी गेट थानांतर्गत पिलोखड़ी पुलिस चौकी पर पीएसी भेजे जाने, पीएसी जवानों, शस्त्रों और गोलियों का ब्यौरा दर्ज था। पीएसी के 17 जवानों सुरेंद्र पाल सिंह, निरंजन लाल, कमल सिंह, श्रवण कुमार, कुश कुमार, एससी शर्मा, ओम प्रकाश, समीउल्लाह, जयपाल, महेश प्रसाद, राम ध्यान, लीलाधर, हमवीर सिंह, कुंवर पाल, बुद्ध सिंह, बसंत वल्लभ और रामबीर सिंह के नाम हैं।
बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के आदेश के जो माहौल बिगड़ा उससे 14 अप्रैल, 1987 से मेरठ में धार्मिक उन्माद शुरू हो गया। इस दौरान दुकानों और घरों को आग के हवाले कर दिया गया था। हत्या, आगजनी और लूट की वारदातें होने लगीं। कई हत्याओं के बाद माहौल बिगड़ने लगा था। हालात बिगड़ने के साथ शासन-प्रशासन ने तत्काल कदम उठाए और माहौल पर काफी हद तक काबू पाया, लेकिन मेरठ में दंगे की चिंगारी शांत नहीं हुई थी। जगह-जगह छिटपुट घटनाएं हो रही थीं। इनके मद्देनजर मई के महीने में मेरठ शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। इस दौरान हालात संभालने के लिए शहर में सेना के जवानों ने मोर्चा संभाल लिया। हालात काबू में आने लगे, लेकिन मई का महीना आते आते कई बार शहर में कर्फ्य जैसे हालात हुए और कर्फ्यू लगाना भी पड़ा।
अप्रैल 1987 में मेरठ में दंगे पर काबू पाने के लिए पीएसी बुलाई गई थी, जिसे बाद में हटा लिया गया था। 19 मई 1987 को फिर से दंगे भड़कने और 10 लोगों के मारे जाने के बाद कर्फ्यू लगाते हुए 30 कंपनी पीएसी की बुलाई गई थी। गुलमर्ग सिनेमा में आगजनी के बाद मृतकों की संख्या 22 पहुंच गई थी। 22 मई को मुस्लिम बाहुल्य हाशिमपुरा मोहल्ले में प्लाटून कमांडर सुरेंद्र पाल सिंह के नेतृत्व में 19 पीएसी जवानों को भेजा गया था। आरोप है कि पीएसी जवान यहां से 40-45 लोगों को अपने ट्रक में भरकर ले गए और मुरादनगर में ले जाकर गोलियां मारकर इन्हें गंगनहर में फेंक दिया था।
इसमें तकरीबन 8 लोग सकुशल बच गए थे, जिन्होंने बाद में थाने पहुंचकर इस मामले में रिपोर्ट दर्ज कराई थी। और 43 लोगों की मौत हो गई थी। पुलिस फाइलों में दर्ज जानकारी के मुताबिक, जुल्फिकार, बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम गोली लगने के बावजूद सकुशल बच गए थे। बाबूदीन ने ही गाजियाबाद के लिंक रोड थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज कराई थी, जिसके बाद हाशिमपुरा कांड पूरे देश में चर्चा का विषय बना।