2025 से उम्मीदें: बीमार ही सही लेकिन मजबूती से धड़क रहा लोकतंत्र का दिल

लगभग दो दशकों से लोकतंत्र के बारे में वैश्विक नैरेटिव यही रहा है कि इसमें गिरावट आ रही है। कभी शासन का निर्बाध तरीका माना जाने वाला लोकतंत्र दुनिया के विभिन्न कोनों में लड़खड़ा गया है, जिससे सत्तावाद, लोकलुभावनवाद और असहिष्णु प्रथाओं को बढ़ावा मिला है। हालांकि 2024 में कुछ ऐसी घटनाएं जरूर हुईं जो उम्मीदों की रोशनी दिखाती है और जिनसे साबित हुआ कि दुनिया में बेशक लोकतंत्र कमजोर हुआ हो, फिर भी इसमें लचीलेपन की अंतर्निहित क्षमता है।

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सेनेगल, दक्षिण कोरिया और भारत में यह लचीलापन कहीं अधिक मुखर रहा। इनमें से प्रत्येक राष्ट्र ने लोकतांत्रिक सहनशीलता के विभिन्न पहलुओं को दिखाया और इनसे संस्थागत शक्ति, नागरिक भागीदारी और चुनावी राजनीति की आवश्यकता का महत्व स्थापित हुआ। भारत में हुआ 2024 का आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक राजनीति में लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में सामने आता है।

साहेल क्षेत्र (सहारा रेगिस्तान और सवाना के बीच उत्तर-मध्य अफ्रीकी इलाका) में लोकतांत्रिक पतन चिंताजनक रूप से दिखाई दे रहा है। एक के बाद एक हुए तख्तापलट ने इस पूरे क्षेत्र को अशांत कर दिया है। फिर भी, सेनेगल ने 2024 में शांतिपूर्ण चुनाव और सत्ता के सुचारू हस्तांतरण के साथ इस प्रवृत्ति को चुनौती दी। दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति द्वारा मार्शल लॉ घोषित किए जाने पर लोकतंत्र को बड़े संकट का सामना करना पड़ा। फिर भी, संस्थागत मजबूती का प्रदर्शन करते हुए संसद सदस्यों ने इस फैसले को पलट दिया और जबरदस्त सार्वजनिक विरोध के बीच सेना को बैरकों में लौटना पड़ा।

शायद 2024 में लोकतांत्रिक लचीलेपन का सबसे प्रभावशाली उदाहरण भारत रहा है। पिछले एक दशक के दौरान भारत नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी के नेतृत्व में लोकतांत्रिक ताने-बाने को लगातार छीजते देख रहा है। 2014 से लोकसभा में बहुमत के साथ मोदी सरकार ने बहुसंख्यकवादी और अलोकतांत्रिक नीतियों की लाइन लगा दी। प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने से लेकर न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करने और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाने तक, लोकतांत्रिक गिरावट के संकेत स्पष्ट मिल रहे थे। 

2024 के आम चुनाव को व्यापक रूप से भारत के लोकतांत्रिक भविष्य पर जनमत संग्रह के रूप में देखा गया। मोदी और बीजेपी ने आक्रामक तरीके से प्रचार किया और जनता से न केवल फिर से संसदीय बहुमत बल्कि दो-तिहाई बहुमत तक पहुंचाने की अपील की ताकि उन्हें भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को बदलने का मौका मिल जाए। अगर मोदी और बीजेपी को वैसा ही बहुमत मिल गया होता तो इससे देश का लोकतांत्रिक चरित्र गहराई से बदल गया होता।

भारतीय मतदाताओं ने इसके प्रति अपने विरोध का इजहार किया। बीजेपी लोकसभा में साधारण बहुमत भी हासिल नहीं कर पाई जिससे मोदी को गठबंधन सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का महत्वपूर्ण पुनरुत्थान भी देखा गया। कांग्रेस ने अपनी सीटों को लगभग दोगुना कर लिया और इससे राहुल गांधी को विपक्ष के नेता का स्थान मिला और संसद में असहमति और बहस की भूमिका को नई जिंदगी।

बेशक मोदी सरकार सत्ता में बनी हुई है, 2024 के चुनाव ने निश्चित ही एकतरफा शासन की उनकी क्षमता पर अंकुश लगा दिया है। बीजेपी के नेतृत्व में लंबे समय से खत्म हो चुका संसदीय नियंत्रण फिर से उभरने लगा है। गठबंधन की बाध्यताओं और मजबूत विपक्ष ने जवाबदेही का एक नया स्तर पेश किया है जिससे मोदी के पहले दो कार्यकालों की पहचान बनी बहुसंख्यकवादी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा है।

भारत का 2024 का चुनाव दुनिया भर के लोकतंत्रों के लिए कई महत्वपूर्ण सबक देता है। सबसे पहले, यह बताता है कि अंतिम ताकत मतदाताओं के हाथ में है। व्यवस्थात्मक चुनौतियों- मीडिया के पूर्वाग्रह से लेकर चुनावी ध्रुवीकरण तक- मतदाता सत्तावादी बढ़त को रोक सकते हैं। दूसरा, चुनाव ने एक विश्वसनीय विपक्ष के महत्व को स्थापित किया। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान ने मतदाताओं को बीजेपी के नैरेटिव का एक व्यावहारिक विकल्प प्रदान किया। लोकतंत्र में बहस को बढ़ावा देने, जवाबदेही सुनिश्चित करने और सत्ता के चंद हाथों में सिमटने से रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष जरूरी है। 

तीसरा, भारत का अनुभव लोकतंत्र की रक्षा के लिए संस्थागत सुधार की जरूरत को बताता है। जबकि 2024 के चुनाव ने बेशक मोदी के सत्तावादी झुकाव को रोक दिया है, भारत की लोकतांत्रिक संरचना में कमजोरियां- संस्थाओं की स्वतंत्रता से लेकर मीडिया की निष्पक्षता तक- गंभीर चिंता का कारण बनी हुई हैं। 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत में जो-कुछ होता है, उसका वैश्विक लोकतांत्रिक मानदंडों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आगे की राह चुनौतियों से भरी है, लेकिन 2024 के आम चुनावों ने भारत में लोकतंत्र का मर्सिया पढ़े जाने की प्रक्रिया को बीच में ही रोक दिया है। सेनेगल, दक्षिण कोरिया और भारत में लचीलेपन के उदाहरण पूरी दुनिया में लोकतंत्रवादियों के लिए उम्मीद जताते हैं। लोकतंत्र के लिए लड़ाई कभी खत्म नहीं होने वाली, लेकिन इसके लिए हमेशा लड़ना जरूरी होता है। 

(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में पीस एंड कन्फ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं।)

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