अगर राहुल गांधी ने एक दिन सामने आकर कह दिया की उनकी व्यक्तिगत राय है आज़ादी के 77 साल हो गए अब देश को किसी दलित नेता को अपना प्रधानमंत्री चुन लेना चाहिए और कांग्रेस को बहुमत मिलने पर ऐसा करना ही चाहिए। यद्दपि प्रधानमंत्री तो चुने हुए सांसद बहुमत के आधार पर चुनते है और बहुमत वाले या बड़े दल वाले नेता को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करते है पर कांग्रेस को इस दिशा में प्रयास करना चाहिये। कोई पिछड़ा भी हो सकता है।
ये एक वक्तव्य देश की राजनीति को फैसलाकुन मोड़ पर पंहुचा देगा। 2024 लोकसभा चुनाव सभी दलों के लिए करो या मरो का चुनाव है। देश के लोकतंत्र और संविधान तथा चुनाव आयोग और जनता की जागरूकता की परीक्षा का भी चुनाव है।
2014और 2019 के चुनाव में लगातार बहुमत से जीती भाजपा के लिए 2024 का रण आसान नहीं लगता है क्योंकि 2014 के चुनाव से पूर्व बड़े वादे कर दिए गए थे ,काफी सपने दिखा दिए गए थे और गुजरात माडल तथा अच्छे दिन का सपना काफी बड़ा था जो छलावा साबित हुआ तो 2019 में एक तरफ जनता को एक मौका और देने आग्रह की वादे पूरा हो सके और फिर पुलवामा में जवानों की शहादत तथा बालाकोट ने चुनाव को एक तरफा बना दिया था।
पर इस बार वादा खिलाफी ,महंगाई ,बेरोजगारी ,चीन का कब्ज़ा और विदेश नीति के फ्रंट पर भी कुछ खास नहीं दिखना तथा देश में भाई चारा हो या प्रशासन ,कानून व्यवस्था और अन्य समस्याओं पर ढीला-ढाला तथा गैर जिम्मेदारी का रुख सब मुह बाए सामने खड़ा है।
पिछले चुनाव में बंगाल में 42 में 18 सीट जीतने वाली भाजपा इस बार 10 के नीचे दिख रही है और वहा कांग्रेस तथा साम्यवादी को सीट मिलती दिख रही है यहाँ तक की ममता की कुछ सीट भी इनकी झोली में जा सकती है।
महाराष्ट्र में 48 में 23 सीट जीतने वाली भाजपा 10 के आसपास सिमट जायेगी और उद्धव ठाकरे तथा शरद पवार के नेतृत्व में महाआघाडी गठबंधन क्लीन स्वीप करता दिख रहा है।
मध्य प्रदेश में पिछले चुनाव में 29 में 28 सीट मिली थी पर इस बार विधान सभा चुनाव तो कांग्रेस भारी बहुमत से जीतेगी ही लोकसभा चुनाव में भी 15 या उससे अधिक सीट जीत सकती है।
छतीसगढ़ में अधिकतम सीट कांग्रेस जीत जाएगी तो राजस्थान में भी इस बार आकड़ा उलट-पुलट जायेगा। ऐसी ही स्थिति हरियाणा ,दिल्ली ,पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड में भी दिख रही है। गुजरात में भी पुरानी स्थिति नहीं रहेगी और बिहार में भाजपा 7 तक सिमटती दिख रही है।
अगर मल्लिकार्जुन खरगे जी को प्रधान मंत्री का उम्मेदवार घोषित कर दिया गया तो कर्नाटक उसी तरह उनका साथ देगा जैसा गुजरात ने मोदी जी का दिया था और दक्षिण भारत में भी इसका असर दिखेगा।
दलित प्रधान मंत्रीं का सवाल पूरे देश के 22 %एस सी और बाकि एसटी को उद्वेलित करेगा। अल्पसंख्यक समाज ने इस चुनाव में पहले ही कांग्रेस की तरफ जाने का मन बना लिया है वो पूरी ताकत से एक तरफा वोट करेगा और इसके परिणाम स्वरुप ब्राह्मण सहित देश के वो सभी लोग जो भाजपा से नाराज है उनको अपना गुस्सा निकालने का स्थान मिल जाएगा।
दलित प्रधान मंत्री की घोषणा करते ही राहुल गांधी की छवि एक स्वार्थ से दूर रहने वाले ,सत्ता लोलुपता से दूर रहने वाले त्यागी नेता की बन जाएगी जो देश के सभी नेताओं से काफी आगे दिखलाई पड़ेंगे इसका भरपूर लाभ भीं कांग्रेस पार्टी को मिलेगा।
2024 के युद्ध का सबसे बड़ा मैदान उत्तर प्रदेश बनने जा रहा है जहा से भाजपा ने 2014 के 71 के मुकाबले 2019 में 62 सीट जीता था जो उप चुनाव में बढ़कर 64 हो गयी है।
पिछले चुनाव में सपा के साथ लड़ी बसपा ने 10 सीट जीता तो सपा केवल 5 सीट पर सिमट गयी जिसमे आज़म खान और उनके लोगो ने 3 सीट जीता तो मुलायम सिंह और अखिलेश यादव किसी तरह अपनी सीट ही बचा पाए।
भाजपा की सहयोगी अनुप्रिया पटेल ने 2 सीट जीता तो उप चुनाव में आजमगढ़ और रामपुर में भूतो न भविष्यति जीत हासिल कर भाजपा ने अपनी सीट बढ़ा कर 64 कर लिया है और भाजपा की सत्ता का सारा दारोमदार उत्तर प्रदेश के प्रदर्शन पर ही टिका है।
उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल सपा है पर वो न तो उस तरह मुखर है और न सड़क पर है जैसे मुलायम सिंह यादव के समय रहता था।
आरोप लगाने वाले ये आरोप भी लगाते है की ईडी और सीबीआई का डर अखिलेश को निकलने नहीं दे रहा है तो 10 सीट जीतने वाली मायावती भी इन्ही कारणों से घर से नहीं निकलती है।
कभी कभी अपने होने का एहसास करवाने के लिए पार्टी दफ्टर पर प्रकट होतीं है और उनके तमाम निर्णयों से उनके भाजपा के खेमे में होने का आरोप लगता है।
कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने सबसे ख़राब दौर से गुजर रही है। पिछले विधान सभा चुनाव से पहले सबसे आक्रमक और सक्रीय नेता बन कर उभरी प्रियंका गांधी का ‘लड़की हूँ लड़ सकती हूँ’ का नारा विधान सभा चुनाव में कारगर नहीं रहा और 7 % से अधिक की पार्टी दो पार्टी में आमने सामने का चुनाव हो जाने के करण 2 % के आसपास आ गयी और लोकसभा में भी उत्तर प्रदेश से अकेले सोनिया गांधी ही संसद पहुच पायी।
लेकिन इस बार अल्पसंख्यक समाजं उसी तरह जिस तरह विधान सभा चुनाव में पूरीं ताकत से सपा के साथ था इस चुनाव में काग्रेस के साथ रहने का मन बनाता हुआ दिख रहा है।
यदि दलित प्रधानमंत्री का कार्ड चल दिया कांग्रेस ने तो मायावती की पार्टी जमीन सूंघ रही होगी और बड़े पैमाने पर दलित कांग्रेस में जाएगा।
दलित और अल्पसंख्यक के इस रुझान को देखते ही ब्राह्मण सहित वो सभी जातियों के आम लोग जो भाजपा से नाराज है पर विकल्प नहीं देख पा रहे है , उनको विकल्प मिल जाएगा और उत्तर प्रदेश की राजनीती की पूरी तस्वीर उलटी हो जाएगी। ऐसा दृश्य भी देखन को मिल सकता है की बसपा के वर्तमान सांसद और सपा के बहुत से कद्दावर नेता अचानक कांग्रेस के खेमे में दिखाई पड़े और भाजपा में चले गए कांग्रेसी वापसी का रास्ता देखे तथा उपेक्षा का शिकार सांसद भी कांग्रेस के दरवाजे पर मिले। यदि ऐसा होता है तो उत्तर प्रदेश और की राजनीति पूरा यूटर्न करती हुयी दिखलाइ पड़ेगी।
पर इस सब के लिये हमें अभी चंद महीने इन्तजार करना पड़ेगा क्योंकि तात्कालिक घटनाये भी परिदृश्य बदल देती है जैसे पुलवामा ने बदल दिया था पर भारत में कोई एक मुद्दा कभी दो बार चला नहीं है और लोग पहले से ही शंका व्यक्त करने लगे है की क्या सत्ता चुनाव के लिए कोई पुलवामा जैसा कर सकती है और होता ये है की जब कोई चीज पहले से जनता में चर्चा में आ जाती है तो अपना असर और सत्ता की साख दोनों खो देतीं है।
फिर भी आने वाले दिन बतलायेंगे की सत्ता के तरकश में और कितने तीर है और कांग्रेस की रणनीति क्या रहती है तथा समस्त विपक्षी दलों की रणनीति क्या होती है। इन्तजार करना पड़ेगा सितम्बर से नवम्बर तक का तब तस्वीर साफ़ हो पाएगी।