क्या कर्नाटक में चुनावों की वजह से गर्माने लगी ध्रुवीकरण की राजनीति?

नई दिल्ली। कर्नाटक में पिछले कुछ दिनों में हिजाब, हलाल, अजान जैसे मुद्दे चर्चा में रहे हैं। भारत की सबसे अमीर महिलाओं में शुमार बॉयोकॉन चीफ किरण मजूमदार शॉ ने भी कर्नाटक में बढ़ते धार्मिक विभाजन पर चिंता जताई है। शॉ का इशारा ‌BJP शासित इस दक्षिण भारतीय राज्य में पिछले कुछ दिनों से बढ़ रहे ध्रुवीकरण की ओर है।

माना जा रहा है कि इसकी वजह इस साल के अंत में संभावित कर्नाटक के विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। ऐसे में कई जानकार बढ़ते हुए ध्रुवीकरण को आगामी चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं।

ऐसे में चलिए समझते हैं कि कर्नाटक में क्यों बढ़ रहा है ध्रुवीकरण? कर्नाटक में कितनी जरूरी है धर्म की राजनीति? आखिर कैसे BJP को हो सकता है इससे फायदा?

कर्नाटक में तेजी पकड़ रहा है ध्रुवीकरण का मुद्दा

इस साल की शुरुआत से ही कर्नाटक में अलग-अलग वजहों से दो संप्रदायों के बीच तनाव बढ़ने की कई घटनाएं हुई हैं।

  • साल की शुरुआत में कुछ कॉलेजों में लड़कियों के हिजाब पहनने के विरोध के मुद्दे ने पूरे राज्य की राजनीति गर्माए रखी। मामला कोर्ट तक पहुंचा और कोर्ट ने स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पर बैन को सही ठहराया।
  • हिजाब का मामला अभी थमा भी नहीं था कि कर्नाटक में हलाल मीट पर बैन लगाने की मांग जोर पकड़ने लगी।
  • हाल ही में पुलिस ने हलाल मीट बेचने वाले एक मुस्लिम वेंडर पर हमला करने के आरोप में बजरंग दल के 7 कार्यकर्ताओं को अरेस्ट किया।
  • इसके अलावा मंदिरों के बाहर मुस्लिम वेंडर्स के सामान बेचने पर रोक लगाने का भी मुद्दा सुर्खियों में है।
  • हाल ही में सरकार ने तय सीमा के अंदर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को लेकर कई मंदिरों, मस्जिदों और चर्च को नोटिस जारी किया है, जिसे लेकर BJP सरकार पर लाउडस्पीकर पर रोक के बहाने अजान को निशाना बनाने के आरोप लग रहे हैं।
  • इन विवादों के बीच हाल ही में कर्नाटक में कैब विवाद सामने आया, जिनमें कुछ दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा हिंदुओं से अपील की गई कि वे मुस्लिमों से कैब सेवाएं न लें।
  • इससे पहले 2021 में कर्नाटक विधानसभा ने एक धर्मांतरण विरोधी विधेयक पारित किया था। उस समय कई ईसाइयों पर हमले हुए थे।
  • एक फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में ईसाइयों पर सर्वाधिक हमलों के मामले में कर्नाटक देश में तीसरे स्थान पर था।
  • यानी इस साल कर्नाटक में ध्रुवीकरण का मुद्दा चरम पर है। आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए इन मुद्दों के ठंडा पड़ने के बजाय और गर्माने की आशंका है।

माना जा रहा है कि कर्नाटक में बढ़ते ध्रुवीकरण के पीछे एक सोची-समझी रणनीति काम कर रही है। चलिए कुछ पॉइंट्स में समझते हैं कि आखिर क्या है ध्रुवीकरण की राजनीति बढ़ने की वजह और बीजेपी इससे कौन से हित साधना चाहती है?

1. ताकतवर लिंगायत समुदाय की नाराजगी से बचने की कोशिश

बीजेपी को कर्नाटक की सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाला लिंगायत समुदाय पिछले साल इस समुदाय के ताकतवर नेता बीएस येदियुरप्पा को पद से हटाए जाने से नाराज है।

  • करीब 17% आबादी के साथ लिंगायत समुदाय कर्नाटक का सबसे बड़ा समुदाय है। ये समुदाय राज्य की 224 में से 90-100 सीटों का परिणाम तय करने की ताकत रखता है।
  • लिंगायत समुदाय पिछले कुछ दशकों से कांग्रेस से दूरी बनाने के बाद बीजेपी और येदियुरप्पा का बड़ा समर्थक रहा है।
  • 1990 के दशक में लिंगायत समुदाय के लोकप्रिय कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को कांग्रेस के अध्यक्ष राजीव गांधी द्वारा हटाए जाने के फैसले से ये समुदाय कांग्रेस से छिटककर बीजेपी की तरफ मुड़ गया था।
  • लिंगायत समुदाय की ताकत का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 1989 में 224 में से 179 सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस समुदाय की नाराजगी की वजह से 1993 में 36 सीटें ही जीत पाई थी।
  • कांग्रेस से लिंगायत समुदाय की नाराजगी का सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को हुआ, जिसका वोट शेयर 1993 के चुनावों में 4 से बढ़कर 17% हो गया।
  • 2013 के विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी ने भ्रष्टाचार के आरोपों में येदियुरप्पा को पार्टी से हटा दिया था। तब येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनतंत्र पार्टी का गठन किया।
  • नतीजा, लिंगायत वोट बंट गए और 2008 चुनावों की 110 सीटों की तुलना में बीजेपी को 40 सीटें ही मिलीं और उसका वोट शेयर 33.86 से गिरकर 19.95 रह गया, जबकि 9.8% वोट KGP को मिले थे।
  • जानकारों का मानना है कि 2021 में येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाने से लिंगायत समुदाय बीजेपी से नाराज हो गया है।
  • ऐसे में बीजेपी इस जाति आधारित राजनीति के विकल्प के तौर पर उत्तर प्रदेश में सफल हो चुके कट्टर हिंदुत्व मॉडल को कर्नाटक की राजनीति में भी आजमाना चाहती है।

2. चार राज्यों की चुनावी जीत भुनाने की कोशिश

हाल ही में यूपी, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज करने से बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। माना जा रहा है कि इसीलिए बीजेपी कर्नाटक में विधानसभा चुनाव तय समय से पहले यानी इस साल के अंत में गुजरात विधानसभा चुनावों के साथ करवाना चाहती है।

  • राजनीतिक जानकारों का मानना है कि बीजेपी यूपी समेत चार राज्यों में विधानसभा चुनावों में मिली जीत को कर्नाटक में भी भुनाना चाहती है।
  • साथ ही जल्द चुनाव करवाकर बीजेपी की कोशिश कर्नाटक में उस पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों और सत्ता विरोधी लहर से बचना है।
  • माना जा रहा है कि पार्टी इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विकास के एजेंडे को आगे करेगी।
  • साथ ही राज्य की जाति आधारित राजनीति को साधने के लिए बीजेपी हिंदुत्व कार्ड भी खेल सकती है। यही वजह है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान राज्य में ध्रुवीकरण की राजनीति बढ़ी है।

3. हिंदुत्व कार्ड के जरिए कर्नाटक जीतने की मंशा

पिछले कुछ वर्षों के दौरान बीजेपी की राजनीतिक सफलता काफी हद तक हिंदू वोटों के इर्द-गिर्द घूमती नजर आई है।

  • राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, बीजेपी की राजनीति करीब 50% हिंदू वोटों को हासिल करके चमकती रही है। हाल ही में यूपी चुनावों के दौरान योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि ये मुकाबला 80 बनाम 20 फीसदी वोटों के बीच है।
  • उनका इशारा यूपी के 80% हिंदू वोटर्स और करीब 20% मुस्लिम वोटर्स पर था। बीजेपी इस खेल में सफल भी रही, उसे 2022 यूपी विधानसभा चुनावों में करीब 44% मत मिले, यानी उसका हिंदुत्व कार्ड का फॉर्मूला कामयाब रहा। एक रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी में बीजेपी को करीब 55% हिंदू वोट मिले। यानी 50% से ज्यादा हिंदू वोट हासिल करके जीत वाला फॉर्मूला कामयाब रहा।
  • बीजेपी की नजरें इसी फॉर्मूले को कर्नाटक में भी इस्तेमाल करने पर है, जहां की 84% आबादी हिंदू है और मुसलमान महज 13% है। ऐसे में ध्रुवीकरण की राजनीति से बीजेपी हिंदुओं को बड़ी संख्या में अपने पाले में करना चाहती है।

4. CM बसवराज बोम्मई की पार्टी पर कमजोर पकड़

2018 विधानसभा चुनावों में बहुमत हासिल रहने में विफल रहने के बाद बीजेपी ने जोड़-तोड़ की राजनीति करते हुए जनता दल (सेक्युलर) की सरकार गिराकर राज्य में अपनी सरकार बनाई थी।

  • उस समय मुख्यमंत्री बने थे बीएस येदियुरप्पा, जिन्हें साउथ में पार्टी का सबसे बड़ा नेता माना जाता था, लेकिन येदियुरप्पा को पार्टी हाईकमान के आदेश पर पद छोड़ना पड़ा और कमान मिली बसवराज बोम्मई को।
  • वैसे तो बसवराज बोम्मई भी लिंगायत समुदाय से आते हैं, लेकिन समुदाय के बीच उनकी लोकप्रियता और पकड़ येदियुरप्पा जैसी नहीं है। साथ ही बोम्मई का बीजेपी में कद भी येदियुरप्पा की तुलना में कमजोर है।
  • यहां तक कि नवंबर 2021 में हुए उपचुनावों में बीजेपी को बोम्मई के गृह नगर हंगल विधानसभा सीट भी कांग्रेस के हाथों गंवानी पड़ी थी।
  • बोम्मई की पार्टी पर ढीली पकड़ का फायदा कर्नाटक के कट्टर हिंदुत्व संगठनों ने उठाया और राज्य में अपनी पकड़ मजबूत कर ली।
  • येदियुरप्पा के जाते ही कर्नाटक की पुरानी बीजेपी, जिसे भगवा दल के सबसे उदारवादी संगठनों में माना जाता था, हाशिए पर चली गई

5. साउथ का एंट्री गेट है कर्नाटक

आमतौर पर उत्तर भारतीय पार्टी मानी जाती रही बीजेपी ने कर्नाटक में सरकार बनाकर इस मिथक को तोड़ा था।

  • दक्षिण भारत में बीजेपी की मौजूदगी बेहद कम रही है, लेकिन कर्नाटक में 90 के दशक से ही उसका कद बढ़ता रहा है। 2018 विधानसभा चुनावों में 104 सीटें जीतकर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी रही थी।
  • आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में वह सत्ता तो दूर मुख्य विपक्षी दल भी नहीं है। केरल में वामपंथ की जड़ों को हिलाने के लिए जरूर पार्टी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया है, लेकिन अभी वहां बहुत कुछ करने की जरूरत है।
  • 2021 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने दो दशक बाद तमिलनाडु में 4 सीटें जीती थीं, जबकि पुडुचेरी में भी उसने 6 सीटें जीतते हुए गठबंधन सरकार बनाई, लेकिन आंध्र प्रदेश और केरल में पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी का खाता भी नहीं खुल पाया था।
  • बीजेपी लगातार दक्षिण राज्यों में पैर जमाने की कोशिश में है और इस कोशिश के सफल होने के लिए कर्नाटक में सत्ता बचाए रखना सबसे अहम है।

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