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नेहरू-गांधी परिवारवादः कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला

अंबिकानंद सहाय
“उमर भर ग़ालिब यही भूल करता रहा
धूल चेहरे पर थी, और आईना साफ़ करता रहा।”
यानी मैं पूरी ज़िन्दगी दर्पण की धूल पोंछता रहा, इस बात को महसूस किए बिना कि जरूरत अपने चेहरे को साफ करने की थी, दर्पण को नहीं।
इस मशहूर शेर में जिस आत्म-विश्लेषण का ज़िक्र है, कांग्रेस उससे न ही सिर्फ बार-बार, बल्कि निराशाजनक और तथ्यात्मक रूप से भी जूझ रही है। हक़ीकत के आईने में तीन प्रमुख बातें साफतौर पर दिख रही हैं। पहली, ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के दौर में भी कांग्रेस नेतृत्व राजवंश का प्रतिनिधित्व ही चाहती है। अगर आप कांग्रेसी हैं तो आप नेतृत्व के मामले में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकते। इस पार्टी में ‘युवा जोश की आवश्यकता’, ‘सभी के लिए समान अवसर’ और ‘सच्चे लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप’ जैसे वाक्यांशों के लिए अब कोई जगह नहीं है।
दूसरी, संभावनाओं से भरा कोई भावी नेता, जिसे अपने राज्य में जनसमर्थन हासिल है, पार्टी के वंशवादी नेतृत्व के लिए चुनौती बन जाता है। फिर उसे अनिश्चित व अबूझ परिस्थितियों में पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी के साथ ऐसा ही हुआ था।
2009 में अपने पिता की मृत्यु के कुछ महीनों बाद आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी को भी इन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। हाल के दिनों में असम के हिमंत बिस्वा सरमा और मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी पार्टी में बने रहना तक़रीबन असंभव हो गया था। इसलिए क्या पता कि “लेटर बम” पर हस्ताक्षर करने वालों को भी आज या फिर कल ऐसी ही स्थितियों से गुजरना पड़े।
तीसरी, जिन्हें “सामान्य कांग्रेस शैली में उपग्रहों के रूप में चमकने” की अनुमति दी गई है, वे कभी चाटुकारिता से ऊपर उठ ही नहीं सकते। यह उनकी नियति है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि नेतृत्व ही जनता के साथ तालमेल बिठाने में अक्षम साबित हो रहा है।
यही कारण है कि 23 जाने-माने कांग्रेसी चेहरों द्वारा लिखे गए हालिया पत्र ने अनुभवी राजनीतिक पर्यवेक्षकों को उत्साहित नहीं किया। पार्टी के भीतर तथाकथित धमाका, चाय की प्याली में तूफान से ज्यादा कुछ नहीं था।
मुंबई के एक अखबार का संपादकीय पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं होता, जिसमें लिखा गया कि “सभी युवा और पुराने कांग्रेसियों के लिए एक अनुकूल चेतावनी। अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी खोजने के कार्यसमिति के निर्णय के बाद, अगर आपको लगता है कि कांग्रेस पार्टी में शीर्ष पद खाली हो रहा है, तो कृपया आवेदन करने की जल्दबाजी न करें। स्लॉट स्थायी रूप से परिवार के लिए आरक्षित है।”
संपादकीय में आगे कहा गया कि “उन 23 बहादुर पुरुषों और महिलाओं में से, जिन्होंने पत्र में अपना नाम देकर पार्टी में मौजूद अनिर्णय की स्थिति को सामने लाकर अप्रत्याशित बहादुरी का परिचय दिया, किसी एक के पास अपने द्वारा उठाये गए मामले को तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने की अच्छी भावना नहीं थी। इसके बजाय, वे इस बात की सफाई देने में व्यस्त हो गए कि उन्होंने पत्र क्यों लिखा। वास्तव में, वे बिना लड़े ही टूट गये।”
संपादकीय में कहा गया कि “मनमोहन सिंह, एके एंटनी और बाकी चाटुकारियों की भीड़ द्वारा किये गए नाटकीय अनुरोध, सोनिया और राहुल के प्रति बिना शर्त वफ़ादारी की प्रतिज्ञा और उनके नेतृत्व की सराहना के बाद, सात घंटे की बैठक एक परिचित मोड़ पर ख़त्म हो गई। अंतरिम अध्यक्ष के साथ अंतरिम व्यवस्था फिलहाल जारी रहेगी, जबतक कि वे एक नए कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर लेते।”
सच ही है कि सात घंटे के मंथन के बाद भी बैठक पूर्व-निर्धारित बातों से आगे नहीं बढ़ सकी- “सीडब्ल्यूसी ने कांग्रेस पार्टी के सभी स्तर के लोगों के विचारों और इच्छाओं को देखते हुए सर्वसम्मति से श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी को हरसंभव तरीके से मजबूत करने का निर्णय लिया है।” इस संदेश को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं। हमें सोनिया से राहुल, राहुल से सोनिया और सोनिया से राहुल वृतांत को देखने के लिए तैयार रहना होगा। यह एक अंतहीन श्रृंखला है।
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