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आखिर किसान सरकार की बात पर विश्वास क्यों नहीं कर रहे?

नई दिल्ली। पिछले ढ़ाई माह से देश के किसानों में सरकार के प्रति गुस्सा है। राज्यों में प्रदर्शन कर रहे किसान अब दिल्ली में सरकार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए आना चाह रहे हैं, लेकिन सरकार उनसे बात करने के बजाए उन्हें रोक रही है, उन पर बल प्रयोग कर रही है।

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड सहित कम से कम छह राज्यों से किसान दिल्ली आने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें से तीन राज्यों में भाजपा का शासन है। इन राज्यों में किसानों को रोकने के लिए प्रशासन ने पहले ही काफी कोशिश की थी, पर उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई।

किसानों ने पहले ही कह दिया था कि हम दिल्ली आ रहे हैं, लेकिन सरकार ने उन्हें मनाने के लिए क्या किया? प्रश्न है, आखिर देश के किसान क्यों इतने उत्तेजित हैं?

किसान क्यों उत्तेजित है यह सरकार अच्छे से जानती है। किसानों के गुस्सा होने के कुछ कारण है, जो बहुत वर्षों से उपेक्षा की वजह से पैदा हुए हैं।

कोरोना के बीच में केंद्र सरकार तीन कानून ले आई। सरकार ने कहा कि पुराने कानून अच्छे नहीं हैं, नए कानूनों से किसानों का भला होगा। प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री, कृषि मंत्री तक इस बिल की विशेषता बताने में लगे रहे लेकिन अब तक सरकार किसानों को इस कानून के लिए सहमत नहीं कर पाई। सवाल यही है कि इस कानून में कुछ तो ऐसा झोल है जिसकी वजह से किसान मानने को तैयार नहीं हो रहा है।

यह कानून शुरु से विवादों में रहा। जिस हड़बड़ी में सरकार ने राज्यसभा से ये विधेयक पारित कराया, उस पर भी प्रश्नचिह्न उठे थे। तब जो विरोध हुआ था, उसमें कुछ विपक्षी सांसदों को निलंबित भी कर दिया गया था। सांसदों को समझाने में भी नाकामी हासिल हुई।

सबसे बड़ी बात तो यह रही कि इस बिल को लेकर केंद्र सरकार ने किसानों के साथ समन्वय नहीं बनाया, संवाद कायम करने की बात तो भूल ही जाएं। हां लंबे समय से बीजेपी का सहयोगी रहा शिरोमणि अकाली दल विरोध स्वरूप सरकार व गठबंधन छोड़ गया। बीजेपी सरकार इस कानून को लेकर अपनी सहयोगी पार्टी को नहीं मना पाई। सरकार ने नाराजगी का कारण समझने की भी कोशिश नहीं की।

इस कानून को लेकर किसानों की बड़ी शिकायत है कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा, जबकि सरकार कह रही है कि मिलेगा, लेकिन उसने इसके लिए नए कानून में प्रावधान नहीं किए हैं। किसानों को लिखकर आश्वस्त नहीं किया गया है।

सरकार की इस बात पर बहुत सारे किसानों को यकीन है, लेकिन बहुत सारे किसान विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। वहीं कृषि के जानकारों का कहना है कि सरकार को गंभीरतापूर्वक किसानों को समझाना चाहिए था कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य जरूर मिलेगा। वे तो यहां तक आशंकित हैं कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर अनाज बेचना पड़ेगा।

किसानों की आशंका यूं ही नहीं है। देश में खेती-किसानी वैसे भी फायदे का सौदा कभी नहीं रहा है। किसानों की हमेशा से शिकायत रही है कि उनकों फसलों की उचित कीमत कभी नहीं मिलती है। सरकारों को उनकी समस्याओं से कभी लेना-देना नहीं रहा है।

किसान अपनी उपज काट तो लेता है, लेकिन न तो मंडियों तक पहुंचा पाता है और ना ही कोल्ड स्टोरेज तक। भारत के किसानों को  हर साल लगभग 63 हजार करोड़ रुपए का नुकसान इसलिए हो जाता है, क्योंकि वे अपनी उपज बेच ही नहीं पाते।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस राशि से लगभग 30 फीसदी अधिक खर्च करके सरकार किसानों को इस नुकसान से बचा सकती है, पर ऐसा होता दिख नहीं रहा।  किसानों को हर साल होने वाले नुकसान का खुलासा तीन साल पहले केंद्र सरकार द्वारा किसानों की आय दोगुना करने के लिए बनाई गई दलवाई कमेटी ने किया था।

दलवाई कमेटी के अनुसार फलों और सब्जियों के उत्पादन पर खर्च करने के बाद जब फसल को बेचने का समय आता है तो अलग-अलग कारणों के चलते यह फसल बर्बाद हो जाती है। इसके चलते किसानों को हर साल 63 हजार करोड़ रुपए का नुकसान होता है।

दिलचस्प बात यह है कि देश भर में कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर पर जितना खर्च किया जाना चाहिए, उसका 70 फीसदी नुकसान किसान को एक साल में हो जाता है। दरअसल फल और सब्जियों की बर्बादी का कारण कोल्ड चेन (शीत गृह) की संख्या में कमी, कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर, कोल्ड स्टोरेज की कम क्षमता, खेतों के निकट कोल्ड स्टोरेज का न होना है।

कमेटी के अनुसार किसानों को लगभग 34 फीसदी फल, 44.6 फीसदी सब्जी और 40 फीसदी सब्जी व फल दोनों का जितना आर्थिक लाभ मिलना चाहिए, उतना नहीं मिल पाता।

संसद में 23  सितंबर 2020 को दी गई जानकारी के अनुसार देश भर में कुल 8186 कोल्ड स्टोरेज हैं। इसकी क्षमता 374.25 लाख टन है। इसके बावजूद कोल्ड स्टोरेज तक किसानों की उपज नहीं पहुंच पाती और खराब हो जाती है।

दलवाई कमेटी का कहना था कि पेक हाउस, रिफर ट्रक, कोल्ड स्टोरी और कटाई केंद्रों के बीच एकीकरण न होने के कारण किसानों को नुकसान झेलना पड़ता है। कमेटी ने सरकार को सुझाया था कि 89,375 करोड़ रुपए का निवेश करके पूरा नेटवर्क तैयार किया जा सकता है, जिससे किसानों को हर साल होने वाले इस नुकसान से बचा जा सकता है।

मालूम हो कि देश में फलों और सब्जियों का उत्पादन, खाद्यान्न से आगे निकल गया है। सितंबर माह में कृषि मंत्रालय द्वारा जारी एक बयान में कहा गया था कि वर्ष 2019-20 के दौरान 320.48 मिलियन टन बागवानी फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन का अनुमान लगाया गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 3.13 फीसदी अधिक है।

वर्ष 2018-19 में देश में 310.74 मिलियन टन बागवानी फसलों का उत्पादन हुआ था। लेकिन इतना उत्पादन होने के बाद भी किसान को आर्थिक फायदा इसलिए नहीं मिल पाता, क्योंकि वे अपनी उपज बेच नहीं पाते और ना ही सुरक्षित रख पाते हैं।

अब सरकार तीनों नए कानून की वकालत करते हुए कह रही है कि यह ऐतिहासिक कानून है, इस कानून से किसानों को बिचौलियों से आजादी मिलेगी, आय दोगुनी हो जाएगी, तो सवाल वहीं कि किसान आखिर क्यों नहीं इस पर विश्वास कर रहे?

वजह साफ है, क्योंकि ऐसे वादे बहुत सरकारों ने किए, पर ऐसा कभी हुआ नहीं है। मोदी सरकार जो नया कानून लागू कर रही हैं, किसान समझते हैं कि इससे बड़ी कंपनियों को मदद मिलेगी। इनसे छोटे किसान कैसे लड़ पाएंगे? किसानों को इन बड़ी कंपनियों के सामने मजबूत करने के लिए सरकार ने क्या किया है? कौन से कानूनी प्रावधान किए हैं, ताकि किसानों की आय सुनिश्चित हो सके?

क्या किसानों को विवाद की स्थिति में वकील का खर्चा भी उठाना पड़ेगा? क्या हमारी सरकारों ने किसानों को इतना मजबूत कर दिया है कि वे बड़ी कंपनियों के हाथों शोषित होने से बच सकें? ऐसे बहुत सारे सवाल किसानों के दिमाग में हैं। वह डरे हुए हैं, जिस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए।

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