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‘एर्तुग़ुल गाज़ी’ की ख़ूब लड़ी वह मर्दानी, जिसने ‘मौत’ से पहले सबका दिल जीत लिया

कुछ वक़्त पहले की बात है। एकता कपूर के ड्रामे हमारे यहां हर घर में बहुत देखे जाते थे। फिर दोनों मुल्कों में तनातनी हुई और हमारे यहां तुर्की के ड्रामे दिखाए जाने लगे। वहां का एक ऐतिहासिक ड्रामा “कौसुम सुल्तान’ महीनों चलता रहा और हमारे यहां बहुत प्रसिद्ध भी हुआ।

आजकल एक और ड्रामा “एर्तुग़ुल गाज़ी’ चल रहा है। यह भी एक तारीख़ी ड्रामा है और मारधाड़ से भरपूर है। तलवारें चल रही हैं, घोड़े दौड़ रहे हैं, हसीनाएं अपने नाज़ोअंदाज़ दिखा रही हैं। कुछ हफ्तों पहले जब एर्तुग़ुल ड्रामे की जानबाज़ हीरोइन “आइकिज़ हातून’ ने टेलीविज़न स्क्रीन पर आख़िरी सांसे लीं तो देखने वाली हर एक आंख उसके लिए रो रही थी। आइकिज़ हातून को तुर्की में बहुत प्रसिद्धि मिली। फिर जब यह सीरियल उर्दू में डब हुआ तो यहां भी लोग उसके हुस्न, उसकी बहादुरी और जीदारी के बहुत दीवाने हो गए ।

“आइकिज़ हातून’ का अभिनय करने वाली तुर्कीश अदाकारा हांदे सुबासी को जब इंस्टाग्राम और यूट्यूब से पता चला कि पाकिस्तान में उसके चाहने वालों की तादाद लाखों तक पहुंच गई है तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। पाकिस्तान में लोग उसे क़बाइली लिबास में घोड़े पर सवार होकर मंगोल लड़ाकों से लड़ते देखते तो अपने घरों में तालियां बजाते। वे ढाबे जहां के मालिकों ने बड़े स्क्रीन के टेलीविज़न लगा लिए, वहां केवल इस ड्रामा की वजह से ही उनके कारोबार में दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी हुई।

एर्तुग़ुल की हीरोइन हांदे सुबासी से पाकिस्तान के कई सहाफियाें ने इंटरव्यू लिए। इनमें से अकसर ने यह सवाल पूछा कि जो ड्रामा सैकड़ों साल पुराने क़बाइली बैकग्राउण्ड में फिल्माया गया, उससे ख़ुद को जोड़ने में उन्हें क्या मुश्किलें पेश आईं। वह ये सवाल सुनकर बेसाख़्ता हंस पड़ती हैं।

उनका कहना है कि एर्तुग़ुल की कहानी हम अपने बचपन से सुनते आ रहे हैं। यह किरदार मेरे लिए अनजाना नहीं था, लेकिन एक जंगजू हीरोइन का किरदार निभाने के लिए मैंने महीनों घुड़सवारी सीखी। इसके अलावा तलवार चलाना, नेज़े से लड़ाई लड़ना और ऐसे तमाम काम मुझे सीखने पड़े।

वे जब यह बातें कर रही थीं, तो मुझे अल्तमश की बेटी रज़िया सुल्तान याद आईं जिनकी ज़िंदगी घोड़े की पीठ पर ही गुज़री। हमारी राजपूत रानियां और राजकुमारियां जिनके बारे में आम तौर पर यह समझा जाता है कि वो महलों में बहुत नाज़ नख़रों से पली होती हैं, लेकिन उन्होंने मैदाने जंग में कैसे कारनामे अंजाम दिए।

अभी ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजों से जंग लड़ी, बेहिसाब जख़्म खाए और अपने घोड़े की पीठ पर लड़ते हुए शहीद हुईं। इस वक़्त मुझे सुभद्रा कुमारी चौहान का लिखा गीत याद आ रहा है : ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी …

जीवट औरतें राजपूत हों या तुर्क क़बीलों से हों या पंजाब और सिंध की हों, उनका बहादुरी से अपने सम्मान और अपनी क़ौम के लिए जान हथेली पर रखकर लड़ना हम सबका दिल जीत लेता है। एर्तुग़ुल का ड्रामा अब ख़त्म हो चुका है, इसकी हीरोइन (ड्रामे में) अपनी जान दे चुकी है, लेकिन वो लोगों को बहुत दिन याद रहेगी। बिल्कुल उस तरह जैसे झांसी की रानी हमें याद रहती है।

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