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किसान आन्दोलन : बेचैन क्यों है गर्म कमरों में सोती सरकार

नई दिल्ली. दिल्ली बार्डर बंद है. सड़कों पर शामियाने लगे हैं. सड़कें हज़ारों किसानों की रिहाइश बन चुकी हैं. हाड़ कंपा देने वाली ठंड का दौर है. कोई नहीं चाहता कि खुले आसमान के नीचे किसान यूं ही पड़ा रहे. दिल्ली की छोटी सरकार भी दुखी है और बड़ी सरकार भी इसे लेकर परेशान है. सुप्रीम कोर्ट ने भी किसानों के मुद्दे पर सरकार से कुछ कहा है. दो दिन बाद सुप्रीम कोर्ट फिर कुछ कहेगी. सुप्रीम कोर्ट जो भी कहेगी उसी को आधार बनाकर सरकार किसानों के साथ 15 जनवरी को नवें दौर की बातचीत करेगी.

किसान और सरकार के बीच शह और मात का खेल चल रहा है. सरकार अपने वजीरों और प्यादों के बल पर किसानों को मात देना चाहती है और किसान अपने ऊंटों के बल पर ढाई घर वाली चाल चलकर लगातार राजा को मात देने की कोशिश में लगे हैं. राजा को मालूम है कि अगर उसे मात मिली तो फिर शतरंज की फड़ ही बेमानी हो जायेगी. किसानों को भी मालूम है कि इतनी घेराबंदी के बावजूद राजा को अगर मात नहीं दे पाए तो फिर निकट भविष्य में शतरंज की फड़ बिछाने का मौका ही नहीं मिलेगा.

सरकार और किसानों के बीच आठ दौर की बातचीत हो चुकी है. बातें सौहार्दपूर्ण माहौल में हुईं. बातचीत के बाद दोनों पक्ष इस सोच के साथ वापिस लौटे कि अगली बैठक में शायद कुछ हो जाए.

आठों दौर की बातचीत की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि सरकार इस स्टैंड पर कायम रही कि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिया जाएगा और किसान इस स्टैंड पर कायम रहे कि कानून वापसी के अलावा समझौता नहीं होगा. किसान अपने घर वापस नहीं लौटेगा. किसानों ने आठवीं बैठक में कहा कि जब ताल लॉ वापसी नहीं तब तक घर वापसी नहीं.

सरकार और किसानों दोनों की कोशिशें एकदम बराबर की हैं. किसान क़ानून वापसी के लिए हर जतन में जुटा है तो सरकार भी क़ानून वापस न लेने के लिए अपनी कोशिशों को धार देने में जुटी है.

जैसे-जैसे वक्त बीत रहा है सरकार का होमवर्क भी बढ़ता जा रहा है. सरकार जानती है कि देश का दबाव है. न्यायपालिका का दबाव है मगर सरकारी इंतजाम भी बड़े ही ठोस तरीके से चल रहे हैं. किसान आन्दोलन शुरू होने के बाद देश में तमाम नये किसान संगठन तैयार हो गए. इन नये संगठनों ने नये किसान कानूनों को किसान हित में बताते हुए इन्हें रद्द न किये जाने के लिए सरकार को चिट्ठी लिख दी.

नये संगठनों ने किसान आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए किसान बनाम किसान की जंग तो छेड़ दी मगर जल्दबाजी में वो अपने लेटर पैड और सोशल मीडिया एकाउंट से बीजेपी का चुनाव निशान भी हटाना भूल गए.

बीस संगठनों में से एक का 20 दिसम्बर को रजिस्ट्रेशन भी हो गया और रजिस्ट्रेशन के फ़ौरन बाद उसकी केन्द्रीय कृषि मंत्री से बात भी हो गई. बातचीत भी इतनी ठोस हुई कि किसानों के साथ आठवें दौर की बातचीत में सरकार को कहना पड़ा कि किसानों के दूसरे संगठन ही नहीं चाहते कि कृषि क़ानून रद्द हों. हम सिर्फ चार-पांच राज्यों के किसानों की मांग पर पूरे देश के किसानों की अनदेखी नहीं कर सकते.

अब आइये चलते हैं आठवें दौर की बातचीत की तरफ. किसानों ने बातचीत से एक दिन पहले विशाल ट्रैक्टर रैली निकाली और इसे 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली का ट्रेलर बताया. किसानों को लगा था कि ट्रैक्टर रैली से सरकार दबाव में होगी और इस बातचीत से कोई हल निकलेगा लेकिन उधर सरकार ने बीस किसान संगठनों का समर्थन लेने के बाद किसानों से तल्ख लहजे में बात करने का फैसला कर लिया था.

किसानों से मुलाक़ात के पहले कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को गृहमंत्री अमित शाह के आवास पर तलब किया गया. अमित शाह के आवास पर किसानों के सामने सरकार का स्टैंड रखने का फैसला किया गया.

विज्ञान भवन में सरकार और किसान आमने-सामने आये तो दोनों के स्टैंड स्पष्ट थे. एक क़ानून वापसी के लिए बज़िद था तो दूसरा क़ानून को बनाये रखने के लिए बज़िद. नतीजा जल्दी ही सामने आ गया. एक घंटे के भीतर दोनों के बीच मौन पसर गया. जहाँ सात दौर की सौहार्दपूर्ण बातचीत हुई थी वहीं सरकार विरोधी बैनर निकल आये. लंगर का खाना रखा रहा और दोनों पक्ष बगैर खाना खाए वापस लौट गए.

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि दिल्ली बार्डर पर इतनी बड़ी तादाद में किसान जमा हैं. ऐसे में सरकार ने क्या उपाय किये हैं कि वहां मरकज़ जैसे हालात नहीं बनने पायें. हालांकि यह बात समझ में नहीं आयी कि सुप्रीम कोर्ट को किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में मरकज़ की यद् क्यों आ गई.

दोनों संदर्भ अलग-अलग हैं और समय काल भी अलग-अलग हैं, लेकिन खैर सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीम बुद्धि को कौन चुनौती दे सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों को लेकर भी सरकार से कुछ सवाल पूछे हैं.

11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर अपना रुख सामने रखेगी. लगता है किन सरकार सुप्रीम कोर्ट की आड़ में कोई तीर चलाना चाहती है. और किसान भी अब बहुत ज्ञानी हो गए हैं. उन्होंने कह दिया है कि आन्दोलन खत्म करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय को वह नहीं मानेंगे क्योंकि इसके पूर्व सरकार किसानों के सन्दर्भ में लिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को धता बता रही है.

किसानों का कहना है कि गन्ना भुगतान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अगर 14 दिन के भीतर चीनी मिल भुगतान नहीं करेगी तो उन्हें बकाया राशि पर ब्याज देने होगा लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की नहीं मानी. इसलिए वे भी नहीं मानेंगे. इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट के सामने ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है.

जब सम्बंधित पक्ष पहले से ही सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को अपनी सुविधा के अनुसार मानने या न मानने की बात कह चुके हैं तो फिर वह आदेश क्यों कर दे और किसके लिए करे.

किसानों और सरकार के बीच बातचीत का हल निकले या न निकले लेकिन बातचीत का सिलसिला अभी जारी रहना है. 26 जनवरी तक कम से कम तीन-चार दौर की बातचीत हर हाल में होनी है क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि 26 जनवरी के दिन किसानों की ट्रैक्टर रैली की जिद भी बनी रहे.

किसान किसी भी सूरत में ट्रैक्टर रैली की जिद छोड़ दें. हो सकता है कि तब तक सरकार को समर्थन देने वाले किसानों के भी 40 संगठन तैयार हो जाएँ. उसके बाद सरकार की दो बैठकों का सिलसिला शुरू हो जाएगा. लड़ाई किसान बनाम सरकार नहीं किसान बनाम किसान बन सकती है.

किसान भी तैयार हैं 2024 तक लगातार आन्दोलन के लिए. चालीस दिन के आन्दोलन में किसानों के घरों के 60 चिराग गुल हो चुके हैं. ऐसे में बदले हुए मौसम में किसान गर्म कमरों में सोने वाली सरकार से कब तक मुकाबला कर पायेंगे इसका जवाब तो आने वाला वक्त ही देगा लेकिन हालात यह स्पष्ट कर चुके हैं कि बातचीत के लिए होने वाली यह बैठकें किसानों के हिस्से में सिवाय नयी तारीख के कोई और हल फिलहाल नहीं ढूंढ पाई हैं.

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