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खुलकर सामने आने लगा किसान आंदोलन के पीछे का सियासी चेहरा

नई दिल्ली। डेढ़ महीने से चल रहे किसान आंदोलन के पीछे का सियासी सच सामने आने लगा है। यही कारण है कि आंदोलन के बहाने विपक्ष अपनी राजनीति को धार देने में भले ही जुटा हो, लेकिन सरकार आश्वस्त है। पिछले दिनों जहां एक तरफ किसानों के बीच ही कुछ संगठनों की राजनीतिक पृष्ठभूमि सामने आ गई है, वहीं शुरुआती दिनों में छिपकर सक्रिय रहे राजनीतिक दलों की भूमिका भी सार्वजनिक होने लगी है।

कांग्रेस, वाम समेत कुछ दल इस आंदोलन के जरिये अपनी सियासी जमीन बनाने की कोशिश में जुटे हैं और देशव्यापी स्वरूप देने की योजना बना रहे हैं। ऐसे में सरकार अपने कदम पीछे खींचने के बजाय किसानों को समझाने और राजनीतिक दलों पर प्रहार करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

मुख्यत: पंजाब और हरियाणा तक सीमित किसान आंदोलन को लेकर सरकार पूरी संवेदनशीलता से आगे बढ़ रही है। बार-बार हर उस मुद्दे को सुलझाने का वादा किया जा रहा है जिससे किसान आशंकित हो सकते हैं। लेकिन किसानों की ओर से सीधे तौर पर तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की जिद जारी है।

बात यहीं खत्म नहीं हो रही है। आंदोलन स्थलों पर भाजपा को वोट न देने की शपथ दिलाने, 2024 तक आंदोलन जारी रखने, किसी भी तरह हरियाणा में भाजपा सरकार गिराने जैसी बातें होने लगी हैं, जिससे इसका राजनीतिक चेहरा पूरी तरह साफ होने लगा है। लगभग ऐसी ही बातें सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के खिलाफ आंदोलन के वक्त भी की जा रही थीं।

पिछले दिनों यह भी सामने आ गया कि किसान नेता राकेश टिकैत और भाकियू मान ने शुरुआत में इस कानून का समर्थन किया था और फिर अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए पलट गए। वहीं सोनिया गांधी, राहुल गांधी ने खुलकर कांट्रैक्ट फार्मिंग की पैरवी की थी। अब उसी का विरोध किया जा रहा है।

सरकार का नैतिक बल इस बात से और बढ़ गया है कि किसान संगठन न तो मध्यस्थता की बात मान रहे हैं और न ही कोर्ट के फैसले को लेकर सकारात्मक हैं। कोर्ट ने कमेटी बनाने की बात कही थी, लेकिन किसान संगठनों का रुख उल्टा है। जाहिर है कि यह बात आम जनता को भी नहीं पच रही है कि क्या कुछ लोग एकत्र होकर संसद के फैसले को इस तरह चुनौती दे सकते हैं।

चुनौती देने का तरीका क्या कोर्ट से बाहर हो सकता है। किसान आंदोलन के बीच ही कई राज्यों में जनता ने भाजपा को ही सबसे ज्यादा वोट दिया है। यानी यह साबित हो चुका है कि आंदोलन पंजाब तक सीमित है। लिहाजा सरकार कृषि कानून के मुद्दे पर झुकने के बजाय राजनीतिक दलों पर सीधा प्रहार करेगी।

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