क्या योगी, शाह और खट्टर के राजनीतिक स्टाइल से प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर पड़ेगा असर?

लखनऊ। दांतों के नीचे सत्ता की लगाम भींचकर रखने से लोकतंत्र नहीं चलता। राजनीति के विज्ञानी इसे ही तानाशाही की संज्ञा देते हैं। यह सोच देश के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम पर सटीक बैठ रही है। संघ और भाजपा के नेताओं के बीच में दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों से निपटने का कौशल लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है।

सत्ता के गलियारे के सूत्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री के दावेदारों में से एक बड़े नेता का चेहरा चर्चा के दौरान जहां अजीब सी खामोशी ओढ़ लेता है, वहीं सरकार की अजीब सी ढिठाई पर नासमझी जैसी हंसी तैर जाती है। बताते हैं इन्ही में से किसी एक बड़े नेता ने 28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर पर घटनाक्रम को लेकर एक फोरम पर अपनी चिंता भी जाहिर की। दावा करने वाले यहां तक कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल के बाद ही दिल्ली पुलिस और सरकार के आला अधिकारियों को कदम पीछे खींचना पड़ा।

29 जनवरी की सुबह संघ से जुड़े एक प्रचारक ने भी फोन पर माना कि बहुत कुछ अप्रत्याशित हो रहा है। यह प्रधानमंत्री की बनी छवि, अन्नदाता किसान जैसी संवेदनशीलता के साथ मजाक हो रहा है। नहीं होना चाहिए, लेकिन वह खुलकर कुछ नहीं कह सकते। राजनाथ सिंह की सरकार में उत्तर प्रदेश के कबीना मंत्री रहे एक नेता को भी ऑन रिकार्ड कुछ भी कह पाने में तकलीफ हो रही है।

ऑफ द रिकार्ड वह कहते हैं, उन्हें लग रहा है कि जिस धारा, सोच, सामाजिक ताने-बाने के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की राजनीति को दिशा दी है, गाड़ी उस पटरी से दूसरी सड़क पर जा रही है। 90 के दशक में बड़े विचारक कहे जाने वाले संघ से जुड़े सूत्र का भी कुछ ऐसा ही मानना है। हालांकि उनका यह भी कहना है कि यह समय बोलने का नहीं, चुप रहने का है। इसलिए वह कुछ नहीं कहना चाहेंगे।

शाह, योगी और खट्टर स्टाइल तो अब ठीक नहीं
कई नेताओं, विचारकों, संघ, भाजपा से जुड़े लोगों से बातचीत के बाद एक बात निकलकर आई कि अब किसान के साथ सख्ती, दमनकारी नीति का रास्ता ठीक नहीं है। गलत संदेश जा रहा है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चलकर किसान दिल्ली बॉर्डर पर बैठ गए, दस दौर की वार्ता भी हो गई और उसके बाद अब संवेदनशीलता से काम लेने की जरूरत है।

प्रयागराज के एक नेता को भी लग रहा है कि 28 जनवरी को अचानक सभी जिलों में संदेश भेजना, 27 जनवरी से मेरठ, बागपत, सहारनपुर में बैठे किसानों को रात में पुलिस कार्रवाई करके हटाना, 28 जनवरी को दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर पुलिस व्यवस्था की किलेबंदी का संदेश सही नहीं जाएगा।

कई नेताओं का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल में केन्द्र सरकार ने किसानों को अन्नदाता का सम्मान दिया। पूरी संवेदनशीलता के साथ दूसरे कार्यकाल में भी किसानों, खेती और खलिहानी का आदर हुआ। सरकार ने कई अच्छे प्रयास भी किए हैं, लेकिन इसे एक झटके में पुलिस बल के सहारे गाजीपुर बॉर्डर पर कदमताल कराकर धूमिल कर देना ठीक नहीं होगा।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के एक पुराने अवकाश प्राप्त सचिव हैं। उन्हें भी लग रहा है कि पिछले दो महीने से सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उन्हें यह भी लग रहा है कि जब सरकार और सत्ता की पूरी शक्ति केन्द्रित हो जाती है तो नौकरशाह, पुलिस के अफसर और लोग बिना पूछे अगला कदम नहीं उठाते। ऐसे समय में गड़बडी होने की संभावना बढ़ने लगती है। उन्हें महसूस हो रहा है कि दिल्ली में गणतंत्र दिवस के दिन और उससे पहले कुछ इसी तरह की स्थितियां पैदा हुई होंगी। लेकिन वह भी ऑन रिकार्ड कुछ नहीं कहना चाहते।

सोशल मीडिया के संदेश भी निभा रहे हैं भूमिका
पूरा सोशल मीडिया 26 जनवरी को लाल किला पर हुई घटना, हिंसक वारदात के बाद दो धड़े में बंट गया है। दिलचस्प है कि दोनों धड़े लाल किला की घटना और हिंसक व्यवहार की कड़ी निंदा, भर्त्सना, लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला बता रहे हैं। इसमें एक धड़ा इसके जिम्मेदार दीप सिद्धू, लक्खा सिधानी जैसे दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहा है।

वह इन्हें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, भाजपा सांसद सनी देओल की तस्वीर से जोड़कर इसे सरकार के ऑपरेशन से जुड़ा षडयंत्रकारी प्लान बता रहा है। किसान संगठनों ने भी इसी तथ्य को आगे रखकर दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की मांग की है। आईटी सेल से जुड़े लोग बताते हैं कि इस तरह के तथ्य तेजी से सोशल मीडिया में अपनी जगह बना रहे हैं। इससे संभव है कि सरकार की परेशानी बढ़ रही हो।

इसके सामानांतर दूसरा धड़ा दीप सिद्धू, लक्खा सिधानी पर चर्चा न करने, इसे विपक्षी दलों की राजनीतिक साजिश जैसी दलीलें में जुटा है। इसके साथ-साथ वह किसान आंदोलन, किसानों की मांग को अब नाजायज मानते हुए इसे पुलिस, प्रशासन के सहयोग से हटाने का तर्क दे रहा है। परेशानी तब और बढ़ जाती है, जब मीडिया से जुड़े तमाम लोग 26 जनवरी से 28 जनवरी की घटना को हिन्दी का मुहावरा ‘सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी’ (यानी सरकार ने कराया) से जोड़ ले रहे हैं।

अमित शाह की छवि पर भी असर
बिहार से भाजपा से जुड़े नेता हैं राजेश सिंह। फेसबुक पर 26 जनवरी की घटना के बाद पोस्ट डालते हैं कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहे हैं। अकेले राजेश सिंह इस तरह की पोस्ट डालने वाले नहीं हैं। यह चिंता तमाम पार्टी के नेताओं और कॉडर से जुड़े लोगों की है।

2014 से 2019 तक एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री द्वारा केन्द्र सरकार में सलाहकार नियुक्त किए गए सूत्र का भी कहना है कि सुरक्षा की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार, दिल्ली पुलिस और सुरक्षा बलों की है। गणतंत्र दिवस पर सरकार की व्यवस्था अपना काम नहीं कर पाई, तो इसका बहाना लेकर किसान नेताओं, संगठनों, किसानों के साथ दमनकारी नीति कोई उपाय नहीं है। लेकिन वह भी चुप रहना चाहते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के दखल से रुका सरकार का एक्शन
सही क्या है? यह प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से अच्छा कोई नहीं जानता, लेकिन संघ और भाजपा के कई नेता मानते हैं कि प्रधानमंत्री ने पूरे मसले को बहुत संवेदनशीलता से लिया। उन्हें जो उचित लगा, अच्छे नेता के तौर पर उन्होंने निर्णय लिया और 28 जनवरी की रात को पुलिस को कार्रवाई से कदम पीछे खीचना पड़ा।

कुछ लोग इसके लिए विपक्षी दलों के नेताओं की राजनीति को भी कारक मानते हैं। उनका कहना है कि विपक्ष की झूठ फैलाने की नीति के आगे सरकार को नरम रुख अपनाना पड़ा।

भाजपा के एक बड़े नेता ने बताया कि राजदीप सरदेसाई जैसे बड़े पत्रकार भी फर्जी खबर फैलाने में लग गए थे। उन्होंने तो ट्वीट करके आईटीओ पर गोली चलने और उसमें एक किसान के मारे जाने की खबर फैला दी थी। दिल्ली पुलिस को इसकी सच्चाई सामने लानी पड़ी। सूत्र का कहना है कि विपक्ष राजनीतिक लाभ के लिए केन्द्र सरकार को किसान विरोधी बनाने में जुटा है। जबकि भाजपा और उनकी राज्य सरकारें किसान हितैषी हैं। किसानों के साथ और उनके भले के लिए काम कर रही हैं।

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