लेखकः हिदायत अहमद खान
राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं ने एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का जो जिम्मा ले रखा है उसमें उनकी वाणी अपशब्द बोलने वाली तमाम सीमाओं को भी लांघती नजर आई हैं। ऐसे में कहना पड़ता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष ने राजनीति के गिरते स्तर की पराकाष्ठा को भी और नीचे गिरा दिया है। अब तो व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही साथ सीधे सीधे जुबानी हमले किए जा रहे हैं। एक दूसरे की मॉं-बहनों के उदाहरणों को गलत ढंग से चुनावी भाषणों में पिरोया जा रहा है। मामले भले ही अदालत में विचाराधीन हों, लेकिन उनका बेजा इस्तेमाल चुनावी सभाओं में किया जा रहा है। मानों राजनीति के इस हमाम में पहले से नंगे तमाम नेता अब समाज को भी नंगा करने के लिए कृतसंकल्पित हो गए हैं।
इसलिए अब वो एक-दूसरे के परिजनों से लेकर पुरखों तक को घसीटने में लगे हुए हैं। जबकि इस तरह के मामले उछालने वाले बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि इससे देश का भला होने वाला नहीं है और न ही आम जनता को इससे कोई लेना-देना है। दरअसल इन मुद्दों के जरिए वो भुलाना चाहते हैं कि आज भी देश की 70 फीसद आबादी ग्रामीण अंचलों में रहती है और खेती-किसानी पर डिपेंड है। विकास की बात तो दूर की इन्हें आज भी मूल-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काफी मशक्कत करनी होती है। इनकी भलाई की बातें करती हुई राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आती हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है, जिस कारण कहना पड़ता है कि विकास के बावजूद वर्तमान समय में सबसे ज्यादा यदि कोई पीड़ित और परेशान नजर आता है तो वो देश का गरीब किसान और मजदूर वर्ग ही है।
इस वर्ग को इन नेताओं के बड़े-बड़े खुलासों और विवादित बयानों से कुछ लेना-देना नहीं होता है। उन्हें तो इस बात की चिंता सदा सताती रहती है कि यदि फसल सही नहीं हुई, समय पर बीज नहीं बोवने को मिला या समय पर सिंचाई नहीं हुई तो फिर उनका क्या होगा, क्योंकि बिना अच्छी फसल के तो वो और गरीब हो जाएंगे, जिसकी मार पूरे परिवार और उनके आश्रितों को झेलनी होगी। यहां यह भी नहीं भुलाया जा सकता है कि देश में जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ी है उतनी ही तेजी से उपजाऊ जमीन बंटी है प्रतिव्यक्ति क्षेत्रफल घटता चला गया है। दरअसल अर्थशास्तीय विश्लेषण तो यही कहता है कि जीवन-यापन के साधन तो धनात्मक तौर पर ही बढ़ते हैं, जबकि जनसंख्या का ग्राफ गुणात्मक तौर पर बढ़ता है, जिस कारण तमाम तरह की समस्याएं उत्पन्न होती चली जाती हैं।
इस समय देश में बेरोजगारी के साथ ही साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बढ़ती जनसंख्या सबसे बड़ी समस्या के तौर पर सामने है। इस पर विचार करने की बजाय राजनीतिक लोग संपूर्ण देश को धर्म और आस्था के नाम पर भ्रमित करने में लगे हुए हैं। उनके पास देश को आत्मनिर्भर बनाने और गरीब किसान के साथ ही साथ युवाओं को बेहतर कल देने का कोई एजेंडा नहीं है, इसलिए जब वो धर्म और जाति की आपस में फूट डालने जैसी बातों से बाहर निकलते हैं तो सीधे पहुंच जाते हैं समाज के किस वर्ग को क्या मुफ्त दिया जा रहा है या दिया जा सकता है, इसकी चर्चा करने। इस बात के उदारहण वर्तमान में देखने और सुनने को खूब मिल रहे हैं। दरअसल देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव की आहट के बीच राजनीतिक तौर पर जिस रास्ते को अपनाया गया है वह न तो हमारे लोकतंत्र की मान-मर्यादा और परंपराओं के अनुरुप है और न ही सत्ता प्राप्ति के लिए उसे जरुरी करार दिया जा सकता है।
इससे तो यही मालूम चलता है कि सत्ता हासिल करने के लिए जो मुंह में आए बोलते चले जाइये और जब जुबान पकड़ ली जाए तो ऐसा नहीं कहा था, यह कहने का मकसद नहीं था, बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है जैसे रटे-रटाए वाक्य दोहराते हुए यदि तब भी बात नहीं बने तो शब्द वापस लेने और खेद जताने वाली जुबानी जमाखर्च को आगे कर दीजिए। पहले कहा जाता था कि विपक्ष में रहते राजनीतिक पार्टियां या उसके नेता सत्ता धारी दल के बारे में कुछ भी उल्टा-सीधा बोल देते थे, लेकिन सत्ता में रहते हुए एक जिम्मेदारी का एहसास होता था इसलिए वो शांत रहते हुए ऐसा कुछ बोलने से गुरेज करते थे ताकि उनकी जुबान पकड़ी ना जाए और वो जनता के बीच में शर्मिंदगी महसूस न करें, लेकिन अब यह शर्मों-हया सत्ता पक्ष ने भी त्याग दिया है और वो भी विपक्षी विरोधियों की भाषा में ही बात करता दिख रहा है।
इस बात को भाजपा के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने खूब ही अच्छी तरह से समझा था और उन्होंने खुद भी कहा था कि सत्तारुढ़ सरकार और उसके दल के बारे में विपक्ष में रहते हुए बहुत कुछ उल्टा-सीधा बोलना पड़ता था, लेकिन सत्ता में आने पर असलियत अजागर होती है और जिम्मेदारियों का पता चलता है। इसलिए कहा जाता है कि चुनाव मैदान में उतरने पर भी वही जिम्मेदारी का बोध इन तमाम राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं को होना चाहिए, ताकि सरकार में आने के बाद यह न कहना पड़े कि उनके वादे और नारे तो मात्र चुनावी जुमले थे, जिन्हें लोगों को अपने पक्ष में करने और चुनाव जीतने की रणनीति के तहत यूं ही हवा में उछाला गया था।
अब बताएं कि ऐसे लोगों की अच्छी और सच्ची बात पर भी आखिरकार कोई क्योंकर यकीन करेगा, क्योंकि अधिकांश लोगों ने तो उस बच्चे की कहानी सुन और पढ़ ही रखी है कि ‘शेर आया शेर आया’ का झूठ प्रचार करना तब काम नहीं आया जबकि सच में शेर उस बच्चे के सामने आ गया।’ अंतत: कहना पड़ता है कि राजनीति के तमाम जिम्मेदारों को चाहिए कि वो गलत बयानी और झूठ प्रचारित करने के साथ ही साथ समाज में भ्रम फैलाने जैसे कामों को जितनी जल्दी हो बंद कर दें, अन्यथा यदि देर हो गई तो यही जनता जिसे आपने धर्म और जाति के नाम पर बिघटित करने का बहुतायत में काम कर रखा है वही आपसे विकास का हिसाब मांगते हुए कहीं का नहीं छोड़ेगी।
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