हमारे सामने केवल मानवता हाथ जोड़े खड़ी है…निरीह-असहाय
बालेन्दु द्विवेदी
कोरोना की भयावहता को स्वीकार करना इतना आसान नहीं है।
सरकारें आती-जाती रहती हैं। सरकारें आती-जाती रहेंगी। लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि सरकारें आती जाती रहें। लेकिन जब समूची जनता एक स्वर में कराह रही हो तो उसके आंसुओं को लेकर इस कदर लापरवाह हो आपको कतई शोभा नहीं देता।
सम्भव है इस विपरीत परिस्थिति का लाभ आपके तमाम विरोधी और राजनीतिक दल ले रहे हों। उनका यह काम है।उनका यह पेशा है। आप भी यही करते आए हैं। आप भी उनकी जगह होते तो शायद यही कर रहे होते। लेकिन केवल इसके डर से आपका अपराध छिप नहीं सकता। क्या आपको मौतें नहीं दिख रही? क्या आपको कोराेना की विनाशलीला नहीं दिख रही? क्या आपको बिना इलाज़ के तड़पते हुए मरीज़ नहीं दिख रहे? या आपको अपनों के बिछड़ने का गम नहीं सता रहा?
यहां राजनीति कहां से आ गई? यहां तो केवल मानव संवेदना की बात हो रही है। राजनीति को इस समय बिल्कुल दरकिनार ही कर दीजिये। किसको कौन बदनाम करने की कोशिश कर रहा है? किससे सत्ता हथियाने की कोशिश कर रहा है? किसकी सख्ती का विरोध हो रहा है? कौन आयेगा-कौन जायेगा- किसको आना चाहिये-किसको टिकना चाहिये? ये सारी बातें बहुत गौण हैं आज के इस माहौल में।
आज हमारे सामने केवल मनुष्य खड़ा है। सारी मानवता हाथ जोड़े खड़ी है…निरीह-असहाय। राजनीतिक निहितार्थ हम बाद में भी निकाल लेंगे। केवल एक चीज़ ईमानदारी से स्वीकार करिये कि चूक हुई। रणनीतिक तौर पर जो तैयारियां होनी चाहिए थीं, वे नहीं की गई और कोरोना पर विजय के जश्न में सब कुछ ताक पर रख दिया गया। सोचा गया कोरोना से बाद में निबट लेंगे, पहले संपूर्ण भारत विजित कर लें।
इससे शर्मनाक बात क्या होगी कि मौतों के इस तांडव में आप अपने नागरिकों की सही-सही गिनती भी न कर सके..! एक आम नागरिक के लिए इससे पीड़ादायक बात क्या होगी कि वह इस कठिन समय में भी सरकारी आंकड़ों से बाहर कर दिया जाय, जबकि वह सालों-साल आपकी नजर में केवल आंकड़ा भर होकर रह गया था।
कभी जातिगत आंकड़ा,कभी संप्रदायगत आंकड़ा और कभी जनान्नकीकीय आंकड़ा-हर बार मतदाताओं की भीड़ में शामिल होता हुआ। उसमें शामिल होकर अपने होने पर अट्टहास करता हुआ..! आज उसी आंकड़े का अधिसंख्य जब चुपचाप अपनी मौत मर रहा है तो उसे बड़ी चालाकी से उसके आंकड़े के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। केवल इसलिये कि इससे आपकी छवि को बट्टा लगेगा। विपक्षी आपका मखौल उड़ाएंगे] अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपकी बदनामी होगी। ऐसी उम्मीद तो नहीं थी आपसे..!
इसलिए जनाब..! आप हमें इलाज नहीं दे पाए तो क्या.! कम-से-कम हमारी मौत को स्वीकार तो करना सीखिए। उसे हर बार की तरह अपने आंकड़ों में शामिल कीजिए। मरने वाला चाहें कोरोना से मरा हों, चाहें ऑक्सिजन न मिल पाने के कारण या फिर आईसीयू में बेड की अनुपलब्धता से..! उसे एक नागरिक की हैसियत से उसके होने का अधिकार तो न छीनिए।
उसका यह न होना, उसके होने से निर्धारित हुआ है। इसे आप कैसे खारिज कर सकते हैं? विश्वास मानिए..! अगर आप ऐसा कर सके तो आपकी इस कोशिश से कम से कम मृतक की आत्मा को शांति मिलेगी। अगर आपको आत्मा- परमात्मा के इस खोखले विचार में विश्वास न हो तो न सही, इससे मृतक के परिवार के लोगों को सांत्वना जरूर मिलेगी और यकीन मानिए आपका भी अपराधबोध कम होगा।
यह भी सम्भव है कि आने वाले समय में आप अपने तमाम हथकंडों से इस डैमेज को कण्ट्रोल भी कर लें। यह भी सम्भव है कि आने वाले समय में जनता-जनार्दन आपको माफ भी कर दे, या यह भी कि इस घटना को एक विश्वव्यापी महामारी का हिस्सा मानकर इसे भुला भी दे।
लेकिन एक आम नागरिक की हैसियत से जनता के बीच से ही चुनकर जाने के बाद, अब तक उसी जनता के दुख-दर्द का कोई अनुभव आपको नही हो पा रहा तो यक़ीन मानिये आपको किसी योग्य मनोचिकित्सक की सख्त ज़रूरत है जो आपकी संवेदना की सतह पर पड़े तमाम पूर्वाग्रहरूपी धूल की मोटी परत को साफ कर सके। आपके भीतर के इन्सान को जगा सके या जगाने की कोशिश कर सके।