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आज ही के दिन तिब्बत पर चीन का कब्जा हुआ, 8 साल बाद भारत आए दलाई लामा

नई दिल्ली। 23 मई, 1951। तिब्बती लोग इस दिन को काला दिन मानते हैं, वहीं चीनी लोग इसे शांति के प्रयासों वाला दिन बताते हैं। इसी दिन तिब्बत ने चीन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के साथ ही तिब्बत पर चीन का कब्जा हो गया।

दरअसल चीन और तिब्बत के बीच विवाद बरसों पुराना है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी में चीन का हिस्सा रहा है इसलिए तिब्बत पर उसका हक है। तिब्बत चीन के इस दावे को खारिज करता है। 1912 में तिब्बत के 13वें धर्मगुरु दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उस समय चीन ने कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन करीब 40 सालों बाद चीन में कम्युनिस्ट सरकार आ गई। इस सरकार की विस्तारवादी नीतियों के चलते 1950 में चीन ने हजारों सैनिकों के साथ तिब्बत पर हमला कर दिया। करीब 8 महीनों तक तिब्बत पर चीन का कब्जा चलता रहा।

आखिरकार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया। हालांकि दलाई लामा इस संधि को नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि ये संधि जबरदस्ती दबाव बनाकर करवाई गई थी।

दलाई लामा को बंधक बनाने की खबरों के बाद हजारों की संख्या में तिब्बती लोग दलाई लामा के महल के आसपास इकट्ठा हो गए थे।

संधि के बाद भी चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों से बाज नहीं आया और तिब्बत पर उसका कब्जा जारी रहा। इस दौरान तिब्बती लोगों में चीन के खिलाफ गुस्सा बढ़ने लगा। 1955 के बाद पूरे तिब्बत में चीन के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होने लगे। इसी दौरान पहला विद्रोह हुआ जिसमें हजारों लोगों की जान गई।

मार्च 1959 में खबर फैली कि चीन दलाई लामा को बंधक बनाने वाला है। इसके बाद हजारों की संख्या में लोग दलाई लामा के महल के बाहर जमा हो गए। आखिरकार एक सैनिक के वेश में दलाई लामा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से भागकर भारत पहुंचे। भारत सरकार ने उन्हें शरण दी। चीन को ये बात पसंद नहीं आई। कहा जाता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी वजह ये भी था। दलाई लामा आज भी भारत में रहते हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है।

तिब्बत की इस निर्वासित सरकार का चुनाव भी होता है। इस चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी वोटिंग करते हैं। वोट डालने के लिए शरणार्थी तिब्बतियों को रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। चुनाव के दौरान तिब्बती लोग अपने राष्ट्रपति को चुनते हैं जिन्हें ‘सिकयोंग’ कहा जाता है। भारत की ही तरह वहां की संसद का कार्यकाल भी 5 सालों का होता है। तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है।

चुनाव में वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ उन तिब्बतियों को होता है जिनके पास ‘सेंट्रल टिब्बेटन एडमिनिस्ट्रेशन’ द्वारा जारी की गई ‘ग्रीन बुक’ होती है। ये बुक एक पहचान पत्र का काम करती है। हाल ही में हुए चुनावों में पेंपा सेरिंग निर्वासित तिब्बती सरकार के नए राष्ट्रपति बने हैं।

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