सिद्धार्थनगर : ‘बुद्ध’ के प्रसाद ‘काला नमक’ से महक रहा पूर्वांचल

गोरखपुर। भगवान बुद्ध की धरती सिद्धार्थनगर में धान की खेती का इतिहास बहुत पुराना है। पुरातात्विक खुदाइयों में मिले साक्ष्यों के आधार पर इसी क्षेत्र से पहली बार होने वाली धान की खेती के प्रमाण भी हैं। इन प्रजातियों में काला नमक भी है। इस धान से बने चावल का इतिहास भी ईसा से 600 वर्ष पूर्व का है। माना जाता है कि यह भगवान बुद्ध का प्रसाद है।
पिछली सरकारों में इस प्रजाति के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद कालानमक धान की उत्पादकता, सुगंध और स्वाद के साथ खेती के क्षेत्रफल का दायरा बढ़ा। जीआई टैग, ओडीओपी बनने और कालानमक महोत्सव से इसके प्रचार-प्रसार में काफी सहयोग मिला। कालानमक चावल की कई प्रजातियां विकसित करने वाले कृषि वैज्ञानिक डॉ रामचेत चौधरी ने खुलकर इस पर बातचीत की।
चार साल पहले तक होती थी सिर्फ 10 हजार हेक्टेयर खेती
चार साल पहले तक दस हजार हेक्टेयर के रकबे तक सिमट गए बौद्धकालीन काला नमक धान की खेती इस साल पहले से अधिक क्षेत्रफल में होने का अनुमान है। लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई स्वाद, खुश्बू और पौष्टिकता में धान की इस बेजोड़ प्रजाति को योगी सरकार के चार साल में प्रोत्साहन की संजीवनी मिल गई है। ओडीओपी, जीआई टैग व कालानमक महोत्सव से इसकी ब्रांडिंग कर सरकार ने उत्पादन और मार्केटिंग का दायरा बढ़ा दिया है।
50 हजार हेक्टेयर में खेती का अनुमान
बस्ती, गोरखपुर और देवीपाटन मंडल के 11 जिलों में इस वर्ष 50 हजार हेक्टेयर से अधिक रकबे में कालानमक धान की खेती का अनुमान है। पिछले सीजन में यह 40 हजार हेक्टेयर से अधिक थी। पार्टिसिपेटरी रूरल डेवलपमेंट फाउंडेशन के पास दिन में हर दस से पन्द्रह मिनट में एक फोन काला नमक धान के बीज के लिए आता है।
पूर्वी यूपी के तीन मंडलों में बढ़ने लगी खेती
एक समय तक कालानमक धान के मूल स्थान वाले जिले सिद्धार्थनगर के किसान भी घाटे का सौदा मान इसकी खेती से दूर होने लगे थे। ओडीओपी में शामिल किए जाने और गोरखपुर, बस्ती व देवीपाटन मंडल के 11 जिलों गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज, बस्ती, सिद्धार्थनगर, संतकबीरनगर, बलरामपुर, गोंडा, बहराइच व श्रावस्तीके लिए जीआई टैग मिला। फिर, सभी जिलों में कालानमक की खेती का रकबा बढ़ने लगा है।
कहते हैं कृषि वैज्ञानिक
कालानमक चावल की कई प्रजातियां विकसित करने वाले कृषि वैज्ञानिक डॉ. रामचेत चौधरी बताते हैं कि अनुसंधान न होने से इस चावल की उत्पादकता, स्वाद और सुगंध कम होने लगी थी। इसकी परंपरागत खेती करने वाले किसान भी मुंह मोड़ने लगे थे। इनका कहना है कि किसी भी फसल की अच्छी उत्पादकता के लिए टेक्नोलॉजी जेनरेशन, यूटिलाइजेशन व पॉपुलराइजेशन यानी नई प्रौद्योगिकी का विकास, उसका प्रयोग और जनता के बीच उसका प्रचार-प्रसार बहुत जरूरी है। इन तीनों कामों में खासी तेजी आई है। अब सिद्धार्थनगर से पूर्वी उत्तर प्रदेश होते हुए इसका दायरा समूचे प्रदेश में बढ़ रहा है।
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