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डंके की चोट पर : हुकूमत क्या सिर्फ तमाशा देखने के लिए है

शबाहत हुसैन विजेता

घंटाघर पर एनआरसी के खिलाफ आन्दोलन चल रहा था. बड़ी तादाद में औरतें दिन रात हुकूमत के इस फैसले के खिलाफ आवाज़ बलंद कर रही थीं. हुकूमत की आँखों में यह आन्दोलन किरकिरी सा चुभ रहा था इसलिए पुलिस भी इसे कुचल डालने पर अमादा थी. सरकार की चमचागीरी में सिपाही से लेकर एसपी तक रात-दिन एक किये थे. सिपाही औरतों पर लाठीचार्ज कर रहे थे, दरोगा तेज़ सर्दी के मौसम में औरतों से कम्बल छीनकर ले जा रहे थे और पुलिस के बड़े अफसरान औरतों से इस अंदाज़ में बात कर रहे थे जैसे कि वह किसी औरत से नहीं किसी और शय से पैदा होकर ज़मीन पर खड़े हो गए हैं.

यह बात मुझे लिखते हुए शर्म आती है मगर उसे बोलते हुए नहीं आयी थी. वह आईपीएस अफसर था. अपने बच्चे को गोद में लिए पूरे जोश के साथ नारे लगा रही बुर्का ओढ़े औरत से लखनऊ के एसपी सिटी ने कहा कि अपनी औकात में रहो वर्ना यह बच्चा जहाँ से निकला है इसे वहीं घुसेड़ दूंगा.

एसपी सिटी की यह बेहूदी बात औरतों को बड़ी नागवार गुज़री थी लेकिन कहने वाला क्योंकि आईपीएस अफसर था इसलिए कोई उसका कुछ नहीं कर पाया था. हुकूमत यही चाहती थी कि आन्दोलन कुचल दिया जाये, इसलिए जो हो रहा था वह पूरी तरह से सही था. यह बेहूदी बात क्योंकि बुर्का ओढ़े औरत से कही गई थी इसलिए बहुत ज्यादा बवाल भी नहीं हुआ.

कुर्सी के लालच में सियासत ने इंसानों को मजहबों में बाँट रखा है. एक मज़हब पर हथौड़ा चलता है तो दूसरा मज़हब तमाशा देखता है. सियासत भी आराम से किसी एक मज़हब का शिकार कर अपना काम निकाल लेती है. हकीकत यह है कि दुनिया बनाने वाले ने सिर्फ दो मज़हब बनाए एक मर्द और दूसरा औरत.

बाकी जो है वह इंसानों का बनाया हुआ है और उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन सियासत के नाम पर मज़हब का जो खेल खेला जाता है उसका नुक्सान सबको होता है. इन्सान मज़हब के नाम पर बंटा रहता है और वह यह समझता है कि जिस पर लाठी-गोली चल रही है वह तो हमारे मज़हब का है ही नहीं.

 

सियासी बिसात पर चल रहे खेल का नतीजा नज़र आने लगा है. ब्लाक प्रमुख चुनाव के दौरान बीच सड़क पर औरत की साड़ी उतार दी गई. हुकूमत भी तमाशा देख रही है और पुलिस भी. इटावा में एसपी के मुंह पर बीजेपी नेता ने तमाचा जड़ दिया और आईपीएस एसोसियेशन भी तमाशा देख रही है और सिपाही से लेकर दरोगा तक सब खामोश हैं.

पत्रकार को सीडीओ और बीजेपी विधायक दोनों दौड़ा-दौड़ा कर पीट रहे हैं और बाकी सियासी पार्टियाँ भी खामोश हैं और पत्रकार संगठनों के मुंह में भी दही जमा है. हुकूमत ने सख्ती बरतने की बात कहकर सबको खामोश कर दिया है.

लखनऊ में बीएसपी के पूर्व सांसद दाउद अहमद का सौ करोड़ रुपये से बना अपार्टमेन्ट दिन दहाड़े ढहा दिया गया. इल्जाम यह है कि रेजीडेंसी के पास बनाया गया था. पुरातत्व विभाग ने लगातार विरोध किया था. लेकिन दाउद क्योंकि बाहुबली हैं इसलिए न पुलिस ने कुछ किया न प्रशासन ने.

मजेदार बात यह है कि जो पुरातत्व विभाग नींव खुदने से लेकर छह मंजिला अपार्टमेन्ट बनने तक पुलिस और प्रशासन को लगातार चिट्ठियां भेजता रहा उसकी बात किसी ने भी नहीं सुनी लेकिन उसी पुरातत्व विभाग ने तीन जुलाई को बिल्डिंग को ध्वस्त करने का हुक्म सुनाया और चार जुलाई को सुबह ही दर्जनों बुल्डोज़र पहुँच गए और छह मंजिला अपार्टमेन्ट ज़मींदोज़ हो गया.

अब इसकी हकीकत क्या है वह भी बताना जरूरी है. इस अपार्टमेन्ट के लिए लखनऊ नगर निगम ने एनओसी जारी की. एलडीए ने इसका नक्शा पास किया. इतनी बड़ी इमारत कोई एक दिन में तो बनी नहीं होगी लेकिन गिरा दी गई क्योंकि बनवाने वाला बीएसपी का पूर्व सांसद है और बीएसपी के पास विरोध की ताकत नहीं है.

इसे पढ़कर किसी के मुंह से कहीं यह न निकल जाए कि हुकूमत ने गलत तरीके से बनाई गई इमारत को गिरा देना हुकूमत की ज़िम्मेदारी थी इसलिए गिरा दिया. हुकूमत ने कुछ भी गलत नहीं किया है. यहीं पर सवाल यह भी है कि बुक्कल नवाब के फ़्लैट कैसे अदालत को मुंह चिढ़ा रहे हैं. बुक्कल नवाब के फ़्लैट को गिरा देने का हुक्म हाईकोर्ट ने सुनाया है लेकिन बुक्कल नवाब ने समाजवादी पार्टी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया और फ़्लैट अपनी जगह पर खड़े हैं.

सीतापुर रोड पर एक जगह है मोहिबुल्लापुर. मोहिबुल्लापुर में ईसाईयों का कब्रिस्तान है. यह कब्रिस्तान भी पुरातत्व विभाग की देखरेख में है. भूमाफियाओं ने ज़मीन पर कब्ज़ा करके कब्रिस्तान की ज़मीन पर 43 मकान बना लिए. अदालत ने 2016 में इन्हें गिरा देने का हुक्म सुनाया था मगर पांच साल तक न पुरातत्व विभाग को खबर हुई है न पुलिस को और न ही हुकूमत को.

हुकूमतें आती हैं और चली जाती हैं मगर वो जो ज़हर बो जाती हैं उसका असर नस्लों में ट्रांसफर होता रहता है. इंसान-इंसान का दुश्मन बनता जाता है. हकीकत यह है कि जिस दिन लखनऊ के घंटाघर पर एसपी सिटी ने एक औरत से बदतमीजी की थी उसी वक्त अगर उसके साथ सख्ती कर दी गई होती तो शायद ब्लाक प्रमुख चुनाव के दौरान एक औरत की साड़ी उतारने की हिम्मत गुंडों की नहीं हुई होती.

एसपी के मुंह पर तमाचा इसलिए पड़ रहा है क्योंकि मारने वाले को हुकूमत का शेल्टर मिला हुआ है. पुलिस के सिपाही और दरोगा की गैरत अगर उसी वक्त जाग गई होती तो आने वाले दिनों में किसी नेता की हिम्मत वर्दी पर हाथ डालने की नहीं पड़ती. लेकिन जब वर्दी वाले खुद औरतों से बदतमीजी करेंगे. जब ठंड के दिनों में उनसे कम्बल छीन ले जायेंगे. जब वह गुंडों की हिफाज़त करेंगे और शरीफ आदमी की एफआईआर भी नहीं लिखेंगे. गलत रास्ते पर चलने वाले से जब वर्दी वाले वसूली कर अपने एकाउंट भरेंगे तब उनके मुंह पर तमाचे पड़ेंगे ही उसे कौन रोकेगा.

कुदरत के क़ानून को समझने की ज़रूरत है. कुदरत इन्साफ की तहरीर अपने हिसाब से लिखती है. चढ़ने को इंसान एवरेस्ट पर भी चढ़ जाए लेकिन वहां कोई रह नहीं सकता है. वहां से उतरना भी पड़ता है. मज़हब के नाम पर नफरत फैलाते हुए कितनी भी बड़ी कुर्सी पर पहुँच जाओ मगर उस कुर्सी को भी किसी दूसरे के लिए छोड़ना ही पड़ता है.

छोड़ देने के बाद ज़रूरत पर कोई मददगार नज़र नहीं आता है. इज्जत से नाम कलाम का ही ही लिया जाता है. इज्ज़त से याद मदर टेरेसा को ही किया जाता है. जो खुद को बाहुबली समझते हुए सबको मसलते हुए चलना चाहता है वो खोटे सिक्के की तरह किसी कोने में अपने दिन गिनने को मजबूर होता है.

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