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उदारीकरण के 30 साल: मोदी कर सकते हैं 1991 जैसा चमत्कार? आसान नहीं राह

नई दिल्ली। 24 जुलाई 1991, ये वो तारीख है जिसने संकट से जूझ रही भारतीय इकोनॉमी की दशा और दिशा बदल कर रख दी। इस दिन तत्कालीन वित्त मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने जो आम बजट पेश किया, उसने भारत में एक नई खुली हुई अर्थव्यवस्था की नींव रखी। इसके बाद दुनिया की नजरों में भारत एक बड़ा बाजार बनकर उभरा। इस साल का बजट इकोनॉमी के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं था। ठीक तीस साल बाद अब बहुत कुछ बदल चुका है।

अब देश की कमान बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में है तो वहीं कोरोना की वजह से इकोनॉमी की हालत पस्त है। नीति निर्माताओं को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कोविड की वजह से जो मंदी जैसी स्थिति बनी है, उसका इस्तेमाल 1991 जैसे आर्थिक सुधारों को शुरू करने के लिए कर सकते हैं। हालांकि, ये सबकुछ इतना आसान नहीं है।

साहसिक फैसले लेने में सक्षम: ऐसा नहीं है कि पीएम नरेंद्र मोदी साहसिक फैसलों से डरते हैं या उन्हें राजनीतिक तौर पर समर्थन नहीं है। ये सच है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बेजोड़ है। वहीं, सदन में भी संख्या बल के तौर पर मजबूत हैं। लेकिन केंद्र की मोदी सरकार और नौकरशाही को 1991 के उलट अब उदारीकरण सुधारों के पीछे आम सहमति विकसित करने में दिक्कत होगी।

तीस साल पहले संकट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के जरिए वैश्विक स्तर पर समर्थन मिल रहा था। वाशिंगटन सहमति के माध्यम से देशों को उदारवादी विकास रणनीतियों को अपनाने पर बल दिया गया जा रहा था। इसका फायदा भारत को भी मिला।

हो चुके हैं कई बदलाव: हालांकि, अब बहुत कुछ बदल चुका है। मसलन, कुछ अर्थशास्त्री भारत की भूमि और श्रम को उदार बनाने की आवश्यकता से असहमत हैं। वहीं,  टैक्स सुधारों को लागू करना हो या बैंकों और सरकारी कंपनियों का निजीकरण, ये आइडिया ज्यादा प्रभावी नहीं हैं। बहुत से शोध इस बात पर केंद्रित हैं कि सरकार के हस्तक्षेप सबसे प्रभावी हैं।

इसके अलावा नौकरशाही व्यवस्था भी अब पहले की तरह नहीं काम कर रही है। उदाहरण के लिए पीएम मोदी के पहले कार्यकाल में, संसद में पेश किए गए बिलों का केवल एक चौथाई विशेषज्ञ समितियों को भेजा गया था। ये पिछली दो सरकारों की 71 फीसदी और 60 फीसदी से बहुत कम है। पीएम मोदी के मौजूदा कार्यकाल में यह आंकड़ा घटकर लगभग 10 फीसदी रह गया है।

अपने जुलाई 1991 के बजट भाषण में उदारीकरण की घोषणा करते हुए, मनमोहन सिंह ने विक्टर ह्यूगो (फ्रांसीसी कवि) की व्याख्या की थी। उन्होंने कहा था, ‘पृथ्वी पर कोई शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती है, जिसका समय आ चुका है।’ हालांकि, विचार केवल एक ऐसे वातावरण में आ सकते हैं जो उन्हें पोषित करने के लिए अनुकूल हो। जब तक भारत इस वातावरण को तैयार नहीं कर लेता, तब तक सही आर्थिक सुधारों की संभावनाएं मुश्किल हैं।

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