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मोहर्रम: पता नहीं कौन सा दुश्मन कब हुर में बदल जाए

शबाहत हुसैन विजेता

मोहर्रम शुरू होने वाला है. इस्लामिक कलैंडर का पहला महीना. दूसरे कलैंडर में नया साल आता है तो खुशियाँ मनाई जाती हैं, मुबारकबाद दी जाती हैं मगर इस्लामिक कलैंडर का नया साल स्याह चादर में लिपटकर आता है. मातम-मजलिस का सिलसिला शुरू हो जाता है. काले झंडे लग जाते हैं. काले कपड़े पहने जाते हैं. शादियाँ नहीं होतीं, सालगिरह नहीं मनाई जाती, किसी को कितनी भी बड़ी खुशी पर मुबारकबाद नहीं दी जाती.

दुनिया में हर कौम ख़ुशी की तारीख का इंतज़ार करती है, मगर इस्लाम को मानने वाले ईद से भी ज्यादा बेचैनी से मोहर्रम का इंतज़ार करते हैं. क्या खूब लिखा था एक शायर ने :- अपनी तकदीर जगाते हैं तेरे मातम से,खून की राह बिछाते हैं तेरे मातम से, अपना इज़हार-ए-अकीदत का सलीका ये है, हम नया साल मनाते हैं तेरे मातम से.

एक बादशाह था यज़ीद. इत्तफाकन ऐसे घर में पैदा हुआ था जो इस्लाम को मानने वाला था. वह बादशाह था तो उसके दरबार में रास-रंग की महफ़िलें भी सजती थीं. नशा भी किया जाता था. जुए की चौपड़ भी बिछती थी. वह अपने शौक भी नहीं छोड़ना चाहता था और मुसलमान भी बना रहना चाहता था. वह अपने रंग में इस्लाम को ढालना चाहता था. वह बादशाह था तो नाजायज़ को जायज़ बनाने पर आमादा था.

हज़रत इमाम हुसैन पैगम्बर-ए-इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे थे. इस्लाम को उन्हीं के दरवाज़े से चलना था. यज़ीद यह चाहता था कि वह जिस तरफ इस्लाम को मोड़ना चाहता है उससे इमाम हुसैन भी सहमत हो जाएं. इमाम हुसैन ने हुकूमत की इसी बात को मानने से इनकार कर दिया. यज़ीद ने उन्हें समझाया, फिर डराया, फिर जंग के लिए मजबूर कर दिया.

इमाम हुसैन नहीं चाहते थे कि जिस ज़मीन को उनके नाना ने मोहब्बत का मैसेज देने के लिए संवारा है वहां पर खून बहे. इसी वजह से उन्होंने मदीना छोड़ दिया. वह अपने रिश्तेदारों और ख़ास दोस्तों के साथ हिन्दुस्तान के रास्ते पर बढ़ चले. मगर हुकूमत जानती थी कि हुसैन चले गए तो वह इस्लाम की शक्ल को जिस तरह से बदलना चाहता है नहीं बदल पाएगा. यज़ीद ने अपने वफादार साथी हुर को इमाम हुसैन के पास भेजा.

इमाम हुसैन के कारवाँ को हुर धोखे से कर्बला तक ले आया. कर्बला में उन पर समझौते का दबाव बनाया गया मगर इमाम हुसैन ने साफ़ इनकार कर दिया. बार-बार के इनकार के बाद यजीदी लश्कर ने उन्हें घेर लिया. उनके घर वालों तक पानी पहुँचने से भी रोक लगा दी. यज़ीद को लगा था कि प्यास बढ़ेगी तो हुसैन समझौता करेंगे लेकिन जैसे-जैसे प्यास बढ़ती गई वैसे-वैसे इमाम हुसैन के इरादे मज़बूत होते गए.

दस मोहर्रम का दिन जंग के लिए तय हुआ. यज़ीद के पास सवा लाख सैनिकों का लश्कर था और इमाम हुसैन के साथ गिने-चुने लोग थे. नौ मोहर्रम की रात आयी तो इमाम हुसैन को घेर कर जंग के मैदान तक लाने वाले हुर की गैरत जागी. वह अपने बेटे के साथ यज़ीद को छोड़कर इमाम हुसैन के पास आ गया और अपनी ही फ़ौज से जंग करते हुए अपनी कुर्बानी पेश कर दी.

इस्लाम का यही मैसेज है कि दुश्मन के साथ भी वह रवैया अपनाओ जिससे पता नहीं कौन सा दुश्मन कब हुर की तरह से आपके साथ आकर खड़ा हो जाए. इस्लाम का यह भी मैसेज है कि जहाँ तक लाजिम हो जंग को टालते रहो. जब जंग लाजिम हो जाए तब दुश्मन के वार का इंतज़ार करो, कभी पहला हमला मत करो.

कर्बला के मैदान में छह महीने के बेटे हज़रत अली असगर से लेकर बत्तीस साल के भाई हजरत अब्बास तक को इमाम हुसैन ने राहे खुदा में कुर्बान कर दिया. सिर्फ एक दिन में अपना भरा हुआ घर लुटा दिया मगर हुकूमत के साथ समझौता नहीं किया.

मोहर्रम कर्बला के उसी वाक्ये को याद दिलाने के लिए है. हक़, इन्साफ और इंसानियत को बचाने के लिए अपना घर लुटा देने का नाम है मोहर्रम. यही वजह है कि मोहर्रम को सिर्फ इस्लाम को मानने वाले ही नहीं दूसरे मजहबों के लोग भी मानते हैं. हिन्दुस्तान में बड़ी तादाद में हिन्दू ताज़ियेदार हैं. हिन्दुओं के घर से ताजिये उठते हैं. तमाम हिन्दू मोहर्रम में जंजीरों व कमा का मातम कर अपना खून बहाते हैं.

मोहर्रम सिर्फ कर्बला के शहीदों का गम मनाने के लिए है मगर सियासी लोगों को हक, इन्साफ और इंसानियत को बचाने के लिए दी गई कुर्बानियां न तब समझ आयी थीं न आज चौदह सौ साल बाद के सियासी लोगों की समझ में आयी हैं.

इन दिनों उत्तर प्रदेश के डीजीपी ने मोहर्रम की गाइडलाइन के नाम पर जो गलत और बेहूदी बातें लिखी हैं उसे लेकर हाय तौबा मची है. डीजीपी ने यूपी के सभी पुलिस कमिश्नर, एसएसपी और एसपी को जो खत लिखा है उसे लेकर तमाम धर्मगुरु लगातार मुखालफत कर रहे हैं मगर हुकूमत को जैसे अभी तक पता ही नहीं है.

उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम डॉ. दिनेश शर्मा आज भी ताजिये के नीचे से निकलते हैं. वह पैदा हुए थे तो उनकी माँ ने उन्हें ताजिये के नीचे लिटा दिया था. उनके बच्चे बचते नहीं थे. दिनेश शर्मा की ताजिये को लेकर आस्था पैदा होने से लेकर आज तक है मगर डीजीपी के इस खत पर वह भी खामोश हैं.

मौजूदा हुकूमत दरअसल हिन्दू-मुसलमान के बीच लकीर खींचकर ही चल रही है. इस हुकूमत को लगता है कि मुसलमान को डराकर और दबाकर रखेंगे तो हिन्दू खुश होंगे और उन्हें वोट देकर फिर से उनकी हुकूमत बनाएंगे.

ताजिया उन इमाम हुसैन के रौज़े की नकल है जिन्होंने इंसानियत को बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी. मोहर्रम कर्बला के मैदान में हुए ज़ुल्म के खिलाफ प्रदर्शन है. मोहर्रम दुनिया के पहले आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन है.

मौजूदा हुकूमत को समझना होगा कि चौदह सौ साल से ज़ुल्म के खिलाफ जो प्रदर्शन चल रहा है वह आगे भी चलता रहेगा. चौदह सौ साल में न जाने कितनी हुकूमतें आयीं और चली गईं मगर जब तक हक़ और इन्साफ को बचाने के लिए एक भी आवाज़ उठती रहेगी यह मोहर्रम जिन्दा रहेगा मरेगा नहीं.

इस्लाम को मानने वाले सिर्फ लब्बैक या हुसैन बोलते हैं, बोलते रहेंगे. ज़ुल्म बढ़ेगा तो मातम बढ़ेगा. डीजीपी के ज़रिये जारी होने वाली बेहूदा चिट्ठियों को पढ़कर हम तो यही दुआ करते हैं कि ऊपर वाला आपको सही और गलत का फर्क समझा दे. यह कहकर हम अपना डर नहीं ज़ाहिर कर रहे, सिर्फ हममें एक आस जिन्दा है कि पता नहीं कौन सा दुश्मन कब हुर में बदल जाए.

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