मजदूरों की मजबूरी पर भारी व्यवस्था की लाचारी का प्रतीक है औरैया हादसा

– गलत नीतियों ने ली बोकारो के मजदूरों की जान
– बोकारो का इस्पात संयंत्र नहीं दे पाया स्थानीय मजदूरों को काम
– बोकारो झारखंड के मजदूरों की मारने वालों की संख्या एक दर्जन से अधिक,  जबकि घायलों की भी आधा दर्जन है संख्या
औरैया। भीषण हादसे में जान गंवाने वाले अधिकतर मजदूरों का बोकारो से होना देश के खस्ताहाल और भेदभाव पूर्ण सिस्टम की पोल ही नहीं खोलता बल्कि गैर जिम्मेदारी नीतियों को भी उजागर करता है। बता दें कि जिस बोकारो स्टील प्लांट में जहां लाखों की संख्या में कामगारों को काम मिल सकता है तो आखिर इन स्थानीय मजदूरों को किन वजहों से काम नहीं मिल सका जो कि गैर राज्य में जाकर लौटते हुए काल के गाल में समा गए।
उल्लेखनीय है कि, सोवियत संघ के सहयोग से देश का प्रथम स्वदेशी इस्पात संयंत्र के रूप में बोकारो स्टील लिमिटेड के नाम से 29 जनवरी 1964 को तत्कालीन बिहार राज्य के अब झारखंड के बोकारो जिले में यह इस्पात संयंत्र सिर्फ स्थानीय परिस्थितियों और मानवीय जरूरतों को दृष्टिगत रखते हुए स्थापित किया गया था कि यहां कामगारों को रोजगार के रूप में एक मजबूत और सशक्त विकल्प मिलेगा।
जिसमें तरक्की बन एक लाख खाली हाथों को रोजी रोटी के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा मील का पत्थर साबित होगा। यही नहीं वर्तमान समय में इस संयंत्र में पांच ब्लास्ट फर्नेस है और उनकी द्रव इस्पात बनाने की क्षमता 5 मिट्रिक टन है। मगर अफसोस की जिन किसानों और स्थानीय कामगारों की जमीनों पर इसका गौरव टिका है उनको ही खराब नीतियों के चलते गैर प्रांतों में पलायन कर ऐसे दुखद और दर्दनाक हादसों का शिकार होना पड़ रहा है।
सूख गयी पिता की जुबान
हादसे का शिकार हुए घायल शम्भू महतो के सामने से गुजरी बेटे नकुल महतो की लाश ने एक बेबस पिता की जुबां को ही सुखा दिया। जिला अस्पताल में अधिकारी उनका पता पूछने की कोशिश करते तो वह छत की ओर एकटक टकटकी लगा जाते। जिसकी सूनी आंखे पीड़ा को बयां करने के लिए हर किसी का दिल दहला सकती थी। कुछ ऐसा ही मंजर उषा देवी सागर मध्य प्रदेश अपनी घायल पति सन्तोष को देख दहाड़े मारता क्रन्दन हर किसी के सीने को छलनी करता रहा।
लावारिसों को कैसे नसीब होंगे कंधे
मृतको में अधिकतर की पहचान संग आये परिजनों एवम कागजातों से हो गयी तो वही चार मृतकों की काफी मशक्कत के बाद भी पहचान नही मिल पा रही थी। ऐसे में सवाल उठता है कि इन बदनसीबों को आखिर कौन कन्धा देगा। हालांकि प्रसाशन देर शाम तक मशक्कत करता रहा।
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