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भाजपा में बेचैनी लाजमी… अस्सी के बाद सत्तर के फेर में भाजपा

नवेद शिकोह

पहले चरण के चुनाव में मतदाताओं का उत्साह ना देख भाजपा में बेचैनी लाजमी है। खासकर यूपी मे अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का लक्ष्य असंभव सा दिख रहा, ऐसे में पिछले लोकसभा चुनाव में जीती 64 सीटें बचाने के लिए पार्टी चुनावी रणनीति को नई धार देने में जुट गई है।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पुराने बयान में मिर्च-मसाला लगाकर एक चुनावी जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विवादित संबोधन इसकी बानगी है। भाजपा के सबसे बड़े नेता और पीएम के इस बयान को ध्रुवीकरण की कोशिश माना जा रहा है।

अंदरखाने की खबरों को मानें तो भाजपा ने यूपी में अस्सी की आस छोड़कर 65-70 का लक्ष्य तय करके अपनी जीती सीटों की संख्या को बर्करार रखने के लिए संगठन, कार्यकर्ताओं और पन्ना प्रमुखों को कुछ नए दिशा निर्देश दिए हैं। खासकर इस बात पर जोर दिया गया है कि दूसरे चरण के चुनाव से सत्तर प्लस पर्सेंट वोटिंग हो।

इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए बूथ संभालने वाले नेताओं-कार्यकर्ताओं को अधिक से अधिक मतदान के लिए आम जनमानस को वोट डालने के लिए प्रेरित और जागरूक करने की हिदायत दी गई है‌। भाजपा के यूपी संगठन को ये जिम्मेदारी दी गई है कि हर एक कार्यकर्ता दस मतदाताओं को मतदान के लिए घर से बाहर निकालने का लक्ष्य हासिल करे।

पार्टी इस सच को महसूस कर रही है कि मतदाताओं में मतदान का उत्साह ना होना उसके लिए घातक हो सकता है। पिछले दस वर्ष का रिकार्ड देखिए तो कई चुनावों में जितना-जितना वोट प्रतिशत बढ़ा है उसी रेशिओ से भाजपा की सीटों में इजाफा हुआ है। विशेषकर यूपी मे बढ़ते वोटिंग का ग्राफ हिन्दुत्व की लहर और ध्रुवीकरण के संकेत देती रही है।

लोकसभा चुनाव शुरू होने से पहले पूरी तरह से देश में भाजपा के पक्ष में माहौल दिख रहा था। पहले चरण में वोट प्रतिशत गिरने के बाद लगने लगा कि देश की जनता इतनी भगवामय नही है जितना माना जा रहा था। बताते चलें कि विभिन्न टीवी चैनलों और सर्वे एजेंसियों ने भी ओपिनियन पोल में भाजपा को भारी बहुमत से जीतने और अपने लक्ष्य के करीब होने की संभावना जताई थी।

चुनावी आग़ाज़ में ही यूपी-बिहार जैसी हिन्दी पट्टी में भी कम वोट पड़ना और भी घातक है। क्योंकि उत्तर भारत का जनाधार भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है। दक्षिण में जो नुकसान होता है उत्तर उसे कवर कर लेता है। खासकर योगी के सुरक्षा का बुल्डोजर मॉडल, राममंदिर की उपलब्धि, प्राण प्रतिष्ठा का भव्य-दिव्य कार्यक्रम और काशी-मथुरा वाले यूपी से तो बहुत ज्यादा उम्मीद है। यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चुनाव का आरंभ हुआ।

अस्सी की अस्सी सीटें जीतने के लक्ष्य वाली भाजपा को अनुमान था कि यहां बंपर वोटिंग के साथ भगवा के प्रति उत्साह दिखेगा। अतीत मे जाइए तो मुजफ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे और कैराना में पलायन की खबरों के बाद भाजपा को अप्रत्याशित लाभ हुआ था। किसानों और जाट समाज के इस गढ़ में मुस्लिम समाज की भी बड़ी तादाद है।

दस वर्ष पूर्व यहां से शुरू हुआ ध्रुवीकरण पूरे यूपी में और फिर देश के कई राज्यों में फैल गया था। 2024 में उम्मीद और भी बढ़ गई। राम मंदिर का मिशन पूरा होने की सफलता के बाद काशी-मथुरा ने हिन्दुत्व की लहर और ध्रुवीकरण की आशा बढ़ा दी। साथ काफी समय के बाद भाजपा की ताकत में चार चांद लगाने के लिए किसान और जाट समाज में पकड़ रखने वाले राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी एनडीए का हिस्सा बन गए हैं।

यही सब कारण भाजपा का पलड़ा भारी होने के संकेत दे रहे थे।इं डिया गठबंधन की बुनियाद रखने वाले और देशभर के विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद में आगे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पलट कर एनडीए का हिस्सा बनने से लेकर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का अकेले लड़ना। पंजाब में कांग्रेस और आप का अलगाव, रालोद के जयंत चौधरी का एनडीए में चला जाना, अपना दल (कमेरावादी) की पल्लवी पटेल द्वारा असद्दुदीन ओवेसी की एआईएमआईएम के साथ चुनाव लड़ने का फैसला.. जैसे बिखराव के बाद विपक्षी खेमा एनडीए के आगे बौना लग रहा था।

किंतु यूपी में इंडिया गठबंधन खास कर सपा ने बेहद कम मुस्लिम और अधिक पिछड़ों को टिकट देकर चुनाव को जातिगत बनाने की रणनीति तय की, और ध्रुवीकरण के रास्ते बंद करने का रणनीति तय की।इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐन चुनाव से पहले क्षत्रिय समाज द्वारा पंचायत कर भाजपा पर अनदेखी का आरोप लगाकर विपक्ष द्वारा जाति की राजनीति की मंशा को हवा दे दी।

और फिर सैनी समाज, त्यागी समाज और अन्य जातियों की भी सत्तारूढ़ दल से नाराजगी की थोड़ी बहुत सुगबुगाहट नजर आने लगी। दूसरी तरफ हाशिए पर पड़ी बसपा भी मौजूदा चुनाव में मजबूती से लड़ती नजर आ रही। राजनीति परिपक्वता दिखाते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस बार टिकट वितरण में ना सिर्फ सपा-कांग्रेस (इंडिया गठबंधन) को ही घेरा बल्कि भाजपा की भी मुश्किल बढ़ा दी। इस तरह बी टीम की तोहमत से बच कर बसपा अपना पारंपरिक वोट बैंक वापस लाने में हर संभव प्रयास कर रही है। ये कोशिश भी भाजपा भी भाजपा के माथे पर पसीना ला सकती है।

कुल मिलाकर पहले चरण के बाद भी यदि इस गर्मी में भी हिन्दुत्व एवं ध्रुवीकरण में गर्मी पैदा नहीं हुई और चुनाव माहौल ठंडा ही रहा, वोट प्रतिशत नही बढ़ा, प्रधानमंत्री के बयान से भी ध्रुवीकरण नहीं हुआ और जाति की राजनीति का असर फिर दिखाई दिया ये तो ये चुनाव एक तरफा नहीं बल्कि आमने-सामने का होगा।

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