डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश में चुनावी जंग जारी है। सभी राजनैतिक पार्टियां अपनी निर्धारित नीतियों-रीतियों के अलावा तात्कालिक हथकण्डे आजमाने में लगीं हैं। बंगाल का चुनावी इतिहास आतंक के साये में हमेशा से ही फलता-फूलता रहा है। कभी लाल सलाम का रंग चढता रहा तो कभी दीदी की दादागिरी चलती रही।
घुसपैठियों की दम पर सत्ता हथियाने की मुहिम चलाने वाली तृणमूल मुखिया पर तो देश की सरकारी एजेन्सियों तक पर आक्रमण करवाने के आरोप लगते रहे हैं। पूर्व घोषित दंगों का व्यवहारिक स्वरूप सामने आने के बाद से तो वहां के आम निवासियों में भय व्याप्त होने लगा है।
पुलिस के सामने ही अपराधों का कीर्तिमान गढने का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ, वह निरंतर जारी है। तुष्टीकरण के हथियार से देश को रक्तरंजित करने का षडयंत्र करने वाली पार्टियां कभी देश के टुकडे-टुकडे गैंग को चुनावी जंग में जहरीली सोच के साथ उतारतीं हैं तो कभी आतंक के पर्याय रहने वालों को गले लगाते हैं।
सिध्दान्तों की होली जलाकर स्वार्थ सिध्दि का परिणाम पाने वालों की संख्या में निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। हिन्दूवादी छवि के साथ बाला साहब ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया था।
उनके शरीर त्यागते ही पार्टी हथियाने का संग्राम शुरू हो गया। विरोधी नीतियों के पक्षधरों के साथ मिलकर सत्ता-सिंहासन लेने का क्रम चल निकला। मुसलमानों को संरक्षण देने के नाम पर बनाई गई आल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने अनेक अवसरों पर विरोधियों को गले लगाकर अपने सिध्दान्तों को कफन पहना दिया।
दलितों की मसीहा बनने वाली बहुजन समाज पार्टी की नीतियों ने आधारभूत सिध्दान्तों को तिलांजलि देकर अपने विरोधियों के साथ मिलकर अनेक बार सरकार बनाई। जनता दल यूनाइटेड ने तो अपने आदर्शो को स्वार्थ की देहलीज पर किस्तों में कत्ल करके अनेक बार सत्ता पर काबिज हुई। स्वार्थपूर्ति में बाधा पडते ही असंतुष्टों व्दारा तो पुराने संगठन से दूरी बनाकर स्वयं के दल की घोषणा तक की जाती रही है।
शासक बनने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार लोगों ने देश की अतीतकालीन संवेदनाओं, भावनाओं और चिन्तन को अनन्त गहराई में दफन कर दिया है। इस सारे क्रिया कलापों का स्पष्ट प्रतिबिम्ब राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों, न्याय पत्रों, संकल्प पत्रों आदि में परिलक्ष्ति हो रहा है। अनेक दलों के संयुक्त गठबंधनों की अपनी कोई सांझी कार्ययोजना सामने नहीं आई है।
गठबंधनों के सभी दल अपनी अगल-अलग सोच को लेकर सत्ता में पहुचने के बाद व्यवहार में लाने वाली कार्ययोजना का ढांचा प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में गठबंधनों का स्वयं का अस्तित्व ही खतरे में दिखाई पड रहा है। मुट्ठी भर सीटों पर चुनाव लडने वाले दल भी राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण करने में जुटे हैं।
कहीं साम्प्रदायिक खाई को चौडा करने की होड लगी है तो कहीं जातिगत जनगणना के आधार पर शक्ति संघर्ष का आधार तैयार किया जा रहा है।
कहीं अलग-अलग विशेषाधिकारों की वकालत हो रही है कहीं स्वतंत्रता के विकृत मायने परोसे जा रहे हैं।
स्वार्थ की जंग में राष्ट्रीयता की शहादत लेने वालों को देश का सम्मान, विकास और सौहार्द की कतई चिन्ता नहीं है। वे नेत्रवान होने के बाद भी धृतराष्ट्र बनने पर तुले हैं, मीरजाफर बनकर सुख बटोरना चाहते हैं और करना चाहते हैं किसी भी कीमत पर स्वार्थपूर्ति। ऐसे लोगों को राष्ट्रवादी तो क्या राष्ट्र का नागरिक तक कहना, शर्म की बात है। जिस देश के नागरिक अपनी धरती से उगने वाले अन्न और बहने वाले पानी पर जीवन यापन करने के बाद भी उसके टुकडे-टुकडे करने का मंसूबा पाल रहे हों वहां पर शान्ति, सुख और समृध्दि की बयार कभी भी जीवनदायिनी वायु नहीं बन सकती।
अतीत में कोलकता के रास्ते से गोरों ने विनाश का दूत बनकर प्रवेश किया तो वहीं से सुभाषचन्द्र बोस जैसे स्वाधीनता संग्राम के पुरोधा ने भी स्वाधीनता का शंखनाद किया था। मगर गोरों की चालों ने राष्ट्रनायक सुभाष को गुमनामी के अंधेरे में ढकेलकर अपने चमचों को देश का महान नेता बना दिया था।
आजाद हिन्द फौज के रणबांकुरों से भयभीत होकर देश छोडने पर मजबूर हुए गोरों ने जाते-जाते मजहब के नाम पर देश को टुकडों में विभाजित कर दिया था किन्तु आज अनेक राजनैतिक दल हमारे भारत के पुन: टुकडे करने पर तुले हैं।
विभाजनकारी, विध्वंशकारी और विनाशकारी सोच को संरक्षण देने वालों को मुंह तोड जबाब दिये बिना राष्ट्र को विकास के रास्ते पर ले जाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। ऐसे में व्यक्तिगत हितों को त्यागकर राष्ट्र हित के आधार पर ही मतदान करना आवश्यक नहीं बल्कि नितांत आवश्यक है, तभी देश बच सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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