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न बढ़ी कमाई, न टीआरपी, फिर भी सांप्रदायिक और ध्रुवीकरण वाली खबरें दिखाते रहे न्यूज चैनल

भारत में मीडिया को 2014 के बाद तब से ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा है जबसे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं। दरअसल मोदी के नाम से जुड़ता यह नाम मेगसेसे पुरस्कार विजेता रवीश कुमार ने उछाला था, जो देखते-देखते बेहद लोकप्रिय हो गया।

दशकों पहले अमेरिकी विद्धान नोम चोम्सकी ने अपनी किताब में लिखा था कि लोकतांत्रिक देशों में मीडिया असल में स्वतंत्र नहीं है और आम लोगों को सही सूचनाएं नहीं पहुंचाता है, खासतौर से सरकार की बढ़ती मनमानी के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं। इसके बजाए मीडिया ऐसे काम में लग जाता है जिसे हम ‘मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट’ यानी ऐसी सहमति बनाने की कोशिश करने में जुट जाता है जो सरकार और कारोबार के हित में हो। उन्होंने कहा था कि जनसंचार माध्यम दरअसल वैचारिक संस्थाएं हैं जो बाजार की ताकतों पर भरोसा करके, आत्म-सेंसरशिप के माध्यम से, बिना किसी प्रत्यक्ष दबाव के, एक विशेष मॉडल के माध्यम से प्रचार करती हैं।

ऐसे मॉडल के परिभाषित पहलू कुछ इस तरह होते हैं:

पहली बात तो यह कि मीडिया का स्वामित्व यानी मालिकाना नियंत्रण कार्पोरेट हितधारकों के पास होता है। दूसरा यह कि इसकी कमाई मुख्यतय: विज्ञापन पर निर्भर करती है, तीसरी बात यह कि सरकारें कुछ चुनिंदा और अपने समर्थक या आसानी से झुकाए जा सकने वाले रिपोर्टरों और एंकरों को ही अपनी पसंद की सूचनाएं देती है और लाइसेंस पर नियंत्रण रखती हैं, चौथी बात कि इस तरह की आसानी से झुकाई जा सकने या दबाव में ली जा सकने वाली मिया असहमति की हाशिए पर पड़ी आवाज़ों को दबा देती है और राजनीतिक प्रतिद्धंदियों यानी विपक्ष पर इस तरह हमला करती है जैसे कि वह सरकार का मुखपत्र हों, और पांचवीं बात यह कि यह ऐसा भ्रम और भटकाव पैदा करती है कि असली मुद्दों की तरफ ध्यान ही नहीं जाता।

जैसा कि सतर्क पाठक जानते हैं यह सारे लक्षण भारत की मीडिया पर लागू होते हैं। इनमें से कुछ मामलों में हमारा मीडिया लाइसेंस और विज्ञापन के मामले में पश्चिमी देशों के मुकाबले कहीं अधिक सरकार पर निर्भर है।

इतना सब होने के बावजूद यह चौंकाने वाली बात है कि भारत की छह शेयर बाजार में लिस्टेड मीडिया कंपनियों के राजस्व में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। 2014 में इन कंपनियों का कुल राजस्व 6,325 करोड़ा था जबकि 2023 में 6,691 करोड़ पहुंचा। यानी 2014 से 2023 तक इन कंपनियों के मुनाफे में सिर्फ 254 करोड़ का ही इजाफा हुआ।

अगर महंगाई की दर को जोड़ें तो इन छह लिस्टेड कंपनियों (इनमें से कुछ देश के बड़े न्यूज चैनल और न्यूजपेपर चलाती हैं) का आकार 2014 के मुकाबले आधा रह गया है।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है तो फिर गोदी मीडिया अपने ही हितों के बारे में क्यों नहीं कुछ करती? इन कंपनियों न सिर्फ कोई पैसा नहीं बनाया या कारोबारी तौर पर कोई लाभ पाया, बल्कि असल में तो इनका आकार ही सिकुड़ गया। इसके कई बजाहिर कारण हो सकते हैं। दो तो ऐसे हैं जो मीडिया की प्रकृति से जुड़े हैं जिसमें बीते 20 साल के दौरान जबरदस्त बदलाव आया है। ऑनलाइन विज्ञापन ने कमाई का मोटा हिस्सा अपनी तरफ खींचा है और इसी से फेसबुक और गूगल की की कमाई होती है।

दूसरा कारण यह है कि अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं रही है, खासतौर से खपत के मामले में। और इस तथ्य में कोई विवाद नहीं है। फिर भी जो कुछ चल रहा है उसे समझने के लिए मैंने चैनलों के लोगों से बात की। मैंने चार सवाल पूछे: सरकार का पक्ष लेने और विपक्ष पर हमला करने के बदले उन्हें क्या मिलता है?

न्यूज चैनलों का ऑपरेशन यानी उन्हें चलाने का खर्च किस हद तक सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों ( और कुछ अन्य मदद) पर निर्भर होता है? क्या रेटिंग से पता चलता है कि दर्शकों की प्राथमिकता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाली सामग्री को आम खबरों के मुकाबले अधिक देखना पसंद करते हैं? क्या रेटिंग से यह पता चलता है कि दर्शक उस किस्म की पत्रकारिता को प्राथमिकता देते हैं दो सरकार के तौर-तरीकों और काम को सही ठहराती है?

इन सवालों के जो जवाब मिले वह दिलचस्प हैं। पहले दो सवालों के जवाब थे कि, “अगर मीडिया के पास पैसा कमाने के और तरीके होते तो वह अधिक सीधी रीढ़ के साथ खड़ा नजर आता” और यह कि, “राजनीतिक दबाव ही सबसे बड़ा कारण नहीं है, दरअसल यह कमाई का ब्रोकेन मॉडल यानी बिखरा हुआ मॉडल है।” ब्रोकेन मॉडल मीडिया कंपनियों की कम होती कमाई के संदर्भ में है, और ऐसा हमने देखा है। दूसरा जवाब था कि, “सरकार ने मिलने वाले राजस्व पर निर्भरता इसलिए अधिक हो गई क्योंकि काफी हद तक राजस्व में कमी आई है”, तो ऐसे में कोई उस हाथ को कैसे रोके जो उसका पेट भरता हो।

दूसरा कारण यह था कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब अडानी और अंबानी जैसे कार्पोरेट के स्वामित्व और नियंत्रण में है जिनके लिए मीडिया तो महज साइड बिजनेस है, लेकिन इससे बड़े मकसद हासिल होते हैं।

बाकी के दो सवाल जो कंटेंट यानी दिखाई जाने वाली सामग्री से जुड़े थे, उनका जवाब था कि ऐसा कोई सबूत या संकेत नहीं है विभाजनकारी या सांप्रदायिक कंटेंट से अन्य खबरों के मुकाबले अधिक टीआरपी रेटिंग मिलती है। अलबत्ता यह जरूर होता है कि ध्रुवीकरण वाली सामग्री से व्यूअरशिप यानी दर्शकों की संख्या में कमी नहीं आती यानी दर्शकों को यह स्वीकार्य है। कई बार ऐसी खबर जो ताजा हो उसे लोग अधिक देखते हैं जिसे हेट स्पीच के तौर पर प्रसारित किया जाए।

मिसाल के तौ पर, जब सरकार ने कोविड-19 से मुसलमानों को जोड़ा तो इससे इस कवरेज में उछाल आया कि कोरोना वायरस फैलाने में कथित तौर पर मुसलमानों का हाथ है। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी की अगुवाई में खुलेआम बहुसंख्यकवाद ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जहां “मौजूदा कट्टरता को बढ़ावा देने के लिए मंच दिया जा रहा है” जैसा कि अब कई चैनल दिखा रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि ऐसा कोई सबूत नहीं था जिससे पता चले कि सरकार का समर्थन करने और विपक्ष पर हमला करने से दर्शकों की संख्या बढ़ी या चैनल की लोकप्रियता बढ़ी, इसलिए ऐसा करने के पीछे कोई और ही मकसद था।

जब मैंने चैनलों में अंदर बैठे लोगों से पूछा कि गोदी मीडिया ऐसा क्यों कर रहा है, तो मुझे यही जवाब मिला और मुझे उम्मीद है कि इससे पाठकों को इस सबको थोड़ा और समझने में मदद मिलेगी।

और अंत में, चुनाव नतीजों का अर्थ है कि न तो विपक्ष को अब उस तरह से अनदेखा किया जा सकता है या उस पर हमला किया जा सकता है, जैसा कि अब तक होता रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अब मीडिया में स्थितियां क्या बनेंगी और क्या मौजूदा व्यवहार में कोई बदलाव आएगा। उम्मीद ही कर सकते हैं कि इसमें बदलाव होगा क्योंकि पत्रकार के तौर पर हमने वह सब कुछ देखा है जो निस्संदेह बेहद क्रूर और पत्रकारीय मानदंडों के हिसाब से शर्मनाक रहा है। यह वह दौर रहा है जिसे हमें अपने लोकतंत्र, अपनी राजनीति और अपने समाज की भलाई के लिए पीछे छोड़ना होगा।

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