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पड़ोसियों जैसी ही हैं हमारी समस्याएं, लेकिन फिर भी हम अलग-थलग क्यों?

1947 से पहले के भारत का निर्माण करने वाले यानी अविभाजित भारत का हिस्सा रहे देश आखिर किन समस्याओं से दो-चार हैं? दक्षिण एशिया के इन तीनों देशों में तीन सबसे महत्वपूर्ण समस्याएं एक जैसी नजर आती हैं। पहली है गरीबी और नाकाफी आर्थिक विकास। दूसरी है अंतर्मुखी राष्ट्रवाद जो प्रत्येक देश के अपने अल्पसंख्यकों पर लक्षित है। तीसरी है अत्यधिक केंद्रीकृत सरकार और विशाल क्षेत्रीय असमानताओं के बीच तनाव।

जो भी इन क्षेत्रों को जानता है, उसे पहली समस्या अच्छी तरह समझ आती है। भारत की प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आमदनी या भारत की जीडीपी 2020 में 1933 डॉलर थी। वहीं बांग्लादेश की 2270 डॉलर और पाकिस्तान की 1501 डॉलर थी। इन आंकड़ों के देखते हुए हमें उन सुर्खियों को नजरंदाज करना चाहिए जो वक्त-वक्त पर सामने रखी जाती है कि हम महाशक्ति का दर्जा हासिल करने वाले हैं।

दक्षिण एशिया का हर देश एक-दूसरे से या तो थोड़ा आगे है या थोड़ा पीछे हैं और कोरिया (2020 में 34,000 डॉलर), जापान (39,000 डॉलर) या फिर चीन (10,408 डॉलर) के आसपास भी नहीं है। जब भी कहा जाए कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, तो हमें इस हकीकत को सामने रखना चाहिए। दीर्घावधि में देखें तो हम दूसरी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की तरह उसी गति से आगे नहीं बढ़ रहे हैं और वास्तविकता है कि हम कमोबेश अपने पड़ोसियों के समान ही स्थिति में हैं।

दूसरी समस्या के बारे में भी उन सभी को स्पष्टता है जो हमारे इलाके में रहते हैं या बाहर से इस क्षेत्र का अध्ययन करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि पश्चिम में भारत के कितने ही विद्वानों ने हाल में धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के पतन पर किताबें लिखी हैं और बताया है कि इस सबने एक राष्ट्र के रूप में हमें कैसे नुकसान पहुँचाया है और अगर ऐसी ही हालत रही तो भविष्य में भी ऐसा ही होता रहेगा।

यही सबकुछ पाकिस्तान और बांग्लादेश के बारे में भी कहा जा सकता है। अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर बहुत अधिक ऊर्जा खर्च की जाती है। कानून, मीडिया, न्याय व्यवस्था और लोकप्रिय राजनीति के मामले में बहुत ही नकारात्मक ऊर्जा खर्च होती है। इसका अर्थ है कि इस सबसे देश का कोई फायदा नहीं होता, सिवाय इसके कि इस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हट जाता है।

जिन सबके बारे में लाखों बार, पढ़ा, लिखा, देखा और सुना जा चुका है उन सबको दोहराने का कोई फायदा नहीं है। अगर किसी की यह समझने की इच्छा ही न हो कि हमारे पड़ोसी देशों में जो कुछ हो रहा है, वैसा ही हमारे यहां भी हो रहा है, तो उसे समझाने का भी कोई फायदा नहीं।

तीसरा मुद्दा ज्यादा समझ में नहीं आता और उस पर कम ही चर्चा होती है, यहां तक कि भारत में और भारत के बाहर के विशेषज्ञ भी इस बारे में कम ही चर्चा करते हैं। इसका एक कारण शायद यह है कि जनगणना और परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने तक इस मुद्दे को फिलहाल टाल  ही दिया गया है। जनसंख्या के आधार पर सीटों के पुनर्आबंटन के अलावा, इस प्रक्रिया से एक और बात जो सामने आएगी वह है राज्यों को लगातार कमजोर किए जाने की बात।

जुलाई 2023 में मौजूदा कीमतों पर राज्यवार प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने जारी किए। इन आंकड़ों में दक्षिण भारतीय राज्यों की स्थिति बेहतर नजर आई। आंध्र प्रदेश (2.19 लाख रुपए), केरल (2.28 लाख रुपए), तमिलनाडु (2.73 लाख रुपए), कर्नाटक (3.01 लाख रुपए) और तेलंगाना (3.08 लाख रुपए) के साथ देश के औसत से ऊपर रहे।

इनकी अगर बिहार (49,000 रुपए), उत्तर प्रदेश (70,000 रुपए) और मध्य प्रदेश (1.4 लाख रुपए) से तुलना करें तो स्थिति साफ हो जाती है।

बैंक ऑफ बड़ौदा द्वारा जनवरी 2024 में जारी ‘राज्यवार जीएसटी संग्रह में भिन्नता’ शीर्षक वाले एक पेपर से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश (₹85,000 करोड़), मध्य प्रदेश (₹34,993 करोड़) और बिहार (₹16,298 करोड़) का अप्रैल-दिसंबर 2023 का संग्रह कुल मिलाकर कर्नाटक (₹1.17 लाख करोड़) के लगभग बराबर था।

आमदनी और राष्ट्रीय जीडीपी में योगदान में इस व्यापक और बढ़ते अंतर के अलावा, अन्य अंतर भी हैं जिन पर समय के साथ जोर दिया जा रहा है। संसाधन आवंटन उनमें से एक है, और इसका सामने आना स्वाभाविक है क्योंकि अगर भारत को गरीबी और असमानता को खत्म करना है तो वितरण एक ही पैटर्न का पालन नहीं कर सकता है। जब तक असमाना है तब तक जो राज्य राष्ट्रीय खजाने में प्रति व्यक्ति अधिक योगदान करते हैं, उन्हें प्रति व्यक्ति कम ही हिस्सा मिलेगा।

दूसरा अंतर दूसरी समस्या यानी अंतर्मुखी राष्ट्रवाद या दूसरे शब्दों में कहें तो बहुसंख्यकवादी राजनीति के पर प्रतिक्रिया के संदर्भ में है। इसमें दक्षिणी राज्यों की रुचि  उत्तर की तुलना में कम है। हालांकि यह सच है कि अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति भारत में दक्षिण सहित हर जगह अधिक लोकप्रिय हुई है, फिर भी कुछ आवश्यक अंतर बने हुए हैं क्योंकि कई मुद्दों पर दक्षिण का ध्यान कहीं और है।

फरवरी 2022 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने भारत में शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर के आंकड़े जारी किए। हर 1000 जन्मों पर केरल में 6 और कर्नाटक में 21 शिशुओं की मृत्यु हुई। मध्य प्रदेश में यह 46 और उत्तर प्रदेश में 41 थी। केरल में मातृ मृत्यु दर 2 और उत्तर प्रदेश में 17 थी।

ये निश्चित रूप से सरकारी आंकड़े हैं और कोई भी इन पर सवाल नहीं उठाता। लेकिन अंतर वास्तविक हैं। यही समस्याएं है जो पाकिस्तान को भी प्रभावित करती हैं, जहां भारत की तरह ही बहुत बड़ी क्षेत्रीय असमानताएं हैं। बलूचिस्तान का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद उसके पड़ोसी सिंध के आधे से भी कम है। पंजाब, एक अकेला प्रांत है, जिसकी कुल आबादी राष्ट्रीय जनसंख्या से आधी से ज़्यादा है। असंतुलन को दूर करने के लिए पाकिस्तान को भी कुछ उपाय करने होंगे, ठीक वैसे ही जैसे भारत और बांग्लादेश को करने होंगे।

इसके बावजूद, यह अजीब बात है कि हमारा इलाका विभाजित बना हुआ है और दुनिया के सबसे कम एकीकृत भागों में से एक है। हर देश को लगता है कि उसकी समस्याएं अनोखी हैं और वह कोई खास समाधान निकालेगा जो उसके आस-पास हो रही घटनाओं पर पर्दा पड़ जाएगा।

दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन, जिनके बीच एक दूसरे के साथ रिश्ते ऐतिहासिक तौर पर खराब रहे हैं, लेकिन आज आर्थिक रूप से एकीकृत हैं, या यूरोपीय संघ के सबक हमारे लिए बहुत कम महत्व रखते हैं। तो ऐसे कौन से संभावित तरीके हैं जिनसे हमारा क्षेत्र अपनी तीनों समस्याओं का समाधान कर सकता है? अगले कुछ हफ़्तों में इस कॉलम में इस बारे में और भी कुछ कहूंगा।

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