सुहानी अर्थव्यवस्था के दावों तले आहें भरते आम लोग

जगदीश रत्तनानी

अर्थशास्त्री-दार्शनिक ई.एफ. शूमाकर द्वारा ‘अर्थशास्त्र को वैसे समझें जैसे लोग मायने रखते हैं’ की बात करने के आधी सदी से भी ज्यादा समय बाद भारत एक ऐसी आर्थिक कहानी में फंस गया है जो लोगों की सेवा करने के बजाय संख्याओं के बारे में ज्यादा बातें करता है।

जब 2024 समाप्त होने वाला था, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में दोहराया कि भारत जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था बन जाएगा। पीएमओ में केन्द्रीय राज्यमंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने 30 दिसंबर 2024 को इन शब्दों के साथ वादा दोहराया: ‘उम्मीद है कि इस साल (भारत) चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा और पीएम मोदी के तीसरे कार्यकाल के दौरान भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा और 2047 तक यह नंबर-1 अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी कर रहा होगा।’

वैश्विक सुपरस्टार बनने का यह दावा विडंबनापूर्ण तरीके से अच्छे समय में नहीं आया है, भले इसे केवल संख्याओं के नजरिये से ही देखा जाए। सबसे पहले तो यह देखना चाहिए कि हाल के समय में विकास घटा है और महंगाई बढ़ी है। 2022-23 की पहली छमाही में जीडीपी 9% थी, 2023-24 में गिरकर यह 8.2% हो गई और 2024-25 की पहली छमाही में और गिरकर 6% हो गई। जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडेड) जो आपूर्ति के मामले में वृद्धि है, 2024-25 की पहली छमाही में 6.2% थी जबकि पिछले दो वर्षों की समान अवधि में यह 8% थी।

मुद्रास्फीति (सीपीआई-संयुक्त) अक्तूबर 2024 में 6% की लक्षित ऊपरी सीमा को पार कर गई जिसमें खाद्य मुद्रास्फीति 9.69% के खतरनाक स्तर पर थी। दोहरे अंकों के करीब यह खाद्य मुद्रास्फीति 14 महीने के उच्च स्तर पर थी। नवंबर 2024 में सीपीआई मुद्रास्फीति 5.48% पर आ गई जबकि खाद्य मुद्रास्फीति 8.2% पर बनी रही। मोटे तौर पर मुद्रास्फीति 2020 से उच्च स्तर पर रही है और यह पिछले चार वर्षों के 25 महीनों तक 6% के ऊपरी लक्ष्य से अधिक रही है।

साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल उतार-चढ़ाव का सामना किया जिसमें कई लाल और पीली चेतावनी लाइटें भी थीं। उम्मीद जताई जा रही है कि यह स्थिर हो जाएगा और गति पकड़ लेगा, यह आशावाद नवनियुक्त आरबीआई गवर्नर संजय मल्होत्रा ​​के बयान में झलकता है: ‘… 2024-25 की पहली छमाही में आर्थिक गतिविधि की गति में मंदी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की संभावनाओं में सुधार होने की उम्मीद है।’ लेकिन सवाल उठता है कि आप ‘सुधार’ करते कैसे हैं?

यहां दरों में कटौती को रामबाण उपाय माना जा रहा है लेकिन चूंकि खाद्य मुद्रास्फीति चिंताजनक रूप से ऊंची बनी हुई है, इस तथ्य की अनदेखी करके दरों में कटौती की जानी चाहिए। फिर भी, खाद्य मुद्रास्फीति सबसे अधिक गरीबों को प्रभावित करती है, इसलिए यह नजरिया विफल ‘ट्रिकल-डाउन’ सिद्धांतों की तर्ज पर इंजन को चालू रखते हुए गरीबों की अनदेखी करने जैसा है। जैसा कि आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर स्वर्गीय सावक तारापोरे ने एक बार कहा थाः ‘(उच्च) खाद्य मुद्रास्फीति की आपूर्ति पक्ष की समस्या मानकर अनदेखी नहीं की जा सकती है… यह आबादी के बड़े हिस्से के जीवन को प्रभावित करती है।’

नवंबर में, वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि बैंक ब्याज दरों पर निर्णय लेते समय खाद्य मुद्रास्फीति पर विचार करना ‘निहायत दोषपूर्ण सिद्धांत’ है। खाद्य मुद्रास्फीति में तेज वृद्धि पर चिंता जताने के बजाय केन्द्रीय बैंक के मुद्रास्फीति लक्षित ढांचे पर काम करते समय खाद्य मुद्रास्फीति को बाहर रखने का आह्वान इस सरल ज्ञान के उलट है कि आम आदमी पहले खाद्य मुद्रास्फीति से पीड़ित होता है, मुख्य मुद्रास्फीति से नहीं।

पहले सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए कम दरों से ऋण वितरण को बढ़ावा मिलना चाहिए, निवेश में वृद्धि होनी चाहिए, अधिक परियोजनाओं को आगे बढ़ना चाहिए और विकास को बढ़ावा देना चाहिए- यह एक राष्ट्र के आगे बढ़ने का संकेत है। फिर भी, ये सिद्धांत व्यवहार में तब नहीं आते जब बाहर आने वाले संकेत निष्पक्ष, संतुलित और न्यायसंगत विकास के विपरीत हों। नियामक ढांचे को सभी पक्षों के लिए काम करना चाहिए। अच्छे विकास के लिए अच्छा शासन पहली अपेक्षा होती है। लेकिन भारतीय आर्थिक कहानी कमजोर शासन और शीर्ष से निकलने वाले इन मजबूत संकेतों से पहचानी जा रही है कि सभी व्यावसायिक घराने समान नहीं हैं।

अडानी परिवार के खिलाफ आरोपों पर लगातार निष्क्रियता, बाजार नियामक सेबी के नैतिक अधिकार का ह्रास, अध्यक्ष का खुद से जुड़े आरोपों में उलझना, अपारदर्शी चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक चंदा- जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया- केन्द्रीय जांच एजेंसियों का पक्षपातपूर्ण इस्तेमाल, और आलोचकों को चुप कराने के लिए बल प्रयोग की रणनीति का उपयोग- ये सब नियंत्रण करने के दर्शन का हिस्सा हैं।

ये संकेत मुक्त बाजार उद्यमिता और निवेश के विचार के विपरीत हैं; वे रचनात्मकता, नवाचार और जोखिम लेने की क्षमता को खत्म कर देते हैं। आज निवेश पर विचार करने से पहले एक विवेकशील व्यवसायी को यह विचार करना होता है कि उसके बयान और उसकी स्थिति सत्ता में बैठे लोगों के साथ कैसे बैठेंगे। फिर उसे संभावित राजनीतिक बारूदी सुरंग से सावधानी से बचते हुए निवेश का फैसला लेना पड़ता है।

अच्छे शासन को अच्छे अर्थशास्त्र से अलग करना, उन्हें लगभग साफ-सुथरे विशिष्ट सेटों में काट देना और फिर टिकाऊ विकास की उम्मीद करना, ऐसा ही है जैसे सभी लोगों को मैराथन में शामिल होने को कहा जाए जबकि पहले से तय हो कि जीतना किसे है। यह खेल जल्द ही एक दिखावा के रूप में देखा जाएगा जिसका निवेश, प्रतिष्ठा और विकास संख्याओं पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा।

विकास के बारे में मचाए जा रहे हो-हल्ले से दूर प्रति व्यक्ति आय की कहानी है जो बहुसंख्य भारतीयों को विकास की कथित सफलता के दावों से दूर रखती है। व्यापक बेरोजगारी का ऐसा आलम है जो तमाम इस तरह की घटनाओं में दिखाई देती है जैसे कि लाखों लोगों द्वारा सीमित रिक्तियों के लिए कतार में लगने पर भगदड़ मचना, यह एक विभाजित राष्ट्र की बात करता है, इसके व्यवसाय सहमे हुए हैं, इसके नागरिकों को उन नौकरियों की तलाश है जो हैं ही नहीं।

सांप्रदायिक विभाजन बेशक बुरा है लेकिन आर्थिक विभाजन भी उतना ही बुरा हो सकता है, जिसमें कम लोगों के हाथों में धन सिमटता जा रहा हो। इससे हमारा देश चंद लोगों के ऐसे गेटेड समुदायों में तब्दील होता जा रहा है जिनमें बहुसंख्यक कदम नहीं रख सकते।

अर्थशास्त्री आपको बताएंगे कि अच्छी वृद्धि और मूल्य स्थिरता मजबूत अर्थव्यवस्था के दो स्तंभ हैं। ये वित्तीय स्थिरता की मजबूत रीढ़ पर काम करते हैं। इस संदर्भ में, बैंक एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां) पर लगाम लगाने वाले शीर्षक पर गौर करें। ‘सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक: एक पुनरुत्थानशील बल’ शीर्षक वाले आधिकारिक बयान को उद्धृत करने के लिए: ‘सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सकल एनपीए अनुपात में उल्लेखनीय सुधार हुआ है जो मार्च 2018 में 14.58% के शिखर से सितंबर 2024 में घटकर 3.12% हो गया। यह महत्वपूर्ण कमी बैंकिंग प्रणाली के भीतर तनाव को दूर करने के उद्देश्य से लक्षित हस्तक्षेप की सफलता को दर्शाती है।’ लेकिन यह भी तो देखिए कि कमी कैसे हासिल की गई?

बट्टे खाते में पैसे डालकर खातों को साफ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, 2023-24 के दौरान सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सकल एनपीए में 1,73,090 करोड़ रुपये (या 1.73 लाख करोड़) की कमी आई जिसमें से 1,12,515 करोड़ रुपये (या 1.13 लाख करोड़) सीधे-सीधे बट्टे खाते में डाल दिए गए। अगर वित्तीय स्थिरता को मजाक में नहीं बदलना है तो इस प्रवृत्ति की जांच की जानी चाहिए। इसके अलावा, सिस्टम में जोड़े जा रहे नए एनपीए की मात्रा का अध्ययन करने की भी तत्काल जरूरत है क्योंकि पुराने एनपीए में से अधिक को बट्टे खाते में डाला जा रहा है। 2023-24 में, सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली में 84,435 करोड़ रुपये के नए एनपीए जोड़े गए।

नए साल में कदम रखते हुए यह एक चेतावनी है। शासन और आर्थिक प्रबंधन को लंबे समय तक सुर्खियां बटोरने तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में फैकल्टी हैं। सौजन्य: द बिलियन प्रेस)

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