Migrant labourers rest under a bridge during a government-imposed nationwide lockdown as a preventive measure against the spread of the COVID-19 coronavirus, in Mumbai on April 16, 2020. (Photo by INDRANIL MUKHERJEE / AFP) (Photo by INDRANIL MUKHERJEE/AFP via Getty Images)
घर लौटने की जद्दोजहद में कुछ श्रमिक अक्सर रास्ते में ही मर जाते हैं। हम बस आह कर के रह जाते हैं। हादसों के लिए दूसरों की गलती बताते हैं। घटना कितनी भी बड़ी हो जल्द ही भूल जाते हैं। मई में करीब 3900 श्रमिक ट्रेन चलाई गईं। इनमे करीब 80 फीसदी यूपी के लिए थीं। इनसे करीब 50 लाख श्रमिकों को उनके घर पहुँचाया गया। लेकिन करीब चार दर्जन से अधिक श्रमिक अपना सफ़र पूरा नहीं कर सके। आखिर क्यों? कहा जा रहा इनमें से कुछ पहले से बीमार थे और कुछ रास्ते में बीमार पड़ गए और मर गए। लेकिन ये सब जीना चाहते थे।
तभी कहीं मीलों पैदल चल कर, कभी कुछ दूर ट्रकों में बैठ कर श्रमिकों ने ट्रेन पकड़ी थी ताकि घर पहुँच जाएं, बेमौत मरने से बच जाएं। कुछ दिन पहले मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर मरी पड़ी महिला और उसके शव के पास खेलते बच्चों का वीडिओ वायरल हुआ। सब आह..आह..करने लगे। नेता लोग महिला के गाँव दौड़ पड़े। महिला गुजरात में मजदूरी करती थी। जब वहां काम बंद हो गया तो बच्चों के साथ घर को चली थी। लेकिन रास्ते में चल बसी।
सहायता और सांत्वना का गुदस्ता लिए नेता लोग उसके घर को दौड़ पड़े। नोटों की बारिश होने लगी,राजनीती भी होने लगी। कैसा विरोधाभास है। महिला मर के घर वालों को उइतना पैसा दे गई जितना वह पूरी जिंदगी नहीं कमा सकती थी। यहाँ जीने की कोशिश में जान गंवाने पर अच्छी कीमत मिलती है, लेकिन किसको?
इसी तरह एक युवक ने भी नई जिन्दगी पाने की कोशिश में अपनी जान गंवा दी। उसके जेब में गोरखपुर का टिकट था और हजारों रूपये थे। लेकिन उसका सफर रास्ते में ही खत्म हो गया। शव पांच दिन तक ट्रेन के टॉयलेट में सड़ता रहा। एक श्रमिक स्पेशल 23 मई झांसी से वाया गोरखपुर, छपरा के लिए रवाना हुई थी।
ट्रेन नंबर 04168 श्रमिक स्पेशल 23 मई को झांसी से निकल कर छपरा में यात्रियों को उतारकर वापस 27 मई की रात झांसी लौटी। ट्रेन रैक जब यार्ड में पहुंची तो सफाई के दौरान एक बोगी के टॉयलेट में एक युवक का शव मिला। पड़ताल करने पर उसके पास आधार कार्ड और लगभग 28 हजार रूपये मिले। आधार कार्ड में नाम मोहन लाल शर्मा, पता हिंदुआ गांव, गौर थाना क्षेत्र, जिला बस्ती का था। युवक के पास टिकट गोरखपुर का था। जिससे ये अनुमान लगाया गया कि युवक गोरखपुर में उतर कर बस्ती जाने वाला था। गोरखपुर से बस्ती करीब 65 किलोमीटर है।
पता चला कि मोहन लाल शर्मा मुम्बई के प्रवासी मजदूरों के जत्थे के साथ आया था। वह चिप्स फैक्ट्री में काम करने वाला दिहाड़ी मजदूर था। फैक्ट्री बन्द होने के कारण सभी वापस लौटे थे। श्रमिक कई ट्रकों से झाँसी तक पहुंचे थे। लेकिन उन्हें झांसी के रक्सा बॉर्डर पर रोक दिया गया था। वहां उनकी बाकायदा मेडिकल जांच हुई थी। इसके बाद उन्हें झांसी जीआरपी के सुपुर्द किया गया था। जीआरपी ने इन श्रमिकों को छपरा श्रमिक स्पेशल में बैठाया था।
ऐसा लगता है की टॉयलेट में युवक की मौत गोरखपुर पहुँचने के पहले ही हो गई थी। ट्रेन गोरखपुर होते हुए छपरा पहुंची और छपरा से झाँसी लौट गई। और पांचवें दिन यार्ड में उसके शव का पता चला। आखिर यह कौन सा समय है और कैसे लोग हैं जिनका कोई साथी बीच सफ़र में अचानक गायब हो जाता और हमसफर को इसकी खबर तक नहीं होती। घर लौट रहे श्रमिकों की यह कौन सी भीड़ है जिसमें हर शख्स निहायत अकेला है? अब सिस्टम से क्या सवाल किया जाये, जिसके पास हर बात के बहाने हैं।
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