काठमांडू।उच्च न्यायालय तक पंहुचा इस बार का ओली बनाम संयुक्त विपक्ष का मामला बड़ा अजीब है। वरिष्ठ अधिवक्ताओं और न्याय विदों का मानना है कि किसी भी सरकार को बहुमत सिद्ध करने का प्लेटफार्म संसद का फ्लोर होता है, न कि न्यायालय।
राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के दूसरी बार संसद भंग करने के खिलाफ ओली के खिलाफ संयुक्त विपक्ष उच्च न्यायालय पंहुच गया। न्यायालय में नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व में 146 सांसदों ने हस्ताक्षर युक्त प्रतिवेदन दाखिल किया है।
उच्च न्यायालय में प्रतिवेदन दाखिलकर एक संयुक्त विपक्ष ने जुटता साबित करने की कोशिश की है। प्रतिवेदन में नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा,पुष्प कमल दहल प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल,उपेंद्र यादव,दुर्गा पौडेल सहित देउबा पक्ष के सभी 146 सांसदों के हस्ताक्षर हैं।
संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व पीएम पद के दावेदार देउबा कर रहे हैं। उच्च न्यायालय ने यदि ओली के खिलाफ संयुक्त विपक्ष के प्रतिवेदन पर गौर किया तो इसे ही विश्वास मत मानकर राष्ट्रपति के संसद भंग करने के फैसले को फलटकर देउबा को संसद के फ्लोर पर विश्वास मत हासिल कर सरकार बनाने का मौका देने का निर्देश संसद के स्पीकर को दे सकता है।
लेकिन यह उच्च न्यायालय के विवेक पर है। कानूनविदों के बीच यह चर्चा का विषय है और इसी के साथ यह आशंका भी है कि जरूरी नहीं इस बार भी न्यायालय विपक्ष की मंशानुरूप ही फैसला दे?
बता दें कि 21 मई को ओली ने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को बहुमत के लिए जरूरी 136 के सापेक्ष 152 सदस्यों की सूची पेश की थी,वहीं नेपाली कांग्रेस के शेरबहादुर देउबा ने भी सरकार बनाने का दावा पेश करते हुए 146 सदस्यों की सूची पेश की।
ओली और देउबा दोनों की सूची घालमेल से लबालब थी। इसमें मधेशी दल और कम्युनिस्ट दलों के ऐसे तमाम सांसद थे जो देउबा और ओली दोनों की सूची में दर्ज थे।
यहां बता दें कि मधेशी दलों की बनी मोर्चा जनता समाज पार्टी के अध्यक्ष महंत ठाकुर हैं तो एमाले कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष स्वयं ओली हैं।
महंत ठाकुर ओली और नेपाली कांग्रेस की रस्साकशी के बीच स्वयं पीएम की ताक में थे।यदि नहीं तो ओली ही रहें,सो उन्होंने ओली के समर्थन में सांसदो को व्हीप जारी किया लेकिन मधेशी दल के 12 सांसद जो उपेंद्र यादव गुट के माने जाते हैं, वे नेपाली कांग्रेस के देउबा के साथ थे लेकिन इनका नाम ओली की सूची में भी था।
इसी तरह पूर्व पीएम माधव नेपाल खेमे के एमाले कम्युनिस्ट पार्टी के 26 सांसद जो ओली की सूची में थे,उनके नाम देउबा की सूची में भी थे।
यह देख ओली ने राष्ट्रपति से व्हिप का उलंघन मानकर अपने उन 26 सदस्यों की सदस्यता रद करने की अपील कर दी जिनके नाम देउबा की सूची में थे।ऐसा ही महंत ठाकुर ने भी किया।
उन्होंने भी उपेंद्र यादव गुट के 12 सदस्यों की सदस्यता रद करने की गुहार लगाई जो उनके ह्वीप का उलंघन कर देउबा के साथ थे। राष्ट्रपति ने दोनों की बात नहीं सुनी और दोनों के बहुमत के आंकड़े की सत्यता की जांच किए बिना एक बार फिर संसद को भंगकर मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी।
ओली के खिलाफ बना संयुक्त विपक्ष जिसमें मधेशी दल के उपेंद्र यादव गुट और ओली से नाराज चल रहे इनकी ही पार्टी के माधव नेपाल व प्रचंड गुट शामिल है, राष्ट्रपति के संसद भंग करने के फैसले के विरुद्ध बहुमत के आंकड़ो के साथ फिर न्यायालय की शरण में गया है।
दरअसल न्यायालय की नजर इस कमजोर सरकार पर है लेकिन वह आर्थिक संकट से गुजर रहे नेपाल पर मध्यावधि चुनाव का बोझ डालने से बच रहा है।
न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायधीश के अनुसार फरवरी में उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के संसद भंग के पिछले फैसले के खिलाफ जो फैसला दिया था,उसके पीछे मुख्य कारण यही था।
नेपाल में दूसरे आम चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त है।राष्ट्रपति ने इस बार जो चुनाव की तिथि घोषित की है उस हिसाब से 12 और 19 नवंबर को चुनाव की तिथि तय है और तबतक ओली कार्यवाहक पीएम बने रहेंगे और उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव भी होगा।
फिलहाल नेपाल में सत्ता की जंग की गेंद एक बार फिर उच्च न्यायालय के पाले में है।इस बार न्यायालय की स्थिति असमंजस पूर्ण है लेकिन लोगों को उसके फैसले का इंतजार बेसब्री से है।