UCC पर BJP का खेल पुराना, हर चुनाव से पहले हल्ला, लेकिन ड्राफ्ट गायब

नई दिल्ली। विधि आयोग की अधिसूचना और प्रधानमंत्री मोदी की उसे लागू करने की जबरदस्त वकालत के चलते सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) एक बार फिर चर्चा में है। चुनाव-दर-चुनाव, यूसीसी बीजेपी के घोषणापत्रों का हिस्सा रही है। सन 1996 के घोषणापत्र में यूसीसी को ‘नारी  शक्ति’ खंड में शामिल किया गया था। तब से लेकर आज तक बीजेपी यूसीसी का मसौदा तक तैयार नहीं कर सकी है।

हमें आज तक यह पता नहीं है कि यूसीसी के लागू होने के बाद, तलाक, गुजारा भत्ता, संपत्ति के उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण के संबंध में क्या नियम और कानून होंगे। लेकिन यूसीसी फिर चर्चा में है और अब तक आल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड और कुछ मुस्लिम संगठन इसके खिलाफ आवाज उठा चुके हैं। इस बार, आदिवासियों और सिखों के संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं।

आदिवासी समूह केंद्रीय सरना समिति के एक पदाधिकारी संतोष तिर्की ने कहा, “वह (यूसीसी) विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और भूमि के हस्तांतरण के संबंध में हमारे प्रथागत कानूनों पर अतिक्रमण करेगी….”। एक अन्य आदिवासी समूह के नेता, झारखड के रतन तिर्की ने कहा, “अपना विरोध दर्ज करने के लिए हम विधि आयोग को ईमेल भेजेंगे। हम जमीनी स्तर पर भी विरोध करेंगे। हम अपनी रणनीति तैयार करने के लिए बैठकें कर रहे हैं। यूसीसी से संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधान कमजोर हो जाएंगे।”

राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) के एक घटक दल और उत्तर-पूर्व के एक बीजेपी नेता ने कहा कि वे इसका विरोध करेंगे। बीजेपी के सुशील मोदी, जो संसद की विधि एवं न्याय स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं, ने उत्तरपूर्वी राज्यों सहित आदिवासी इलाकों में यूसीसी लागू करने की व्यवहार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है (इंडियन एक्सप्रेस. 4 जुलाई 2023)।

शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने भी यूसीसी का विरोध किया है। अकाली नेता गुरजीत सिंह तलवंडी ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) से कहा कि वह यूसीसी को सिरे से खारिज न करे बल्कि विधि आयोग के साथ परामर्श करे। “इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी” जैसे प्रगतिशील मुस्लिम संगठनों ने ऐसे व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) बनाने की मांग की है, जिनका किसी धर्म से सरोकार नहीं हो।

व्यक्तिगत और पारिवारिक कानून, दीवानी और फौजदारी कानूनों से अलग होते हैं। दीवानी और फौजदारी कानून सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं। व्यक्तिगत कानूनों को ब्रिटिश सरकार ने संबंधित धर्मों के पुरोहित वर्गों के परामर्श से तैयार किया था। हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानूनों में बहुत विभिन्नता थी। मुख्यतः मिताक्षरा और दायभाग कानून लागू थे।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु, हिन्दू पर्सनल लॉ के लैंगिक दृष्टि से अन्यायपूर्ण होने से चिंतित थे और इसलिए उन्होंने अम्बेडकर से हिन्दू कोड में सुधार प्रस्तावित करने के लिए कहा था। उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की बात सरकार की ओर से इसलिए नहीं की गई, क्योंकि विभाजन के दौर में हुए दंगों के जख्म ताजा थे और सरकार नहीं चाहती थी कि ऐसा लगे कि मुसलमानों पर कोई कानून उनकी मर्जी के खिलाफ लादा जा रहा है। बाद में मुस्लिम लॉ को कुछ हद तक संहिताबद्ध किया गया और तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया। तीन तलाक को अपराध इसलिए घोषित किया गया ताकि समाज को ध्रुवीकृत किया जा सके और मुसलमानों को कानून तोड़ने वालों के रूप में प्रस्तुत किये जा सके।

अम्बेडकर न्याय और समानता के जबरदस्त पक्षधर थे और वे स्पष्ट देख सकते थे कि हिन्दू पर्सनल लॉ, महिलाओं को पराधीन रखने और उन पर जुल्म करने का हथियार हैं। अम्बेडकर ने लैंगिक समानता पर आधारित हिन्दू कोड बिल तैयार किया परन्तु इसका इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि सरकार को उसके कई प्रावधानों को हटाना पड़ा और उसे चरणों में लागू करने का निर्णय लेना पड़ा। हिन्दुओं के पुरातनपंथी तबके, जिसे हिन्दू राष्ट्रवादियों का पूरा समर्थन हासिल था, ने अम्बेडकर के त्यागपत्र की मांग की। अम्बेडकर स्वयं भी हिन्दू कोड बिल पर प्रतिक्रिया से मर्माहत थे और उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

हिन्दू कोड बिल के विरोध में गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका सबसे आगे थी। गीता प्रेस को वर्तमान सरकार द्वारा गांधी शांति पुरस्कार से नवाजा गया है। कल्याण ने लिखा, “अब तक तो हिन्दू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी, परन्तु अब यह साफ़ है कि अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिन्दू कोड बिल, हिन्दू धर्म को नष्ट करने के उनके षड़यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर उनके जैसा व्यक्ति देश का विधि मंत्री बना रहता है तो हिन्दुओं के लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात होगी और यह हिंदू धर्म पर एक धब्बा होगा।”

यूसीसी की मांग उभरते हुए नारीवादी आन्दोलन के ओर से जरूर की गयी थी। सन 1970 के दशक की शुरुआत में, मथुरा बलात्कार कांड के बाद इस मांग ने जोर पकड़ा। उस समय यह मान्यता थी कि एकरूपता से महिलाओं को न्याय मिलेगा। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर द्वारा के.आर. मलकानी को दिए गए एक साक्षात्कार में संघ प्रमुख ने यूसीसी का विरोध करते हुए कहा था कि भारत में विविधताओं के चलते यूसीसी लागू नहीं किया जा सकता (द आर्गेनाइजर, 23 अगस्त 1972)।

अतः इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यूसीसी से राष्ट्रीय एकता मज़बूत होगी। हम अमेरिका से सीख सकते हैं, जहां के 50 राज्यों में अलग-अलग कानून लागू हैं। अब अधिकांश महिला संगठन भी यूसीसी की बजाय लैंगिक न्याय पर जोर देने लगे हैं। क्या तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण से संबंधित नियमों को लोगों पर लादने से लैंगिक न्याय स्थापित हो जाएगा?

क्या यूसीसी को जबरदस्ती लागू करना ठीक होगा? क्या यूसीसी लाद देने से, प्रथागत परम्पराएं और प्रथाएं खत्म हो जाएंगी? ये सवाल महत्वपूर्ण हैं। आज जरूरत इस बात की है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के अंदर से सुधार की प्रक्रिया शुरू हो और लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। यह सही है कि विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले व्यक्तियों के बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वे अपने पूरे समुदाय और विशेषकर अपने समुदाय की महिलाओें की राय का पूर्णतः प्रतिनिधित्व करते हैं। कई मामलों में पुरूष स्वयं को अपने समुदाय का नेता घोषित कर देते हैं। उनके दावों पर निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह लगाए जाने चाहिए और अलग-अलग समुदायों की महिलाओं की राय को महत्व दिया जाना चाहिए और उनकी राय ही वर्तमान कानूनों में सुधार और परिवर्तन का आधार होनी चाहिए।

बीजेपी का यह दावा खोखला है कि यूसीसी लागू करने मात्र से महिलाओं का सशक्तिकरण हो जाएगा। अपने नौ साल के कार्यकाल में सरकार बहुत आसानी से समुदायों के भीतर से सुधार की प्रक्रिया की शुरूआत सुनिश्चित कर सकती थी। अलग-अलग समुदायों की महिलाएं समय-समय पर अलग-अलग मुद्दे उठाती रही हैं, परंतु उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों में बढ़ते असुरक्षा भाव के कारण उनके कट्टरपंथी तबके की समुदाय पर पकड़ और मजबूत हुई है।

बीजेपी का एकमात्र लक्ष्य है धार्मिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करना और यूसीसी भी इसी उद्देश्य के लिए उठाया गया कदम है। समुदायों के अंदर से सुधार को प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना कि यूसीसी पर किसी भी चर्चा के केन्द्र में लैंगिक न्याय हो सबसे जरूरी है। यूसीसी को हां या न कहने की बजाए जरूरी यह है कि यह मांग की जाए कि सरकार सबसे पहले यह साफ करे कि यूसीसी में आखिर होगा क्या? अर्थात यूसीसी का मसैदा बहस और चर्चा के लिए सार्वजनिक किया जाए। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि सभी समुदायों और विशेषकर मुसलमानों के परिपक्व और समझदार प्रतिनिधि यूसीसी का विरोध करने की बजाए यह मांग करेंगे कि यूसीसी का मसौदा तैयार हो।

बीजेपी की जो सरकार गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार प्रदान कर सकती है वह महिलाओं के सशक्तिकरण में गहरी रूचि रखती है यह मानना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होगा। बीजेपी का खेल सिर्फ इतना है कि मुस्लिम कट्टरपंथी व्यक्ति और संगठन यूसीसी के विरोध में खड़े हो जाएं और इससे समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बढ़े और बीजेपी की झोली में और वोट आएं। इस षड़यंत्र को असफल करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संगठन यह मांग करें कि पहले यूसीसी का मसौदा तैयार किया जाए और उसके बाद ही वे यह तय करेंगे कि वे उसके खिलाफ हैं या समर्थन में।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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