लखनऊ। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में एक व्यापारी को पुलिस वालों ने इसलिए गिरा-गिरा कर पीटा कि उसने मास्क नहीं लगा रखा था। वे उसे पुलिस वैन में भरकर उठा भी ले गए लेकिन बाद में हंगामा और ऊपर के हस्तक्षेप के बाद छोड़ा गया। पुलिस वाले ‘लाइन हाजिर’ हुए जिसका कोई मतलब नहीं होता। कम से कम दंड के मामले में तो कतई नहीं।
यूपी की राजधानी लखनऊ में एक कोरोना पीड़ित को पुलिस वाले एक पेट्रोल पंप पर जमीन पर लिटा कर कुछ इस तरह ‘क्वारैंटाइन’ कर गए कि हंगामा मच गया। यह पेट्रोल पंप राजधानी के सबसे व्यस्त ही नहीं, ऐसे चौराहे पर है जो लखनऊ की पहचान है। यह ठीक हजरतगंज चौराहे पर है, विधानसभा और सचिवालय से सिर्फ डेढ़ सौ कदम दूरी पर।
कहना न होगा कि यह सब दो ही हालात में होता है। एक हताशा में, जब कुछ सूझ न रहा हो। दूसरे, उन हालात में जब पुलिस या तंत्र निरंकुश हो चुका हो। संयोग से यूपी अभी इन दोनों ही हालात पर समान रूप से संतुलन साधता दिख रहा है। पुलिस तो निरंकुश हो ही चुकी है, पूरा प्रशासनिक तंत्र ही या तो हताश-निराश है या फिर निरंकुश। ऐसा कि उसे अब किसी की चिंता ही न हो। यह कोरोना काल का दूसरा कालखंड है, जो पहले से ज्यादा भयावह होकर सामने आया है, और हालात ऐसा बिगड़े हैं कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा।
सच है कि कोरोना संक्रमण ने इस बार की अपनी वापसी में पिछले साल के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। कुछ इस तर्ज पर कि ‘चुनौती तो हमने तब ही दे दी थी, अब तुमने उस चुनौती का सामना करने के लिए कुछ नहीं किया तो हमारा क्या दोष।’ नतीजा संक्रमण का ग्राफ हर दिन अपने से पिछले दिन से होड़ लेता दिखाई दे रहा है और सिर्फ राजधानी लखनऊ में ही यह संख्या 1000 क्रास करने के बाद 2000, फिर 3000 और शनिवार को 4000 का आंकड़ा भी पार कर गई।
इसके साथ ही लोगों के तनाव का ग्राफ भी पिछली बार की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बढ़ा हुआ दिखा है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पिछली बार के सबक से लोग उस कदर आतंकित न होकर, जांच के फेरे में न उलझ कर चुपचाप घर पर ही इलाज कर लेने में समझदारी दिखा रहे हैं, जाहिर है यह संख्या काफी बड़ी है और सरकारी आंकड़ो में शामिल नहीं है।
अब जब सूबे के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज KGMU में ही सौ-पचास डॉक्टर या मेडिकल स्टाफ संक्रमित हो, PGI के निदेशक सहित अनेक डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ इसकी चपेट में आ चुके हों तो यह भी स्वाभाविक है और खुद इलाज करा लेने का हालात जनित दबाव भी।
जब PGI की अपनी नर्स के मासूम बच्चे को इन हालात में इलाज न मिले और वह असमय उससे दूर चला जाए, सरकारी से लेकर निजी अस्पतालों तक में बेड उपलब्ध न हों, सरकारी तंत्र के जिम्मेदार लोग ही जब हाथ खड़े करते दिखाई दे रहे हों, ऐसे में जनता क्या करेगी और तन्त्र के लोग क्या करेंगे, सहज ही समझा जा सकता है। बस इस बेबसी के पीछे के हालात का अनुमान लगाने मात्र की जरूरत है, जो ज्यादा मुश्किल नहीं है। सब कुछ बहुत साफ है।
यह वही लखनऊ शहर है, जहां जब कोरोना के लिए वैक्सीन लगनी शुरू हुई तो शुरुआती ना-नुकुर के बाद लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया और बढ़-चढ़कर सरकारी व्यवस्था में भरोसा जताया। यही नहीं उन लोगों ने भी सरकारी इंतजाम की तारीफ करते हुए फोटो तक साझा कीं जो आमतौर पर सरकार और उसकी योजनाओं की आलोचना करते दिखते हैं।
मतलब साफ था कि टीकाकरण की शुरुआती व्यवस्थाएं लोगों को भा रही थीं (हालांकि उम्र के बंधन को लेकर बांधी गई सीमा पर सवाल तब भी थे) और वे उसमें बढ़चढ़ कर भागीदारी कर रहे थे। लेकिन यह भ्रम बहुत जल्दी टूट गया जब पहले यह घोषणा सामने आई कि टीके की दूसरी डोज अब 4 हफ्ते के बजाय 6 या फिर कहा गया कि 8 हफ्ते में लगेगी।
लोग इस पर किन्तु परन्तु लगा ही रहे थे कि टीका खत्म होने, कम पड़ने की खबरें आने लगीं और आज हालात ये हैं कि राजधानी सहित सूबे के तमाम टीकाकरण केंद्र टीके के आभाव में बंद पड़े हैं। यह कोरोना के बढ़े हुए संकट के दौर में लोगों का भरोसा खंडित होने का मामला है। ऐसे समय में जब उन्हें तंत्र के उनके साथ खड़े रहने का भरोसा दिखना चाहिए था, इस टूटते भरोसे ने बड़ा संकट उत्पन्न किया है।
कोरोना का यह ताजा संकट न तो अप्रत्याशित है न ही ऐसा कि इसे टाला या कम न किया जा सकता रहा हो। इस संकट की आहट तो पिछले वर्ष ही सुन ली गई थी, जब ये अंदेशा जताया गया था कि दूसरी लहर आ सकती है और सम्भव है कि ज्यादा खतरनाक भी हो। लेकिन वो कहते हैं न कि बीते कुछ वर्षों में हमने विज्ञान और तर्किकता पर कम, मन की आवाज पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है।
सो मन ने यही माना कि गर्मी में तो इसका असर कम ही होगा सो, किसी भी स्तर पर इसका काउंटर करने की रणनीति बनी ही नहीं। हमने बिहार से जो चुनावी शुरुआत की तो अभी बंगाल तक उसी में उलझें हुए हैं, जहां न मास्क का कोई मतलब है, न दो गज दूरी का। होली के आयोजनों ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई। कुम्भ में तो सारे नियम ही शिथिल हो गए।
अब यूपी में पंचायत चुनाव अलग ही माहौल उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि एक तरफ तो हम रात्रि कर्फ्यू लगाकर कोरोना पर काबू पाने की नाकाम जुगत लगाने की कोशिश में जुटे हैं, तो पंचायत चुनाव की सारी रणनीति रात के अंधेरे में ही बनती-बिगड़ती दिखाई दे रही है। अब उस रणनीति में तो रण ही ज्यादा होता है, सो न तो वहां मास्क दिख रहे हैं न दो गज की दूरी।
स्वाभाविक है ऐसे में कोरोना को अपना विस्तार करने का पूरा मौका मिल रहा है। सरकार का क्या है, वहां से तो निर्देश जारी हो रहे हैं। बेड बढ़ाने की व्यवस्था सुनिश्चित करने को कहा जा रहा है। लेकिन इस व्यवस्था में वो व्यवस्था कहीं नहीं दिखाई दे रही जो इन बढ़े हुए बेडों पर पड़े मरीजों का इलाज सुनिश्चित करेगी। चिकित्सा तंत्र से जुड़ा अदना सा शक्स भी जनता है कि दस बेड का ICU चलाने के लिए कम से कम 22 मेडिकल-पैरामेडिकल स्टाफ की जरूरत होती है।
ऐसे में अगर आप 10 बेड वाली क्षमता को बढ़ाकर 30 नहीं 300 बेड भी कर देंगे तो उसको सम्भालने वाले प्रशिक्षित स्टाफ कहां से आयेंगे? यह तो किसी निर्देश या गाइड लाइन में कहीं दिखाई नहीं दे रहा। ऐसे में स्वाभाविक है बेड तो जरूर होंगे लेकिन क्या इलाज भी होगा, यह आश्वस्त करने वाला अभी तक तो हमें कोई नहीं मिला।
उत्तर प्रदेश के 14 शहरों में नाइट कर्फ्यू
उत्तर प्रदेश में 14 जिलों में नाइट कर्फ्यू लगा दिया गया है। इनमें लखनऊ, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी, मेरठ, बरेली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, गाजियाबाद, नोएडा, मुरादाबाद, बलिया, गोरखपुर और ललितपुर शामिल हैं।
24 घंटे में 12 हजार से अधिक केस
बीते 24 घंटे में यूपी में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। नए आंकड़ों के अनुसार यूपी में 12,787 कोरोना के मरीज सामने आए हैं, जबकि 48 लोगों की मौत हुई है। वहीं कोरोना संक्रमण के मामले में लखनऊ पूरे प्रदेश में टॉप पर है। लखनऊ में पिछले 24 में 4,059 मरीज सामने आए हैं। जबकि 23 लोगों की मौत हुई है। प्रदेश में वर्तमान में 58,501 एक्टिव केस हैं। जबकि मृतकों की संख्या 9,085 पहुंच गई है।