यूपी विधानसभा 2007 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला मायावती ने पहली बार सबसे सफल तरीके से अपनाया था। दलितों के साथ सवर्ण को जोड़कर उन्होंने अपने दम पर विधानसभा चुनाव जीत लिया था। इसी सोशल इंजीनियरिंग पर मुलायम सिंह यादव ने बदलाव कर यादव, मुस्लिम और कुछ सवर्ण को जोड़कर 2012 में जीत हासिल कर अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया था।
इधर, इसके बाद राम मंदिर मुद्दे के प्रभावी ढंग से आगे आने से सोशल इंजीनियरिंग का प्रभाव 2017 और 2022 के चुनाव में कम जरूर हुआ लेकिन भाजपा सहित हर पार्टी इस समीकरण को टिकट वितरण में जरूर ध्यान रखती थी। चूंकि राम मंदिर मुद्दा भी हावी था और 2022 में राज्य में बेहतर कानून व्यवस्था, सुरक्षा, मुफ्त अनाज, किसानों को नकद लाभ भी बड़ा मुद्दा बना इसलिए इन दोनों चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग जैसा तरीका कमजोर पड़ गया था। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव, कांग्रेस के साथ मिलकर सोशल इंजीनियरिंग के ज्यादा बेहतर और असरकारक फॉर्मूले को अपना कर सफल साबित हुए।
जीत का फॉर्मूला और अखिलेश का आत्मविश्वास
दरअसल, चुनाव से चंद दिनों पूर्व ही सामने आए उनके पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक के फॉर्मूले ने पूरा चुनाव नतीजों को ही पलटकर रख दिया और भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। सपा की यह रणनीति इतनी कारगर साबित हुई है कि राज्य के हर क्षेत्र चाहे वह पश्चिम हो, मध्य हो या पूर्वांचल सब जगह भाजपा बुरी तरह पस्त हुई है। पूर्वांचल जहां नरेंद्र मोदी स्वयं चुनाव मैदान में थे भाजपा का एक तरह से सफाया जैसा हो गया है।
मतदान का यही पैटर्न बना रहा तो अगले विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बड़े खतरे की घंटी है, और यह एक ऐसा खतरा होगा जिसके आगे राम मंदिर, राज्य में बेहतर कानून व्यवस्था, विकास, मुफ्त अनाज और सुशासन जैसे मुद्दे बेहद गौण साबित हो सकते हैं। देश के सबसे बड़े इस राज्य की सत्ता को बचाए रखना बीजेपी के लिए जीवन-मरण का सवाल होगा और इसके लिए अभी से बेहद मजबूत रणनीति और आम आदमी को राहत पहुंचाने वाले मुद्दों के साथ तैयारी करनी होगी।
दरअसल, यह ध्यान रखना चाहिए कि भले ही यूपी के नतीजे चौंकाने वाले लग रहे हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसके पीछे सपा और कांग्रेस की एक सोची-समझी एक रणनीति ने भी काम किया है। वैसे भी चुनाव एक प्रयोगशाला की तरह ही होते है और आपके नपे-तुले और सटीक फॉर्मूले ही आपको जीत दिला सकते हैं।
भाजपा के लिए चुनौती बड़ी है और यह ध्यान भी रखना होगा कि लोकसभा चुनावों के नतीजों से उत्साहित सपा-कांग्रेस भी विधानसभा चुनाव में इससे बड़ी जीत के लिए पूरी कमर कस कर मैदान में उतरेंगे। भाजपा के लिए यूपी में खतरा कितना बड़ा है, यह इससे ही समझा जा सकता है कि उसने राज्य में पिछले चुनाव के मुकाबले आधे के करीब सीटें तो गंवायी ही हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर भी पिछले चुनाव के मुकाबले करीब सवा तीन लाख वोटों से कम हो गया है।