नई दिल्ली। राष्ट्रपति चुनाव में अब महज दो हफ्ते का समय ही रह गया है। इस बीच विपक्ष की ओर से उम्मीदवार बनाए गए यशवंत सिन्हा और भाजपा की तरफ से द्रौपदी मुर्मू ने विधायकों और सांसदों के वोट हासिल करने के लिए अलग-अलग राज्यों का दौरा शुरू कर दिया है। जहां मुर्मू वोट जुटाने के लिए पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर झारखंड और बिहार तक का दौरा कर चुकी हैं, वहीं यशवंत सिन्हा भी तेलंगाना से लेकर जम्मू-कश्मीर का दौरा कर रहे हैं।
खास बात यह है कि सिन्हा ने इस दौरान भाजपा शासित प्रदेशों पर भी ध्यान दिया है और वोट जुटाने के लिए उत्तर प्रदेश भी पहुंचे हैं। लेकिन उनका प्रचार के लिए बंगाल न जाना अभी भी राजनीतिक विश्लेषकों के लिए कौतूहल का विषय बना है।
दरअसल, यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनने से पहले पश्चिम बंगाल के ही प्रमुख दल तृणमूल कांग्रेस का हिस्सा रहे हैं। ऐसे में लोगों के बीच यह सवाल उठने लगे हैं कि आखिर क्यों यशवंत सिन्हा अपनी ही पार्टी के क्षेत्र में वोट की मांग करने नहीं जा रहे। कयास लगाए जा रहे हैं कि ममता बनर्जी को बंगाल से यशवंत सिन्हा को टीएमसी विधायकों के पूरे वोट्स मिलने का आत्मविश्वास है।
दूसरी तरफ एक संभावना यह भी जताई जा रही है कि यशवंत सिन्हा को बंगाल में प्रचार करने का मौका देकर ममता बनर्जी अपनी वोट बैंक की राजनीति को मुश्किल में नहीं डालना चाहतीं। आइए जानते हैं कि वह क्या वजहें हैं, जिनकी वजह से यशवंत सिन्हा बंगाल में प्रचार करने नहीं गए हैं…
1. ममता का अति-आत्मविश्वास?
यशवंत सिन्हा से पहले संयुक्त विपक्ष ने शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और राज्यपाल रह चुके गोपालकृष्ण गांधी को राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के लिए आगे बढ़ाया। हालांकि, तीनों ने ही इससे इनकार कर दिया। बाद में खुद बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा का नाम आगे किया।
ममता के दबाव में इस नाम पर आखिरकार सहमति भी बन गई। दरअसल, ममता को विश्वास था कि अपनी पार्टी के किसी नेता को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर वे विपक्ष की नेतृत्वकर्ता के तौर पर आगे आ सकती हैं और टीएमसी के सांसदों-विधायकों के वोट एकजुट रखने में भी कामयाब हो सकती हैं।
टीएमसी के लिए क्यों घातक?
हालांकि, बीते दिनों में जिस तरह से अलग-अलग राज्यों में राज्यसभा चुनाव के दौरान क्रॉस वोटिंग की घटनाएं हुई हैं, उससे ममता का यह आत्मविश्वास घातक भी साबित हो सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जिस तरह से बीते दिनों में ‘काली’ डॉक्यूमेंट्री को लेकर विवाद बढ़ा है और उस पर पार्टी सांसद महुआ मोइत्रा का जो बयान आया है, उससे टीएमसी के कुछ विधायकों में भी गुस्सा है। भाजपा ने भी इस मौके को भुनाते हुए टीएमसी के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं।
इस स्थिति के बीच बंगाल की राजनीति में ममता को हराने वाले सुवेंदु अधिकारी का फिर से सक्रिय होना भी टीएमसी के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। क्योंकि सुवेंदु के पहले से ही पार्टी में कई विधायकों और सांसदों से संपर्क हैं। ऐसे में राज्यसभा चुनाव में गुप्त मतदान होने की वजह से क्रॉस वोटिंग की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।
2. भाजपा का ट्रंप कार्ड
विपक्ष की ओर से यशवंत सिन्हा के नाम के एलान के अगले ही दिन भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू के नाम का एलान कर दिया था। चूंकि द्रौपदी पूर्व के किसी राज्य से आने वाली पहली महिला राष्ट्रपति हो सकती हैं, इसलिए इन राज्यों से उन्हें समर्थन मिलने की संभावनाएं काफी ज्यादा हैं। दूसरी तरफ उनका आदिवासी समुदाय से आना भी ओडिशा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में भाजपा को खासा फायदा दिला सकता है।
टीएमसी के लिए क्यों घातक?
द्रौपदी मुर्मू संथल आदिवासी समुदाय से आती हैं, जिसकी पूर्वी भारत में अच्छी-खासी आबादी है। अकेले बंगाल की ही बात कर लें तो राज्य की पूरी आदिवासी आबादी में 80 फीसदी हिस्सा संथल आदिवासियों का है। अब अगर ममता बनर्जी बंगाल में यशवंत सिन्हा को प्रचार करने का मौका देती हैं तो इससे उनके आदिवासी वोट बैंक पर भी असर पड़ सकता है। ऐसे में वे मुर्मू के खिलाफ सिन्हा को बंगाल में बुलाकर आदिवासियों के खिलाफ खड़े होने की छवि नहीं बनाना चाहतीं।2019 में आदिवासियों की एक बड़ी जनसंख्या को भाजपा के हाथों गंवाने के बाद टीएमसी ने 2021 के विधानसभा चुनाव में इस समुदाय को वापस पाने के लिए जबरदस्त मेहनत की। इसी का नतीजा था कि पुरुलिया से लेकर जंगलमहल और पूर्वी बंगाल में टीएमसी को जबरदस्त फायदा मिला। अब मुर्मू के विपक्ष में खड़े दिखकर ममता बनर्जी अपना आदिवासी वोट बैंक नहीं गंवाना चाहेंगी।
झारखंड में भी आ सकती है यही समस्या?
माना जा रहा है कि द्रौपदी मुर्मू की वजह से ही पूर्वी भारत के एक और राज्य झारखंड में भी यशवंत सिन्हा का दौरा नहीं होगा। इसकी एक वजह यह है कि झारखंड की सत्तासीन पार्टी झामुमो खुद को आदिवासी पार्टी के तौर पर दिखाती आई है। ऐसे में सिन्हा को झारखंड में प्रचार का मौका देकर झामुमो राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी उम्मीदवार के खिलाफ नहीं दिखना चाहेगी। गौरतलब है कि झामुमो भी उस संयुक्त विपक्ष की टीम का हिस्सा था, जिसने यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी पर फैसला लिया था।