डा सी पी राय (वरिष्ठ पत्रकार)
2024 के लोकसभा चुनाव की घोषणा भी हो चुकी है और प्रथम चरण के पर्चे भी भरे जा चुके है । सभी प्रत्याशियों का चुनाव प्रचार जोरों पर है और खर्च भी बेतहाशा हो रहा है । इस चुनाव में कुल करीब एक लाख बीस हजार करोड़ रुपया खर्च होने का अनुमान लगाया जा रहा है जो इससे कही अधिक भी हो सकता है ।
इसके मुकाबले 2019 के चुनाव में अनुमानतः कुल 60 हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ था जो तब तक का सबसे महंगा चुनाव माना गया । जबकि 2014 में कुल 9357 करोड़ रुपया खर्च हुआ था और 2009 में केवल भाजपा ने 448 करोड़ रुपया तथा कांग्रेस ने 343 करोड़ रूपया खर्च होना बताया था बाकी सब दलों के तथा अन्य खर्च अतिरिक्त है । 1951/52 के 10 करोड़ खर्च के मुकाबले ये खर्च तेजी से सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है जो देश के हालात , लोकतंत्र और चुनाव की शुचिता तथा चुनाव खर्चों की चिंता करने वालो को उद्वेलित कर रहा है ।
चुनाव इतना महंगा कैसे हो गया ? कितना महंगा और आम आदमी की पहुंच से दूर ? कब से महंगा हुआ ये सब सबके सामने है । अब तो चुनाव आयोग ने ही प्रत्याशी का खर्च 70 लाख कर दिया है और पार्टी द्वारा किया जाने वाला खर्च अलग । वर्तमान में कई चुनाव लडे हुए साथियों से जब खर्च पूछा तो चौकाने वाली चीजे सामने आई । समाज में एक बहुत प्रतिष्ठित दंपत्ति ने बड़े शहर से मेयर का चुनाव लडा जब उनसे बात किया तो उन्होंने बताया की दोनो की जमा कुल पूजी 35 लाख खर्च हो गए और चुनाव हार गए यदि 1 करोड़ होता तो चुनाव लडा जा सकता था।
बाकी साथियों ने बताया की काम से 2 करोड़ रुपया चाहिए लोकसभा में सामान्य चुनाव लड़ाने के लिए और जीत के लिए ये आंकड़ा 5 से 10 करोड़ और उससे अधिक पर पहुंच जाता है । उन लोगो ने ही बताया कि लोकसभा चुनाव में हर ब्लॉक में कम से कम दो गाड़ी चलाना होता है और एक क्षेत्र में 15 से 18 तक ब्लॉक होते है तो कम से कम 30 से 45 तक गाड़ी का खर्च कम से कम 2 लाख रुपया प्रतिदिन होता है । प्रत्याशी , चुनाव एजेंट तथा अन्य सहयोगियों की भी कम से कम 5 से 10 तक गाड़ी चलती है । हर ब्लॉक पर कम से कम एक कार्यालय चलता है जिसका खर्च 5 से 10 हजार प्रतिदिन होता है ।
केंद्रीय कार्यालय का खर्च भी 10 हजार प्रतिदिन होता है।।लोगो का प्रतिदिन खाना पीना और चाय पानी का खर्च । लोकसभा क्षेत्र में 50/60 छोटी सभाएं 5/10 हजार प्रति के हिसाब से और 15/20 बड़ी सभाएं ब्लॉक मुख्यालय पर 10/20 हजार प्रति कम से कम और किसी बड़े नेता की एक रैली 5 से 10 लाख तक ।
इसके अलावा हर गांव में चुनाव से एक दिन पहले 5 से 10 हजार खाना पीना का खर्च और वोट के ठेकेदारों को 500 से 1000 तक प्रति वोट दिलवाने का तथा अंत में 2500 के आसपास बूथ के लिए दिए गए बस्ते में 1000 प्रति बस्ता और वोट की गिनती का खर्च । इसके अलावा हैंड बिल ,पोस्टर पर्चा और बहुत कुछ जैसे सोशल मीडिया , स्थानीय अखबार इत्यादि में विज्ञापन ।
हिसाब लगाया जा सकता है की प्रत्याशी के स्तर पर कितना खर्च होने लगा है और पार्टी के स्तर पर होने वाला खर्च अलग है । जरा देख लेते है की एक सांसद को कुल कितना पैसा मिलता है । सांसद को 1 लाख रुपए तनख्वाह मिलती है तो 60 हजार रूपए कार्यालय भत्ता मिलता है और 70 हजार रूपए क्षेत्र का भत्ता मिलता है । दिल्ली में सभी सांसद दो व्यक्ति रख सकते है जिनके लिए 60 हजार रुपया मिलता है ।
जो संसद संसद की गतिविधियों में ज्यादा सक्रिय रहना चाहते है वो दोनो व्यक्ति संसद से ही मांग लेते है और संसद से अवकाश प्राप्त लोग उन्हें मिल जाते है जो वहा के कार्यों में मदद करते है तथा वो 60 हजार उन्हें मिल जाता है ।कुछ सांसद अपने किसी व्यक्ति को भी उसमे से एक पद पर नियुक्त कर लेते है । इसी तरह सांसद का क्षेत्र बहुत बड़ा होता है और वहा भी उसे कम से कम एक बहुत जिम्मेदार व्यक्ति जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसका काम सम्हाल सके चाहिए होता है ।
दिल्ली हो तो भी क्षेत्र के लोगो के आने पर उनका खाना चाय ही नही बल्कि कई बार इलाज का खर्च और वापसी का किराया भी देना होता है और क्षेत्र में लोगो को चाय पिलाने ,रात को रूक गया कोई तो उसका खाना , इलाज , सबके शादी ब्याह और गमी में अवश्य जाना तथा हर शादी में कुछ न कुछ लिफाफे में देना ये सब खर्चे होते है सांसद के । बाकी उसको दिल्ली में पानी बिजली और रहने को वरिष्ठ के आधार पर दो कमरे के फ्लैट से लेकर 4 कमरे तक का घर मिलता है फर्नीचर सहित जो दिल्ली में मिलना ही चाहिए ।
रेलवे पास मिलता है और फोन मिलता है । इसको भी लोग आय में जोड़ लेते है। पर असल आय 1 लाख रुपया और जब संसद चलती है तो उतने दिन तथा अन्य बैठकों के दिन भत्ता मिलता है । किसी भी तरह से सांसद की हाथ में आने वाले आय 15 से 18 लाख रुपया साल ही होती है । अधिक से अधिक 1 करोड़ रुपया उसे 5 साल में मिलता है तो वो 5 से 10 करोड़ रुपया खर्च कहा से करता है । अगर ये पैसा पार्टी देती है तो वो इतना पैसा चुनाव में क्यों खर्च करती है ?
अगर प्रत्याशी खर्च करता है तो वो क्यों करता है ? यही से शुरू होती है भ्रष्टाचार की कहानी और इसकी शुरुवात हुई जब सांसदों और विधायकों को विकास के लिए फंड मिलने लगा जो 2 करोड़ से शुरू होकर 5 करोड़ पहुंच गया । प्रारंभ में आरोप लगाता था की इस फंड से 5 प्रतिशत सांसद जी को स्वतः मिल जाता है यानी 25 लाख रुपया साल । फिर ये आरोप कुछ मामलों में 50 प्रतिशत तक लगाने लगा खासकर स्कूल या अन्य संस्थाओं की मदद के मामले में । इसमें सच क्या है ये तो या सांसद बता सकते है या उन्हें देने वाले । एक पूर्व जन प्रतिनिधि ने बताया की क्षेत्र के लिए आप जितना पैसा सरकार या किसी संस्था से पास करवा लाते है उसमे भी मिलता है तथा बहुत से नेता ठेका भी अपने किसी के नाम से चलाते है ।
चाहे जैसे भी पैसा आता है और चाहे जैसे भी जाता है पर सवाल ये है की जिस देश में गरीबी के रेखा के नीचे का आलम ये है की 80 करोड़ लोगो को मुफ्त में अनाज देना पड़ रहा है और बेरोजगारी के अभी आए आंकड़े डराने वाले है उस देश में जनता की सेवा की जिम्मेदारी लेने वाले पद का चुनाव इतना महंगा क्यों ? तय तो ये था की गरीब भी चुनाव लड़ेगा तो वो अब इस दृश्य में तो पूरी तरह ओझल हो चुका है तो लोकतंत्र में बराबरी कहा बची ? पूजीवाद का ये नंगा नाच क्यों और महंगे चुनाव के लिए तरह तरह की धन की लूट क्यों ?ये सवाल लोकतंत्र ले माथे पर और भारत के संविधान के माथे पर चिपक गए गए है और मुंह चिढ़ा रहे है ।
अब सवाल ये है की यही चलता रहेगा या इसका कुछ निदान भी खोजा जाएगा ? निदान खोजेगा कौन ? उससे बड़ा सवाल है की जो जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और उससे पिंड छुड़ाना चाहती है तथा अपने नेताओ को साफ पाक देखना चाहती है वो खुद इस महंगे चुनाव का हिस्सा क्यों बन जाती है ? क्यों शराब हो या साड़ी , पूरी हो या मुर्गा स्वीकार ही क्यों करती है ? क्यों एक दिन 500 रुपया ले लेती है और 5 साल निराश होकर गाली देती रहती है ? क्यों अपनी सड़क पुलिया , नहर और बिजली के न होने या खराब होने की शिकायत करती है ?
क्या जनता को और प्रशिक्षित करने की जरूरत है ? तो करेगा कौन ? क्योंकि राजनीतिक दलों को तो ये सूट कर रहा है और उनका काम चल रहा है । साथ ही सवाल है की राजनीतिक दल भी इस महंगे चुनाव के चक्कर में कही पूजीपटियो की कठपुतली तो नही बनते जा रहे है और कही अपने सिद्धांतों तथा विश्वसनीयता से समझौता तो नही कर रहे है ? चुनाव आयोग भी 70 लाख रुपया खर्च करने की छूट ही क्यों दे रहा है ? क्यों नही वो 5 साल में सांसद को होने वाली कुल आमदनी का केवल 5 या 10 प्रतिशत ही खर्च करने की अनुमति देता है ।
क्या एक लोकसभा क्षेत्र में छात्र संघ चुनाव की तरह एक ही मंच पर हर प्रत्याशी को लॉटरी से निकाल कर टाइम नही दिया।जा सकता और सभी प्रत्याशी 10 / 10 मिनट में अपना भाषण दे । ये आयोजन ब्लॉक स्तर पर भी हो सकता है जिसका खर्च सरकार या चुनाव आयोग वहन करे । इसी तरह राजनीतिक दलों के वादे और घोषणाएं बराबर बराबर अखबार और टीवी की आयोग की तरफ से ही जारी की जाए । दल और प्रत्याशी द्वारा किसी भी खर्च पर रोज लगा दी जाए । क्या किसी भी विधायक, सांसद और अन्य पदों पर भी अधिकतम दो बार ही रहने का नियम नही बनाया जाना चाहिए ताकि नए लोगो को मौका मिले और ये नियम पार्टी के अध्यक्ष पद पर भी लागू हो और हारने वाला भी दो बार के बाद चुनाव नही लड़।सके ।
अमरीका में राष्ट्रपति प्रणाली है पर चुनाव में 19 वोट डाले जाते है जिसमे उप राष्ट्रपति , प्रतिनिधि सभा,सीनेट, राज्यपाल ,प्रदेश के दोनों हाउस के सदस्य , काउंटी के चेयरमैन, सिटी कौंसिल के सदस्य , स्कूल कालेज प्रबंधन के सदस्य से लेकर हाई कोर्ट के जज तक । अमेरिका का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है जिसमे पहले तो चुनाव में प्रत्याशी होने के लिए वोट पड़ता है और फिर जनता इलेक्टोरल कालेज के लिए मतदान करती है जो राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति का चुनाव करते है ।
वहा कि चुनाव प्रणाली में कई बार जनता का पापुलर वोट किसी को मिलता है पर इलेकोटोरल वोट से वो जीत जाता है जिसका राजा उदाहरण हिलेरी क्लिंटन का था जिसे 65 लाख से ज्यादा पॉपुलर वोट यानी जनता का वोट पड़ा था पर वो इलेक्टोरल वोट में हार गई । वहा अलग अलग राज्य की अलग अलग इलेक्टोरल वोट की वैल्यू है और मान लिया की किसी राज्य में 40 वोट है तो जिस किसी को 21 वोट मिल जाता है वो 40 वोट उसका हो जाता है । ऐसे भी कई छोटे राज्यों में जीतने के बावजूद बड़े राज्य हार तय कर देते है ।
वहा बहुत छोटे छोटे पॉकेट में चुनाव कार्यालय होते है जिसे सिटी कार्यालय भी कह सकते है और उसके ऊपर काउंटी फिर स्टेट कार्यालय होते है और सबकी अलग भूमिका होती है । निचला कार्यालय दो तरह के लोग चलाते है एक जो पेड होते है और दूसरे जी रिटायर लोग या पार्टी समर्थक जो अपनी सहूलियत के हिसाब से समय देते है । इस स्तर पर फोन बैंकिंग का काम और नए वोटर बनाने का काम होता है जो बहुत महत्त्वपूर्ण होता है ।
वह मौजूद हर व्यक्ति को वोटर लिस्ट के पन्ने दिए जाते है तथा एक पेज भी जिसपर लिखा होता है की क्या बात करनी है ।इसके अलावा सड़क तथा मुहल्ले में संपर्क कर अपने प्रत्याशी के पक्ष में नए वोटर बनाना भी होता है । समय समय पर हर स्तर पर मीटिंग होती है और समीक्षा के साथ रणनीति पर चर्चा होती है । इलेक्शन फंडिंग के लिए भी दावत के साथ छोटी छोटी मीटिंग हर क्षेत्र में होती है और जज लोगो के चुनाव के लिए उनकी अलग मीटिंग होती है ।
अमरीका में मुख्य भूमिका राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की तीन डिबेट की होती है जिसे पूरा देश टीवी के माध्यम से सुनता है और वहा भी नारे तथा आरोप काम करते है । ट्रम्फ ने : अमेरिका इस ओनली फॉर अमेरिकन: का नारा दिया और हिलेरी पर ईमेल लीक होने और राष्ट्र की सुरक्षा से खिलवाड़ का माला उठाया तो हिलेरी ने ट्रमफ द्वारा कभी देश को कोई टैक्स नही देने और गैर जिम्मेदार होने का आरोप लगाया । अमरीका का चुनाव बहुत महंगा चुनाव होता है जिसमे सबसे महंगा मीडिया और सोशल मीडिया से प्रचार होता है ।
इसलिए अमरीका से हम उसकी महगाई तो नही ले सकते है पर चुनाव में प्रत्याशी होने के लिए हर स्तर पर दल के अंदर चुनाव उनकी एक अच्छी चीज है तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच डिबेट दूसरी अच्छी चीज है जिसमे एक डिबेट में संपादक लोग सवाल करते है और सभी मुद्दों पर प्रत्याशी का विचार और ज्ञान सामने आ जाता है । ये दोनो चीजे भारत में लोकतंत्र को और प्रभावी बना सकती है । ऐसा कर के तो देखे हो सकता है चुनाव के माथे पर चिपका सवाल मुंह चिढ़ाना बंद कर।दे और भारत का लोकतंत्र और स्वस्थ तथा शक्तिशाली लोकतंत्र बन जाए ।