श्रीराम जन्मभूमि के लिए बलिदान देने वालों के सपने पांच अगस्त को होंगे साकार

लखनऊ/अयोध्या। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर पांच अगस्त को भूमि पूजन के साथ ही भव्य व दिव्य मंदिर निर्माण की नींव पड़ जायेगी। यह सनातन संस्कृति की बड़ी जीत है। दरअसल इस जन्मभूमि के लिए न्यायिक प्रक्रिया से पहले हिन्दुओं ने एक-एक करके 76 भीषण युद्ध लड़े और हजारों बलिदानियों ने अपने जान की आहुति दी। अब पांच अगस्त को उनके सपने साकार होंगे।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर निर्मित प्राचीन मन्दिर 1528 ई. में आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी द्वारा तोपों से तुड़वाया गया था। मीरबाकी ने भगवान श्रीराम का मन्दिर नष्ट करवाकर उसके ऊपर बाबरी ढांचे का निर्माण करवाया था। इतिहासविद् प्रो. आनन्द शंकर सिंह बताते हैं कि मुस्लिम फकीर शिष्यों, ख्वाजा अब्बास मूसा और जलालशाह ने बाबर को श्रीराम मन्दिर को नष्ट करने की सलाह दी थी। इसके बाद बाबर ने इसे तोड़वाया था। इसके बाद श्रीराम मन्दिर को पुनः प्राप्त करने के लिए हिन्दूओं ने काफी संघर्ष किया और इसके लिए कईयों ने अपने जान की आहुति भी दी।
ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार जिस समय मीरबाकी द्वारा मंदिर तुड़वाया जा रहा था, उस समय भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह और हंसवर के राजगुरु पं. देवीदीन पाण्डेय ने 15 दिनों तक संघर्ष किया। दोनों तरफ से घमासान युद्ध हुआ। इस दौरान करीब एक लाख 74 हजार हिन्दुओं के वीरगति प्राप्त करने के बाद ही मीरबाकी मंदिर को तोप के गोलों से गिराने में सफल हो सका। उसने रामजन्मभूमि मंदिर के मलवे से उस स्थान पर दरवेश मूसा आशिकान के निर्देश पर मस्जिद जैसा एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया। इतिहासकार बताते हैं कि बाबर के काल में ही इस स्थान को वापस प्राप्त करने के लिए चार बार युद्ध हुए।
इतिहासविद् डॉ. रवीश कुमार का कहना है कि हुमायूं के शासनकाल में श्रीराम मंदिर को वापस पाने के लिए रानी जयराज कुंवारी एवं स्वामी महेश्वरानन्द जी के नेतृत्व में कई युद्ध हुए। इनमें 10 युद्धों के वर्णन इतिहास के कुछ ग्रंथों में मिलते हैं। इसी तरह अकबर के समय में भी 20 बार युद्ध हुये। डॉ. रवीश के अनुसार अकबर ने बाद में श्रीराम जन्मभूमि परिसर के अन्दर तीन गुम्बदों वाले तथाकथित मस्जिद के ढांचे के सामने एक चबूतरे का निर्माण कर उसपर प्रभु श्रीराम का मन्दिर बनवाकर बेरोकटोक पूजा करने की अनुमति दे दी थी। यही स्थान बाद में राम चबूतरे के नाम से विख्यात हुआ। इसी स्थान पर भगवान की पूजा सदैव चलती रही। छह दिसम्बर, 1992 के बाद ही इस स्थान का अस्तित्व समाप्त हुआ।
इतिहासकार यह भी बताते हैं कि औरंगजेब के काल में भी श्रीराम मंदिर के लिए 30 युद्ध हुये। उस समय बाबा वैष्णवदास, गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह आदि ने डटकर लोहा लिया था। अवध के नवाब सआदत अली के काल में भी हिन्दुओं ने अपने आराध्य के मंदिर के लिये पांच बार युद्ध किये। इसके बाद नवाब ने हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दे दी। फिर नवाब वाजिद अली शाह के काल में हिन्दुओं ने बाबा उद्धवदास और भाटी नरेश के नेतृत्व में चार बार लड़ाई लड़ी।
वरिष्ठ पत्रकार और उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त नरेन्द्र श्रीवास्तव बताते हैं कि आज भी अयोध्या की गलियों में 76 लड़ाइयों का वर्णन सुनने को मिलता है। निश्चित ही इन लड़ाइयों में लाखों हिन्दू वीरों ने अपनी जान दी होगी। मुगल सेना के भी तमाम लोग इसमें मारे गये होंगे। इस तरह हिन्दू समाज ने अपने इस पवित्र स्थल को एक लम्बी लड़ाई के बाद प्राप्त कर सका है। ऐसे में यह सिर्फ भारत के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के सभी सनातन धर्मावलम्बियों की बड़ी जीत है।
श्रीराम जन्मभूमि के जानकार और वरिष्ठ समाजसेवी पुरूषोत्तम नारायण बताते हैं कि अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के पश्चात अंग्रेज अधिकारियों ने तीन गुम्बदों वाले ढांचे और राम चबूतरा के बीच एक दीवार खड़ी करा दी। इस कारण हिन्दुओं को पूजा अर्चना में व्यवधान आने लगा। उन्हें लाचार होकर बाहर से ही अपने आराध्य का दर्शन पूजन करना पड़ता था, लेकिन पूजा अर्चना का क्रम लगातार जारी रहा।
श्री पुरूषोत्तम नारायण बताते हैं कि बाद में प्रजा ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध बहादुर शाह जफर को नेतृत्व सौंप दिया, उस समय मुस्लिम नेता अमीर अली ने इस स्थल को हिन्दुओं को वापस सौंपने का निर्णय कर लिया था, लेकिन इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य 1857 ई0 में अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष असफल हो गया। नतीजा यह रहा कि अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अमीर अली और बाबा रामचरण दास को एक इमली के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक फांसी दे दी और यह स्थान हिन्दुओं को प्राप्त न हो सका।
श्री नारायण बताते हैं कि इसके बाद सन् 1885 ई0 में महंत रघुवरदास ने फैजाबाद की अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया, जिसमें राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का बनाने की अनुमति मांगी। तत्कालीन अदालत ने इस मुकदमे को खारिज कर दिया। फिर ब्रिटिश न्यायाधीश कर्नल चैमियर की कोर्ट में अपील की गई। कर्नल चैमियर ने स्थान का स्वयं निरीक्षण किया और 1886 ई0 में अपने निर्णय में लिखा कि ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर बने भवन को तोड़कर किया गया है। चूंकि यह घटना 356 वर्ष पुरानी है इसलिए इसमें कुछ करना उचित नहीं होगा।’
उन्होंने बताया कि वर्ष 1934 में अयोध्या में गोकशी की घटना से हिन्दू समाज आक्रोशित हो गया। इसके बाद गुस्साई भीड़ ने गोकशी के कई आरोपितों मार डाला। इतना ही नहीं उत्तेजित हिन्दू समाज विवादित ढ़ांचे पर भी चढ़ बैठा और तीनों गुम्बदों को काफी क्षति पहुंचाई। हालांकि उस समय हिन्दू समाज मंदिर पर पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर सका, लेकिन इस घटना के बाद श्रीराम जन्मभूमि परिसर में दूसरे पक्ष के लोग जाने से हिचकिचाने लगे।
इतिहासकार बताते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने बाद में क्षतिग्रस्त तीनों गुम्बदों की मरम्मत करवाई, इसमें हुए खर्च की वसूली अयोध्या के हिन्दू समाज से टैक्स के रूप में की गयी। इस तरह वर्ष 1934 से यह स्थान पूरी तरह से हिन्दू समाज के कब्जे में है। बाहर राम चबूतरे पर वह भगवान की मूर्तियों की पूजा करता था और गुम्बदों के भीतर की पवित्र भूमि पर पुष्प चढ़ाकर वहां नतमस्तक होता था।
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